Homeजातक कथाएक प्रेरक बोधकथा है  - मूर्ति पूजा

एक प्रेरक बोधकथा है  – मूर्ति पूजा

एक राजा था. वह मूर्ति पूजा का घोर विरोधी था. एक दिन एक ब्राह्मण पुजारी उसके राज दरबार में आया और राजा से बोला, हे राजन! तुम मूर्ति पूजा का विरोध क्यों करते हो?

राजा बोला- “आप मूर्ति पूजा को सही साबित करके दिखाओ. मैं अवश्य स्वीकार कर लूँगा.”

पुजारी बोला – “राजन! यदि आप मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते हैं, तो दीर्घा में जो आपके स्वर्गवासी पिताजी की मूर्ति लगी हुई है, उस पर थूक कर दिखाएं,  और यदि थूक नहीं सकते, तो आज से ही मूर्ति पूजा करना शुरू कर दें.”

यह सुनकर राज दरबार में सन्नाटा छा गया.

थोड़ी देर बाद राजा बोला- “ठीक है. आप 7 दिन बाद आना, तब मैं आपको जवाब दूंगा.”

उस समय तो वह पुजारी चला गया. लेकिन चौथे ही दिन वह दौड़ा-भागा , गिरता-पड़ता राज दरबार में आ पहुँचा और जोर-जोर से रोने लगा. ‘त्राहिमाम, राजन! त्राहिमाम.

राजा बोला- “क्या हुआ?”

पुजारी बोला- “राजन! राजसैनिक मेरे माता-पिता को बंदी बनाकर ले गए हैं, और दो मूर्तियां मेरे घर में रख गए हैं.”

राजा बोला, “हां, मैंने ही आपके माता-पिता की मूर्तियां बनवाकर आपके घर में रखवा दी हैं. अब से आपके माता-पिता हमारे बंदी रहेंगे, और उन्हें खाने-पीने के लिए कुछ नहीं दिया जायेगा. लेकिन आप उनकी मूर्तियों की अच्छी प्रकार से सेवा करें. उन मूर्तियों को अच्छे से खिलाएं, पिलाएं, नहलाएं, धुलाएं. अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाएँ.”

पुजारी बोला- “राजन! वो मूर्तियां तो निर्जीव जड़ हैं, वो कैसे खा-पी सकती हैं, और उन मूर्तियों को खिलाने-पिलाने से मेरे माता-पिता का पेट कैसे भरेगा? मेरे माता-पिता तो भूखे-प्यासे ही मर जाएंगे. कुछ तो दया कीजिए, राजन!”

राजा बोला- “ठीक है. आप यह 10,000 स्वर्ण मुद्राएँ ले जाएँ और उन मूर्तियों के सम्मान में उनके रहने के लिए एक अच्छा सा महल भी बनवा दें.”

पुजारी बोला- “मेरे माता-पिता बंदीगृह में रहें और मैं उन मूर्तियों की सेवा करूं?  यह तो महा मूर्खता है.”

राजा बोला, ” हम देखना चाहते हैं कि आपके माता-पिता की मूर्तियों की सेवा से आपके वास्तविक माता-पिता की सेवा होती है या नहीं.”

पुजारी गिड़गिड़ा कर बोला- “नहीं राजन! उन मूर्तियों की सेवा से मेरे माता-पिता की सेवा नहीं हो सकती.”

राजा बोला- “जब आप सर्व शक्तिमान, सर्व व्यापक परमेश्वर की मूर्ति बनाकर पुजवा सकते हैं, और उससे सर्व शक्तिमान और सर्व व्यापक परमेश्वर की पूजा होना मानते हो, तो अपने माता-पिता की मूर्तियों की सेवा से आपके माता-पिता की सेवा क्यों नहीं हो सकती?”

अब वह ब्राह्मण पुजारी निरुत्तर हो गया और शर्म से उसने अपनी दृष्टि को भूमि पर गढ़ा लिया.

राजा पुनः बोला- “आपके माता-पिता में जो गुण हैं, जैसे- ममता, स्नेह, वात्सल्य, ज्ञान, मार्गदर्शन करना, रक्षा करना, चेतन आदि उनकी मूर्ति में कभी नहीं हो सकते.  ठीक वैसे ही मूर्ति में परमेश्वर के गुण, जैसे- सर्व व्यापक, सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ, अंतर्यामी, सृष्टि, दयालु, न्यायकारी, चेतन नहीं हो सकते. फिर ऐसी मूर्ति की पूजा करने का क्या मतलब है?”

 इसके बाद थोड़ी देर तक राज दरबार में सन्नाटा छाया रहा. अब वह पुजारी शर्मसार हो चुका था. अंततः वह ब्राह्मण पुजारी राजा के चरणों में गिर गया और बोला- “मुझे क्षमा कर दें राजन! आपने मेरी आँखें खोल दी हैं. मुझे मेरी गलती पता चल गई है. अब मैं ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगा.”

अंत में राजा बोला- “और हाँ! जैसे हम अपने कपड़ों को साफ़ रखते हैं, उन्हें गंदा नहीं होने देते हैं, उनकी इज्जत करते हैं. इसी प्रकार यादगार के लिए बनाए गए अपने पूर्वजों एवं महापुरुषों के चित्र और मूर्तियाँ को साफ़ रखने या नष्ट होने से बचाने का महत्व बस इतना ही है. अब जाओ, अपने माता-पिता को सम्मान के साथ अपने घर ले जाओ.”

सीख: किसी महामानव के चित्र या प्रतिमा का सम्मान करने और मूर्ति पूजा करने में अन्तर है. मूर्ति पूजा पाखंड है. मानवता ही धर्म है. कर्म ही पूजा है.

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