HomeBuddha Dhammaशरद पूर्णिमा और अश्विन मास की पूर्णिमा का बौद्ध धर्म में महत्व

शरद पूर्णिमा और अश्विन मास की पूर्णिमा का बौद्ध धर्म में महत्व

Importance of Sharad Purnima in Buddhism: आश्विन मास की पूर्णिमा जिसे हम शरद पूर्णिमा के नाम से भी जानते हैं. प्रत्येक पूर्णिमा की भांति ही बौद्धों में इस पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है. आइए जानते हैं आश्विन मास की पूर्णिमा के दिन घटित हुई इन भिन्न-भिन्न जानकारियों के बारे में.

अभिधम्म दिवस के रूप में आश्विन पूर्णिमा

थेरवाद बौद्ध परम्परा का मानना है कि बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने जनकल्याणार्थ धम्मचक्र को प्रवर्तित किया. एक पुत्र, पति, पिता, भाई के रूप में भी सिद्धार्थ ने बुद्ध बनने के बाद अपने परिवार के लगभग सभी सदस्य जनों को धम्म मार्ग पर आरूढ़ कर दिया था, सिवाय उनको जन्म देने वाली माँ महामाया के. उनको धम्म सिखाने के लिए तथागत ने सूक्ष्म काया से तुषित लोक में लगातार तीन माह अभिधम्म सिखाकर आज ही के दिन संकिषा में वापसी की थी, तो इसे अभिधम्म दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसे देवारोहण के नाम से भी जाना जाता है. अभिधम्म की शिक्षा बाद में शारिपुत्र को दी गई जहाँ से भिक्खु संघ में मौखिक परम्परा में चलते हुए सम्राट अशोक के काल में आयोजित तृतीय बौद्ध संगीति में अभिधम्म को एक स्वतंत्र निकाय या पिटक के रूप में संकलित किया गया.

वस्सावास की समाप्ति एवं कठिन चीवर दान के रूप में आश्विन पूर्णिमा

सावन (श्रावण), भादों (भाद्रपद) और क्वार (आश्विन) ये तीन माह वस्सावास के होते हैं जिसमें बिना किसी आपातकाल के भिक्खु-भिक्खुणियों का यात्रा करना विनय के नियमों के अनुसार निषिद्ध है. उन्हें एक स्थान पर रहकर साधना करनी होती है और बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन करना होता है. एक तरह से पूरी साल की तैयारी का समय वर्षा का ये मौसम होता है. इस वस्सावास का आरम्भ आषाढ मास की पूर्णिमा से होता है और समापन आश्विन पूर्णिमा के दिन होता है अतः इसे वस्सावास समाप्ति दिवस के रूप में भी मनाया जाता है.

आज के दिन उपासक-उपासिकाओं द्वारा विभिन्न महाविहारों में जाकर दान किया जाता है. बौद्ध विद्वान आचार्य राजेश चन्द्रा जी “कठिन चीवरदान” को बौद्धों की महानतम परम्पराओं में से एक मानते हैं तथा इसे श्रेष्ठतम पुण्य कर्मों में से एक पुण्य कर्म कहते हैं. “कठिन चीवरदान” के पुण्य फल के रूप में नेक्खम प्रतिफल समञ्ञफल निश्चित मिलता है. कठिन चीवर दान के बारे में विस्तार से विनय पिटक के “कठिन चीवर स्कन्ध” में पढ़ा जा सकता है. यह परम्परा भगवान बुद्ध के द्वारा श्रावस्ती के जेतवन में शुरू की गयी थी.

मैत्रेय बुद्ध की उद्घोषणा

आश्विन पूर्णिमा के दिन ही भगवान ने उपासक सिरीवद्धन की उपसंपदा कर भिक्खु बनाया. सिरीवद्धन को ही भगवान बुद्ध ने भविष्य में बुद्धत्व प्राप्त करने वाले बोधिसत्त्व मैत्रेय के बारे में घोषित किया.

सारिपुत्त को धम्मसेनापति उद्घोषित करना

आश्विन पूर्णिमा के ही दिन भगवान बुद्ध ने सारिपुत्त को धम्मसेनापति के रूप में उद्घोषित किया था. भगवान बुद्ध धम्मराजा हैं, सारिपुत्त एवं महामोद्गल्यायन भगवान के धम्म सेनापति हैं.

अस्तु, भगवान बुद्ध की चतुर्विध परिषद (भिक्खु-भिक्खुणियों, उपासक-उपासिकाओं) को वस्सावास की समाप्ति एवं कठिन चीवर दान के रूप में मनाई जाने वाली आश्विन मास की पूर्णिमा एवं अभिधम्म दिवस की मंगलकामनाएँ.

(लेखक: डॉ विकास सिंह)

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