मांसाहार से पाप लगता है या नहीं? केवल इतना जान लीजिये कृत्य करते समय चित्त की चेतना जैसी होती है. वैसा ही कर्म विपाक (फ़ल) कर्ता को मिलता है.
मांसाहार करते समय यदि हम पशु की पर-वेदना को जानते हैं. समझते हैं. महसूस करते हैं. तब पाप लगता है. आप मांसाहार कर रहे हैं और आपको उसकी तड़प याद आ रही है. आप उसे अनुभव कर रहे हैं. या वह सभी कुछ आपको परेशान कर रहा है. आप उस जीव की पराई वेदना को जान रहे हैं. समझ रहे हैं, महसुस कर रहे हैं. तब पाप लगता है.
चूँकि चित्त ने चित्त को जान लिया. समझ लिया. सत्व (प्राणी) ने सत्व को जान लिया समझ लिया. उसे जीवित रूप में अनुभव कर लिया. मन व्याकुल और व्यथित हुआ. यह जान लिया कि हिंसा हुई है. हत्या हुई है. मन और काया ने सब अनुभव किया. तब पाप लगा. कर्म विपाक फल अर्जित हुआ.
हत्या करते समय पर-वेदना को मानव जानता है इसलिये पाप लगता है. हत्या करते समय व्यक्ति मन कड़ा और कठोर करके हत्या कर डालता है. चित्त की चेतना चोटिल करके, हत्या की जाती है. पराई वेदना पर हिंसा हावी हो जाती है. क्रोध में भी ऐसा ही होता है. चित्त की चेतना काया, वाणी या मन से चोटिल होती है. इसलिये पाप लगता है.
दूसरे यदि मांसाहार करते समय कोई पर-वेदना अनुभव नहीं करता. चित्त उससे अनभिज्ञ है. अंजान है. चित्त की चेतना केवल भोजन करने की है. तब मांसाहार भी केवल और केवल साग सब्जी की भाँति ही है. चुँकि शाकाहार करते समय भी चित्त की चेतना अहिंसक होती है. ऐसे में मांसाहार केवल अमुक व्यक्ति के लिए भोजन मात्र है. ऐसे में कहीं कोई पाप अर्जित नहीं होता है. पाप नहीं लगता है!
यहाँ तक कि हिंसा करते समय यदि आप पर-वेदना को नहीं जानते और चित्त के भीतर हिंसा के भाव नहीं हैं. तो भी पाप नहीं लगता. जैसे किसान फसल की रक्षा के लिये टिड्डियों को मारता है. उस समय वह पर-वेदना को नहीं जानता चित्त की चेतना फसल बचाने की होती है. हिंसा की नहीं होती है. इसलिये पाप नहीं लगता. जब माता बालक में दो चपत लगाती है. सुधार की चेतना से लगाती है. हिंसा की चेतना से नहीं. इसलिये माता को पाप नहीं लगता. माता इस चपत से बालक को मिलने वाली पर-वेदना को तो जानती है. परन्तु यहाँ चेतना सजग है, सुधार के लिये. न कि क्षति पहुंचाने के लिये.
अगला उदाहरण शेर का है. शेर के लिये जीवित पशु जीवित रहने तक ही पशु होता है. शिकार के बाद केवल भोजन. यदि वह ऐसे में भोजन करते समय पर-वेदना को जाने तो पाप है. और केवल भोजन जाने तो कोई पाप नहीं.
यह तो आज हम सभी जानते हैं कि साग सब्जी भी सजीव हैं. उनमें भी प्राण हैं. इस प्रकार तो हम सभी प्रतिदिन हत्या के पापी बन जाते हैं. और कभी मुक्त ना होंगे. लेकिन बोधमत के अनुसार यहाँ चित्त की चेतना पर-वेदना कि नहीं होती केवल भोजन करने की होती है! इसलिये किसी को कोई पाप नहीं लगता बल्कि भोजन दान से पुण्य अर्जित होते हैं.
विषय बहुत गहरा और गम्भीर है. इतने मात्र से नहीं समझा जा सकता है. बोधमत में कई प्रकार के मांस सेवन की सख्त मनाही है जैसे मानव, हाथी, घोड़ा, माँसाहारी पशु, विषधारी जीव, विषाक्त मांस, सड़ागला मांस, विषाक्त मांस आदि.
भवतु सब्ब मङ्गलं
— धम्मज्ञान —