मालभारी नाम के एक देवता देवलोक में हैं। हजारों देव कन्याओं से घिरे हुए वह देव उद्यान में प्रविष्ट हुए। उस समय अनेक देव कन्याएं उद्यान में पुष्प वृक्षों पर चढ़ी हुई पुष्प तोड़-तोड़ कर नीचे गिरा रहीं थीं जिसे नीचे अनेक देव कन्याएं चुन-चुन कर देवपुत्र का श्रृंगार व अलंकरण कर रहीं थीं।
इसी बीच एक देव कन्या की वृक्ष पर ही मृत्यु हो गयी और देवलोक से च्युत हो कर उसने श्रावस्ती के एक सम्पन्न परिवार में जन्म लिया। जन्म के दिन से ही उसे देवलोक से अपने च्युत होने का स्मरण था, “मालभारी मेरे स्वामी हैं” तथा जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ने लगी, वह बोलने लगी तो हमेशा रटती हरती- मुझे अपने पति के पास जाना है, मुझे अपने पति के घर जाना है, मुझे अपने पति का सान्निध्य पाना है…
देवलोक में अपने पति लिए पुष्प चुनते समय मृत हो कर मानव काया में जन्म लेने का उसे इतना तीव्र स्मरण था जैसे रात का देखा सपना सुबह ताजा याद रहता है।
“मुझे अपने पति के पास जाना है, मुझे अपने पति के घर जाना है, मुझे अपने पति का सान्निध्य पाना है…” बचपन से ऐसा स्वर उसके मुँह से सुन कर सयाने लोग हँसते थे तथा भिक्खुओं के बीच भी उसका नाम प्रचलित हो गया- पति पूजिका कुमारी, क्यों कि उठते-बैठते वह अपने पति का ही स्मरण करती रहती थी।
वह भिक्खुओं को भोजनदान कराती, उपोसथ रखती, ध्यान-साधना करती, शीलों का पालन करती और एक ही रट लगाए रहती- इन कुशल कर्मों के पुण्य से मुझे अपने पति का सान्निध्य मिले।
यथासमय उसका विवाह हुआ और चार संतानें भी हुईं। भिक्खुओं को भोजनदान, संघदान, पूर्णिमा, अष्टमी, अमावस्या पर उपोसथ तथा दान करते समय भी वह एक ही मनोकामना करती रहती- इन पुण्य कर्मों से मुझे मेरे पति का पुनः सान्निध्य मिले।
यूँ लौकिक जीवन जीते हुए, दान-पुण्य करते हुए, बुद्ध पूजा करते हुए, धम्म देशना सुनते हुए, शीलों का पालन करते हुए उसका जीवन धम्ममय बीत रहा था। भिक्खुओं के लिए आसन लगाना हो तो वह अग्रणी रहती, भोजन परोसना हो तो वह आगे-आगे, भगवान की धम्म देशना सुनने का कोई अवसर भी वह छोड़ती नहीं।
एक सायं किसी रोग से ग्रसित होकर अपनी चार संतानों तथा लौकिक पति को छोड़ कर वह मृत्यु को प्राप्त हो गयी और पुनः अपने चिरवांछित पति मालभारी के निकट पहुँच गयी। उसने देखा कि उसकी सहेलियां अभी भी देवपुत्र मालभारी के लिए फूल तोड़ रहीं हैं और उनका अलंकरण कर रही हैं। उसे देखकर देवपुत्र मालभारी ने पूछा:
“तुम सुबह से अब तक कहाँ थीं?”
“स्वामी, देवलोक से मेरा देहावसान हो गया था।”
“क्या कहती हो?”
“मैं सच कहती हूँ देव!”
“तो कहाँ जन्म लिया?”
“श्रावस्ती के एक सम्पन्न कुल में।”
“वहाँ कितने समय ठहरना हुआ?”
“दस मास माँ के गर्भ में रही, जन्मोपरान्त सोलह वर्ष की आयु में विवाह हो गया, चार संतानों को जन्म दिया, आपका सान्निध्य पुनः पाने की मनोकामना से दान, शील आदि का पालन करती रही और लौकिक आयु संस्कार क्षीण होने पर पुनः आपके सम्मुख उपस्थित हूँ…”
“मनुष्यों की कितनी आयु होती है?”
“अधिक से अधिक सौ वर्ष।”
“बस इतनी ही?”
“हाँ, बस इतनी ही।”
“इतनी-सी आयु पाकर मनुष्य शयन और प्रमाद में ही समय बिता देते हैं या दान-पुण्य आदि सत्कर्म भी करते हैं?”
“क्या पूछ रहे हैं स्वामी! मनुष्य तो वहाँ ‘हम अनन्त आयु प्राप्त करके आए हैं’, ऐसा सोचते हुए निरन्तर प्रमाद का जीवन ही जीते रहते हैं।”
“जब सौ वर्ष की अल्पायु पा कर भी मनुष्य प्रमाद में सोते हुए नष्ट कर देता है, तो ये सांसारिक दुःखों से कब मुक्त होंगे!”
देवपुत्र मालभारी बड़ी ग्लानि से भर गये।
वास्तव में मनुष्यों के सौ वर्ष की आयु त्रायस्त्रिंश देवों के एक दिन के बराबर होती है। उस दिन-रात का एक महीना, उस महीने से बारह महीने, एक वर्ष से गणना करने पर दिव्य आयु एक सहस्र वर्ष की होती है। इसलिए देवपुत्रों का एक दिन भी मुहूर्त भर जैसा होता है। इसलिए अल्पायु मनुष्यों का प्रमादमय जीवन बिताना स्वाभाविक सोचनीय है।
मनुष्यलोक में, दूसरे दिन भिक्खु संघ ने देखा कि आसन बिछे हुए नहीं हैं, पानी के पात्र खाली पड़े हैं, भूमि बुहारी नहीं है। भिक्खुओं ने पूछा- आज पतिपूजिका कहाँ है?”
“अब आप उसे कहाँ देख पाएंगे? कल सायं ही उसका देहावसान हो गया है”, लोगों ने बताया।
यह सुन कर ज्ञानी-ध्यानी भिक्खुओं को भी शोक हो गया। पिण्डपात अर्थात भोजन के उपरान्त वे भगवान बुद्ध के सम्मुख जेतवन में उपस्थित हुए और जिज्ञासा की:
“भगवान, पतिपूजिका उपासिका नाना कुशल कर्म, पुण्य कर्म करते हुए निरन्तर अपने पति के सान्निध्य की मनोकामना किया करती थी। कल उसका देहावसान हो गया है। उसकी क्या गति हुई?”
“उसे अपने पति का सान्निध्य मिल गया”, भगवान ने कहा।
“लेकिन भगवान, उसका पति तो अभी जीवित है!”, भिक्खुओं ने हैरानी से कहा।
“भिक्खुओं, वह अपने इस लौकिक पति के सान्निध्य लाभ की मनोकामना नहीं करती थी वरन त्रायस्त्रिंश देवलोक में अपने पति देवपुत्र मालभारी की कामना करती थी, वह वहीं पहुँच गयी है।”
“क्या सच में, भगवान!”, भिक्खुओं ने हैरानी से कहा।
“हाँ भिक्खुओं, ऐसा ही है”, भगवान ने पुनः पुष्ट किया।
भिक्खुओं ने भी ग्लानि के स्वर में कहा- मनुष्यों का जीवन तो अल्प ही होता है। कल प्रातः ही उस उपासिका ने हम सब को भोजनदान किया था और शाम किसी रोग से ग्रसित होकर मृत्यु को प्राप्त हो गयी।
इस अवसर पर भगवान ने यह गाथा कही:
पुप्फानि हेव पचिनन्तं व्यासत्तमनसं नरं।
अतित्तं येव कामेसु अन्तको कुरुते वसं।।
– कामभोग रूप फूलों का चयन करने वाले, उसी में आसक्त रहने वाले नर, उनके काम में अतृप्त रहते हुए ही अन्तक उसे अपने वश में कर लेता है।
अन्तक अर्थात मृत्यु।
करवा चौथ की जैसी एक कथा खुद्दकनिकाय के धम्मपद अट्ठकथा में- पुप्फ वग्गो में है, पतिपूजक कुमारी की कथा।
(लेखक: राजेश चंद्रा जी)