HomeBuddha Dhammaवैशाख पूर्णिमा त्रिविध पावनी बुद्ध पूर्णिमा क्यों है?

वैशाख पूर्णिमा त्रिविध पावनी बुद्ध पूर्णिमा क्यों है?

वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा कहते हैं. वैसे प्रचलन में इसे त्रिविधपावनी बुद्ध पूर्णिमा कहने की परम्परा है. त्रिविध पावनी का अर्थ होता है- तीन रूपों में पावन.

अब तक के ज्ञात इतिहास में यह सर्वाधिक अनूठी घटना है कि 563 ईसा पूर्व जिस दिन राजकुमार सिद्धार्थ गौतम का जन्म हुआ उस दिन वैशाख की पूर्णिमा थी.  राजकुमार सिद्धार्थ गौतम का जन्म लुम्बिनी में हुआ था.  बौद्धों के चार महातीर्थों में भगवान बुद्ध का जन्म स्थल लुम्बिनी प्रथम तीर्थस्थान है.  

29 वर्ष की आयु में राजकुमार सिद्धार्थ ने महाभिनिष्क्रमण किया अर्थात गृह त्याग किया. 35 वर्ष की आयु में वह ज्ञान को उपलब्ध हुए.  उरुवेला में निरंजना नदी के तट पर पीपल के पेड़ के नीचे वह बुद्ध हो गए.  जिस दिन वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उस दिन भी वैशाख की पूर्णिमा थी.  वह स्थान आज विश्वतीर्थ है-  जिसे बोधगया कहते हैं.  पीपल के जिस पेड़ के नीचे वह बुद्धत्व को प्राप्त हुए उसे बोधि वृक्ष कहते हैं. सारी दुनिया से बौद्ध श्रद्धालु इस तीर्थ स्थान के दर्शन करने आते हैं.  न केवल बौद्ध बल्कि अन्य धर्मावलंबियों के लिए भी बोधगया एक दर्शनीय पावन स्थल है.

आने वाले जीवन में 45 वर्षों तक भगवान बुद्ध पूरे देश में चारिका करते हुए लोगों को ज्ञान देते रहे, उपदेश देते रहे, जन-जन में मैत्री, करुणा, समता, बन्धुता तथा ध्यान-साधना-विपस्सना का प्रचार करते रहे.  लगभग 80 वर्ष की आयु में वे महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए. कुसीनारा में, जिसे अब कुशीनगर कहते हैं.  जिस दिन वह महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए उस दिन भी वैशाख की पूर्णिमा थी.

 कुशीनगर भी बौद्धों के चार महातीर्थों में गणनीय है.  इस प्रकार भगवान बुद्ध के जीवन की तीन घटनाएं- जन्म, बुद्धत्व प्राप्ति और महापरिनिर्वाण- एक ही तिथि को हुईं- वैशाख पूर्णिमा को.  इस नाते बुद्ध पूर्णिमा को त्रिविध पावनी बुद्ध पूर्णिमा कहते हैं.

हमारे लिए महापरिनिर्वाण भी पावन है. एक बारीक बात और भी समझने जैसी है कि जन्म किसी का भी हो उसे पावन ही माना जाता है. आम जन में भी जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो बड़ा उत्सव मनाया जाता है.  मंगल गीत गाए जाते हैं.  बधाइयाँ दी जाती हैं. जन्म पावन है.  कोई परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाए तो वह भी पावन तिथि हो जाती है. सिक्ख समाज अपने गुरूओं के जन्मदिन और ज्ञान दिवस को प्रकाश उत्सव के रूप में मनाता है. मुस्लिम भाई हज़रत मुहम्मद साहब के जन्मदिन और इल्हाम के दिन पर रोशनी करते हैं.

ईसाई समाज में जीसस के जन्मदिन और ज्ञान दिवस पर गिरजाघरों में मोमबत्तियाँ जलायी जाती हैं लेकिन किसी के भी जीवन के आखिरी दिन को पावन नहीं माना जाता.  कोई नहीं कहता कि आज बड़ा पावन दिन है कि अमुक व्यक्ति की बरसी है.  यूँ औपचारिकतावश पुण्य तिथि कह देने की परम्परा-सी है.  लेकिन, वास्तव में किसी के भी जीवन के आखिरी दिन को पावन तिथि नहीं माना जाता.

 सच तो यह है कि उस दिन लोग थोड़ा उदास और भावुक होते हैं.  लेकिन भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण दिवस को भी तीन पावन तिथियों में से एक पावन तिथि माना गया है. कारण? क्योंकि भगवान बुद्ध के जीवन की अन्तिम तिथि को बौद्ध कभी मृत्यु नहीं कहते बल्कि महापरिनिर्वाण कहते हैं. दरअसल हम जिस मृत्यु से वाकिफ़ हैं वह जन्म के विपरीत एक घटना होती है.  ज्यादातर धार्मिक और दार्शनिक मतों में मृत्यु के बाद पुनर्जन्म का सिद्धांत है.  यहाँ तक कि इस्लाम और यहूदी मत में भी क़यामत के दिन रूहों के दोबारा जी उठने की मान्यता है. लेकिन भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण को बौद्ध कभी मृत्यु नहीं कहते बल्कि महापरिनिर्वाण कहते हैं क्योंकि बुद्ध जिस अवस्था को उपलब्ध हुए हैं उसके बाद अब उनका जन्म नहीं होना है, वह जन्म-मृत्यु के चक्र को तोड़ कर महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हो गये हैं.  ऐसा प्रस्थान भी पावन होता है इसलिए भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण को भी तीन पावन तिथियों में से एक पावन तिथि माना गया है.

लेखक: रमेश गौतम, धम्म प्रचारक

— भवतु सब्ब मङ्गलं —

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