एक ज़ेन विहार का बहुत सख्त नियम था. नये भिक्खु प्रथम वर्ष में आर्य मौन अर्थात पूर्ण मौन का पालन करते थे. दूसरे वर्ष से वे हर वर्ष केवल दो शब्द ही बोल पाते थे और वह भी आचार्य के पूछने पर.
एक वर्ष तक एक नये भिक्खु को देखने के बाद आचार्य ने उसे बुलाया और दो शब्द बोलने को कहा.
भिक्खु ने कहा, “बिस्तर कष्टकारी है.”
आचार्य ने सिर हिलाया.
दूसरे वर्ष के बाद आचार्य ने उन्हें फिर बुलाया और दो शब्द बोलने को कहा.
भिक्खु ने कहा, “भोजन अस्वादिष्ट है.”
आचार्य ने सिर हिलाया.
तीसरे वर्ष में आचार्य ने उनसे फिर बोलने को कहा.
भिक्खु ने कहा, “मैं जाता हूं.”
आचार्य ने कहा, ‘मैं जानता हूं आप यही कहेंगे… वरना आप तीन साल से शिकायत नही कर रहे होते.’
आचार्य ने आगे कहा, “आपके पास दूसरों के समान ही बिस्तर है, सभी के समान भोजन है, फिर भी आप शिकायत करते हैं? आप जिस ज्ञान के लिए आए हैं, उसे ऐसे कैसे प्राप्त करेंगे… अन्य चीजें गौण हैं. आप ध्यान के बजाए खाने-पीने पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं.”
महामंगल सुत्त में बुद्ध कहते हैं-
खांति च सो च सच्च, समानं च दस्सं।
कालेन धम्मसच्च, एतं मंगलमुत्तम॥
अर्थात् धैर्यवान होना, क्षमाशील होना, आचार्यों की बात सुनना, भिक्खुओं (या ज्ञानियों) के साथ धम्म पर चर्चा करना उत्तम है.
बौद्ध धम्म में धैर्य (बिना सोचे-समझे कोई कदम न उठाना), साहस (खतरे की स्थिति में न घबराना), सहवेदना (दूसरों के पक्ष और स्थिति को समझना) और क्षमा (गलत काम को याद किए बिना किसी को माफ कर देना) बहुत महत्वपूर्ण हैं.
ऐसा धम्म ही सनातन है…