किसी समय में उत्तरापथ के असितांजना नगर में महाकंस नामक राजा राज्य करता था. उसके कंस और उपकंस नामक दो पुत्र तथा देवगर्भा नामक एक कन्या थी. भविष्य कथन करने वाले ज्योतिषियों ने कहा कि इस कन्या से जो पुत्र होगा, वह कंस के परिवार के नाश का कारण होगा. राजा को अपनी कन्या से बहुत स्नेह था अतः उसने कन्या का वध न कराकर भविष्य का निर्णय उसके भाइयों पर ही छोड़ दिया.
महाकंस के मरने पर कंस राजा हुआ और उपकंस उसके प्रतिनिधि के रूप में राज्यकार्य करने लगा. दोनों भाइयों ने सोचा कि देवगर्भा की हत्या करने से जनता में अपकीर्ति होगी, अतः उन्होंने निश्चय किया कि उसे आजन्म अविवाहिता रखा जाय तथा किसी पुरुष से उसे मिलने न दिया जाय.
इस योजना के अनुसार देवगर्भा को एक पृथक भवन में कड़े पहरे में रख दिया गया तथा उसकी परिचर्या के लिये नन्दगोपा नाम की एक दासी और उसके पति अंधकवेणु को भी उसी भवन में रखा गया. अंधकवेणु को आदेश था कि वह किसी अन्य पुरुष को भवन में न आने दे.
उसी समय मथुरा प्रदेश के उत्तरी भाग में महासागर नामक राजा राज्य करता था. उसके सागर और उपसागर नामक दो पुत्र थे. पिता की मृत्यु के पश्चात सागर राजा हुआ और उपसागर उसके प्रतिनिधि रूप में कार्य करने लगा.
उपसागर और उपकंस में मित्रता थी. दोनों ने साथ-साथ एक ही गुरु के आश्रम में विद्याध्ययन किया था. किसी कारणवश सागर अपने छोटे भाई के आचरण से असंतुष्ट हो गया और उपसागर भागकर अपने मित्र उपकंस के पास चला आया. कंस और उपकंस ने उसे बड़े सम्मान के साथ अपने यहाँ रख लिया. उपसागर को जब देवगर्भा के विषय में सब बातें मालूम हुईं तो उसे देखने की उत्सुकता हुई. एक दिन उसने नन्दगोपा को कुछ स्वर्ण देकर देवगर्भा से मिलने का प्रबंध कर लिया.
इस प्रकार उपसागर और देवगर्भा का गुप्तरूप से मिलन होता रहा, परंतु जब देवगर्भा के माता बनने का समय आया तब इस रहस्य को छिपाया न जा सका. कंस और उपकंस ने फिर भी अपनी बहन की हत्या करना उचित न समझा. उन्होंने उपसागर के साथ देवगर्भा का विवाह कर दिया परंतु शर्त यह रखी कि यदि उनकी सन्तान पुत्र होगी तो वे उसका वध अवश्य कर देंगे. हाँ, पुत्रियों की प्राणरक्षा की जायगी.
समय आने पर देवगर्भा ने एक कन्या को जन्म दिया. इससे कंस और उपकंस को प्रसन्नता हुई और उन्होंने उसका नाम अंजना रख दिया. अंजना के भरण-पोषण के लिये कंस ने गोवर्द्धमान नामक ग्राम उपसागर को दे दिया. इस प्रकार देवगर्भा अपने पति के साथ गोवर्द्धमान ग्राम में सुखपूर्वक रहने लगी.
कुछ दिन पश्चात् देवगर्भा को एक पुत्र तथा नंदगोपा को एक कन्या उत्पन्न हुई. पुत्र के प्राणों की रक्षा करने के लिये नंदगोपा की कन्या को स्वयम लेकर देवगर्भा ने अपना पुत्र उसे दे दिया और कन्या के जन्म की सूचना अपने भाइयों के पास भेजवा दी. कन्या के जन्म की बात सुनकर उसके भाइयों ने कोई बाधा नहीं उपस्थित की. इसी प्रकार देवगर्भा के दस पुत्र नंदगोपा के यहाँ पलकर बड़े हए और उसकी दस कन्याओं का पालन-पोषण देवगर्भा ने किया. देवगर्भा के दस पुत्रों के नाम इस प्रकार रखे गए – 1 वासुदेव, 2 बलदेव, 3 चंडदेव, 4 सूर्यदेव, 5 अग्निदेव, 6 वरुणदेव, 7 अर्जुन, 8 पर्जन्य, 9 घृत और 10 अंकुर. लोक में ये दसों भाई अंधक वेणु के पुत्र के ही नाम से प्रसिद्ध थे.
ये दसों भाई शरीर से अत्यन्त बलवान, क्रूर और क्रोधी थे. बड़े होने पर वे लूटमार करने लगे. कई बार उन्होंने राजा को भेंट में दी जाने वाली वस्तुएँ भी लूट लीं. लोगों ने जाकर कंस से कहा, “महाराज! अन्धकवेणु के बेटे भयंकर उत्पात करते हैं. राज्य सुरक्षित नहीं है.” बार-बार शिकायतें आने पर राजा ने अन्धकवेणु को बुलाकर डराया-धमकाया. प्राणभय से अन्धकवेणु ने दसों पुत्रों विषयक रहस्य का उद्घाटन कर दिया.
इस प्रकार यह जानकर कि उनकी बहन के एक नहीं दस पुत्र जीवित हैं, कंस और उपकंस अत्यन्त चिन्तातुर हो उठे. उन्होंने मन्त्रियों से परामर्श के उपरान्त यह निश्चय किया कि राजधानी में एक बहुत बड़ा उत्सव किया जाय जिसमें वीरता और शरीरिक बल सम्बन्धी प्रतियोगिताएँ भी हो और दंगलों में चाणूर, मुष्टिक आदि दरबारी पहलवान उन दसों युवकों को जान से मार डालें. इस प्रकार बदनामी भी न होगी और उन अभिशाप रूप भांजों से पीछा भी छुट जायगा.
जब वासुदेव अपने भाइयों और साथियों सहित राजधानी में आए उस समय लोगों में भय और आतंक छा गया. उन्होंने बाज़ार लूट लिया और अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषण धारण करके उत्सव स्थल पर आए. इस समय दंगल देखने के लिये उत्सवस्थल में नर-नारियों की अपार भीड़ एकत्र हो गई थी.
पहली कुश्ती बलदेव और चाणूर की हुई. बलदेव ने संकल्प किया कि वे चाणूर को हाथ से न छुयेंगे. अतः उन्होंने हाथी के आगे से घास उठाकर उसकी एक रस्सी बटली और उसे चाणूर के पेट के आस-पास लपेटकर उसे ऊपर उछाल दिया. चाणूर का भारी शरीर बड़े वेग से पृथ्वी पर गिरा और उसका सिर फट गया.
चाणूर की मृत्यु हो जाने पर राजा ने मुष्टिक को अखाड़े में उतारा. मुष्टिक के आते ही बलदेव ने उस पर बड़े वेग से प्रहार किया. पहली पकड़ में ही उसकी दोनो आँखें फूट गईं और वह चिल्ला उठा, “मैं मल्ल नहीं हूं, मैं मल्ल नहीं हूँ.’ बलदेव ने कहा, “मल्ल हो चाहे न हो, मेरे लिये तो तू एक बलिपशु मात्र है.” ऐसा कहकर उन्होंने उसे बड़े जोर से पृथ्वी पर पटक दिया जिससे उसकी वहीं मृत्यु हो गई.
अपने दोनों पहलवानों को इस प्रकार नष्ट होते देखकर राजा बहुत डर गया और उसने सैनिकों को दसों युवकों को पकड़ लेने का आदेश दिया. इसी समय वासुदेव ने अपना चक्र फेंका और कंस और उपकंस के सिर कट कर पृथ्वी पर गिर पड़े. भयभीत जनता ने वासुदेव के चरणों पर गिर कर उनसे रक्षा की प्रार्थना की.
इस प्रकार दसों पुत्रों ने अपने मामाओं को समाप्त करके असितांजना नगर में अपने माता-पिता को पुनः प्रतिष्ठित किया. इसके पश्चात वे दसों भाई अयोध्या की ओर बढ़े. उन्होंने अयोध्या के आस-पास के वनों में आग लगा दी, नगर की दीवारें तोड़ डालीं और राजा कालसेन को बन्दी करके राज्य पर अधिकार कर लिया.
इस समय द्वारावती नामक नगर धन वैभव में बहुत प्रसिद्ध था. उसके एक ओर पर्वत माला थी और दूसरी ओर समुद्र लहराता था. द्वारावती का नगर जादू से सुरक्षित था. नगर की रक्षा एक गर्दभ (गधा) करता था जो किसी शत्रु के समीप आने पर जोर से रेंकने लगता था. गर्दभ का शब्द सुनकर नगर ऊपर आकाश में उड़ जाता था और समुद्र के बीचो-बीच स्थित होकर तब तक पुराने स्थान पर नहीं आता था जब तक शत्रु का जरा भी भय नहीं रहता था.
वासुदेव ने अपने भाइयों और साथियों के साथ कई बार द्वारावती पर आक्रमण किया, परन्तु उसपर अधिकार करना संभव न हो सका.
उस समय द्वारावती के निकट के वन में कृष्ण द्वैपायन नामक एक महापुरुष रहते थे. दसों भाइयों ने जाकर उन्हें प्रणाम किया और द्वारावती पर अधिकार करने की बात पूछी. कृष्ण द्वैपायन ने कहा, “नगर के बाहर खाई में जो गधा रहता है उसी के शरण में जाओ, वही तुम्हें कोई युक्ति बताएगा.”
दसों भाइयों ने जाकर गर्दभ को प्रणाम किया और उससे प्रार्थना की कि जब वे नगर पर आक्रमण करें, उस समय वह मौन रहे. परन्तु गर्दभ ने कहा, “ऐसा कर सकना मेरे लिये संभव नहीं है. मैं तुम्हें दूसरी तरकीब बताता हूँ. तुम नगर के चारों ओर चार बहुत ऊंचे खंभे खड़े करो और उनके ऊपर मोटे तारों का जाल पूर दो. जब नगर ऊपर उठेगा तो ये तार उसे रोक लेंगे.”
जब गर्दभ की बताई विधि से खंभे बन गये और तारों का जाल भी पूर दिया गया, उस समय वासुदेव ने अपने साथियों के साथ नगर पर फिर आक्रमण किया. सदा की भाँति गर्दभ रेंका, परंतु नगर ऊपर न उड़ सका और वासुदेव ने अपने साथियों सहित द्वारावती पर अधिकार कर लिया. यह नगर उन्हें इतना पसन्द आया कि वे वहीं बस गए.
वासुदेव के चक्र का आतंक उस समय सारे जम्बूद्वीप पर छाया हुआ था. तिरसठ हजार राजाओं के मस्तक उसके प्रहार से छिन्न हो चुके थे. अब उन्होंने निश्चय किया कि सारा राज्य दसों भाइयों में बराबर बाँट लिया जाय. विभाग हो जाने पर वासुदेव को अपनी बहन अंजना का ध्यान आया. अंकुर ने कहा, “ग्यारह भाग करने की आवश्यकता नहीं है. मैं अपना भाग बहन को देता हूँ. मैं राज्य नहीं करना चाहता. मेरी रुचि वाणिज्य-व्यापार में अधिक है.”
इस प्रकार राज्य का बँटवारा नौ भाइयों और एक बहन में हुआ.
वासुदेव तथा उनके भाइयों के परिवार की वृद्धि भी बहुत अधिक हुई. समय आने पर देवगर्भा और उपसागर ने शरीर त्याग दिया और वासुदेव भी अपने भाइयों सहित वृद्ध हो गए. एक बार वासुदेव के एक पुत्र की मृत्यु हो गई जिससे उन्हें इतना दुःख हुआ कि वे सब काम छोड़कर रात दिन शोकमग्न रहने लगे. इन दसों भाइयों में घृत विद्वान और अधिक बुद्धिमान था. इसीलिये लोग उसे घृत पण्डित कहते थे.
एक दिन लोगों ने जाकर वासुदेव को सूचना दी कि घृत पागल हो गया है और बाजारों में न जाने क्या बकता फिरता है.
“हे वासुदेव! उठो! आँखें बन्द करके मत सोओ! तुम यहाँ पड़े हो और तुम्हारा सहोदर घृत वायु ग्रस्त विक्षिप्त होकर गलियों में मारा-मारा फिरता है.”
भाई के पागलपन की बात सुन वासुदेव दौड़े हुए बाज़ार में आए और घृत को छाती से लगाकर पूछा, “तुम्हें क्या कष्ट है? तुम्हें क्या चाहिए?”
घृत ने कहा, ‘शशा! शशा!! शशा!!!’
वासदेव ने कहा, “हे भाई! मैं तुम्हारे लिये सोने, चाँदी, हीरे, मोतियों और रत्नों के खरगोश (शशा) बनवा सकता हूँ. बोलो, तुम्हें कौन-सा शशा चाहिए.”
घृत ने आकाश में चमकते हुए चन्द्रमा की ओर उँगली उठाकर कहा, “वह! उसके भीतर चमकने वाला! वही शशा मुझे लादो.”
वासुदेव ने कहा, “प्यारे भाई, तुम बुद्धिमान हो. असम्भव की याचना बुद्धिमान नहीं करते. क्या तुम नहीं जानते कि चन्द्रमा के भीतर का शशा पृथ्वी पर नहीं लाया जा सकता.”
घृत पंडित ने तुरंत उत्तर दिया, “भैया, आप भी तो बद्धिमान हैं. क्या आप यह नहीं जानते कि मरा हुआ पुत्र पुनः जीवित नहीं किया जा सकता. फिर भी आप उसके लिये दुःखित क्यों होते हैं?”
वासुदेव ने भाई को हृदय से लगा लिया. उस दिन से उन्होंने पुत्र के लिये शोक करना बन्द कर दिया और राज्य का काम पूर्ववत देखने लगे.
वासुदेव के शोक की कहानी के अंत में तथागत ने कहा, “उस जन्म में सारिपुत्र वासुदेव था और मैं तो घृत पण्डित था ही.”
नोट: यह कथा बुध्द के एक प्रमुख शिष्य सारिपुत्र और स्वयं बुद्ध पर चरितार्थ की गई हैं, उसे ही पूर्व जन्म कहा गया हैं. पूर्व जन्म को इस तरह से समझते हैं, जैसे भारतीय फिल्मों में एक हिरो (नट) अनेक रोल (व्यक्ति रेखाएं) निभाता है.