वाचा का हिन्दी पर्याय शब्द या वाणी होता है. सम्मावाचा का तात्पर्य है – सम्यक वाणी. झूठ बोलने से विरत रहना, चुगली करने से विरत रहना, कटु वचन बोलने से विरत रहना तथा व्यर्थ बकवास करने से विरत रहना ही तथागत ने सम्यक वाणी को बताया है.
भगवान बुद्ध कहते हैं कि किसी भी स्थिति में मानव को मिथ्या भाषण से बचना चाहिये. सत्य का त्याग किसी भी स्थिति में नही करना चाहिये. संसार का ऐसा कोई भी अपराध नहीं जिसकी तह में झूठ की भागीदारी न हो. विश्वासघात करना, चापलूसी करना, चमचागिरि करना, झूठी गवाही देना ये सब भी झूठ के विभिन्न रूप हैं. लोग अनावश्यक रूप से बिना कुछ पूछे, किसी के भी बारे में कुछ भी अनाप-शनाप बोलते रहते हैं, एक-दूसरे की चुगली करते रहते हैं, कटु वचन बोलते रहते हैं, ऐसे लोग अपना भरोसा खो देते हैं. उनकी बातों पर धीरे-धीरे कोई भी यहाँ तक कि परिवार के लोग भी भरोसा नहीं करते. अतः किसी भी दृष्टिकोण से ऐसी बातों से बचना चाहिए.
समाज देश-काल के अनुसार सिद्धांतों को गढ़ता है और अपने अनुसार बदल लेता है. आजकल एक प्रश्न हमेशा उठाया जाता रहता है कि क्या आवश्यक झूठ को स्वीकार किया जा सकता है? यहाँ मैं स्पष्ट कर दूं कि मिथ्याभाषण को लेकर बौद्धों का मत समझौतावादी नहीं है. सम्मासति के साथ प्रत्येक परिस्थिति में सत्य ही बोलना चाहिए, यहाँ तक कि प्राणों पर विपत्ति आने पर भी सत्य भाषण से विरत नहीं होना चाहिये.
जीवन बीत जाता है किसी से रिश्ता बनाने और निभाने में, तोड़ने के लिए जिह्वा से निकलते हुए शब्दरूपी तीर ही काफ़ी होते हैं. अतः कभी भी गलती से कोई ऐसा शब्द आपके मुख से निकल जाए तो तुरन्त माफ़ी मांग लें क्योंकि रिश्तों की मिठास बनी रहती है और प्रेम भी बरकरार रहता है.
कभी भी गलती से अच्छे लोगों पर शक न करें, यदि शक कर भी लें तो उनसे गलत न बोलें क्योंकि आपके द्वारा बोले गए शब्द उन्हें चुभ जाते हैं जितना कि आपका शक करना उन्हें नहीं चुभता.
निष्कर्ष यही है कि जो सम्यक वाणी बोलता है, ऐसा मनुष्य कभी भी कुमार्ग की ओर ले जाने वाली बात नहीं करता और न ही दूसरे को अपना शत्रु बनाता है. सम्यक वाणी का सार ही स्वयं से आरम्भ करके घर, समाज और ब्रह्माण्ड तक मैत्री की स्थापना करना है.