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क्या ध्यान समाधि आदि का आत्मा परमात्मा मोक्ष स्वर्ग आदि से कोई संबंध है?

क्या ध्यान समाधि आदि का आत्मा परमात्मा मोक्ष स्वर्ग आदि से कोई संबंध है? यह बहुत बुनियादी सवाल है जो भारत की धर्मांध जनता को और युवाओं को पूछना सिखाया जाना चाहिये।

जो बाबा, योगी गुरु आदि ध्यान सिखाने की बात करते हैं उन्हें और उनके आश्रमो को गौर से देखिये। वे बातें ध्यान की करते हैं लेकिन जल्द ही ईश्वर आत्मा और पिछला जन्म इत्यादि न जाने कहां से निकल आते हैं।

गौतम बुध्द की श्रमण परंपरा में ध्यान का एकमात्र अर्थ होता है अनात्मा का अनुभव। सीधे सरल शब्दों में कहें तो बात इतनी सी है कि आप अपने स्व या व्यक्तित्व को बाहरी उपादानों से किस तरह परिभाषित करके अपनी ही परिभाषाओं की कैद में कैसे फस जाते हैं, यही जानने की प्रक्रिया ध्यान है।

जिद्दू कृष्णमूर्ति इसे और व्यावहारिक ढंग से रखते हैं। उनसे अक्सर पूछा जाता रहा है कि ध्यान कैसे करें? जिद्दू कृष्णमूर्ति जोर देकर कहते थे कि ध्यान तुम्हारे करने का विषय नहीं है। जिन जिन चीजों को करने से तुम असन्तुलित और अशांत होते हो उन चीजों पर लगातार निगरानी रखो। किस तरह तुम अपने आप को एक नाम एक रूप या एक परिभाषा देते हो इसे गौर से देखो।

बुध्द की परंपरा में इसे सम्यक स्मृति या सम्यक जागरूकता कहा गया है। हर चेष्टा से मन के भीतर कोई न कोई निर्णय और परिभाषा जन्म लेती है। फिर यह निर्णय ही आपके भीतर आपको पराजित करके स्वयं जीने लगता है। क्या इस सबको आप लगातार मनमे होता हुआ देख सकते हैं? अगर हाँ तो यही ध्यान है।

बुध्द की श्रमण परंपरा में यह बात सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। आपका मन किस तरह से स्वयं को अनुभव करता है?आप जब एकांत में होते हैं तब क्या आप अपने आप को सीधे सीधे अनुभव करपाते हैं? या फिर आपको अपने नाम, योग्यता, उपलब्धियों, अतीत भविष्य आदि का सहारा लेकर खुद को अनुभव करना होता है?

यह बहुत गहरा बिंदु है, इसी पर सबकुछ टिका है। अगर आप स्वयं के साथ एकांत में अपने शरीर के होने,श्वास काने जाने, चलने फिरने, सोने, करवट बदलने, भोजन करने किसी से बात करने जैसे कामों में भी खुद को नई परिभाषा बनाते हुये देख पाते हैं तो आप समझ सकेंगे कि आपका होना असल मे बहुत ही सतही और कामचलाऊ चीज है।

हमारा स्व या व्यक्तित्व रोजमर्रा की शारीरिक मानसिक चेष्टाओं से रोज जन्म लेता है, आप आज अपना भोजन बदल लें तो शरीर मे बदलाव शुरू हो जाता है, आप मन को नई भाषा या आदत सिखाते हैं मन तुरन्त बदलने लगता है। एक व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक शरीर और मन मे हजारों बार बदलाव करता हुआ जीता जाता है। कोई एक ठोस व्यक्तित्व या स्व या आत्म नहीं होता। इस स्व या आत्म को बहुत जागरूक होकर देखा जा सकता है। भोजन के स्वाद, मौसम की संवेदना, शीत गर्मी, क्रोध, उदासी आदि की संवेदनाओ के बीच इस मन मे क्या होता है, ये कैसे एक नए क्षणभंगुर स्व का निर्माण करता है? यही देखना जानना ध्यान है।

यही गौतम बुद्ध और जिद्दू कृष्णमूर्ति की मूल शिक्षा है।

लेकिन वेदांती बाबा लोग आपको ध्यान के नाम पर बुलाते जरूर हैं लेकिन सीधे ही आत्मा परमात्मा मोक्ष पुनर्जन्म आदि की बकवास पिलाकर इस ‘स्व’को और अधिक ठोस और भारी बना देते हैं। जो ‘स्व’ बीस, तीस या पचास साल के जीवन का कूड़ा करकट लिए दुख भोग रहा है उसे पिछले हजारों काल्पनिक जन्म के कूढ़े की याद दिलाई जाती है। जो स्व खुद को ही देख समझ नहीं पा रहा उसे ब्रह्मांड, ब्रह्मलोक और सृष्टिकर्ता ईश्वर समझाया जाता है।

इसे गौर से समझिए, जो व्यक्ति अपने दैनिक जीवन के सुख दुख से पीड़ित है उसे अनन्त काल्पनिक जन्मों और काल्पनिक ईश्वर की विराटता समझाने से कोई लाभ होगा? एक बच्चा जो एक किलोमीटर नहीं चल पा रहा है उसे आगे पीछे के लाखों मील के विस्तार की बातों में फंसाकर किसे फायदा हो रहा है?

यही सबसे मजेदार बात है। भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर के गुरु घण्टाल ईश्वर आत्मा मोक्ष स्वर्ग आदि की जलेबियां बनाते हैं। ये सब कोई नहीं समझ सकता, जब समझ मे नहीं आता और दुख बढ़ता जाता है तब श्रध्दा का जन्म होता है। जब भक्त जन न कुछ समझ पाते है न कोई शांति या सुख हासिल कर पाते हैं तब ध्यान आदि एक तरफ रह जाता है और फिर गुरुभक्ति शुरू होती है। तब गुरु घण्टाल लोग रहस्यवाद की बकवास शुरू करते हैं। तब वे दर्शन देना, सत्संग करना, आशीर्वाद देना, कृपा बाटना शुरू करते हैं।

धीरे धीरे वे ये स्थापित कर देते हैं कि उनकी चापलूसी और चाकरी करना ही ध्यान और समाधी है। फिर जब उनकी दुकान चलने लगती है तो उनके पास व्यापारी और राजनेता आने लगते हैं। अब इन लोगों का मोक्ष इस बात में है कि आम जनता जो कि खरीददार है और वोटर है वो जनता इन व्यापारियों और नेताओं के जाल में उलझी रहे।

इस तरह उलझाने का काम खुद नेता और व्यापारी नहीं कर सकते इस काम को वे धूर्त बाबाओं को आउटसोर्स करते हैं। ये बाबा लोग धर्म, पाप पुण्य, पुनर्जन्म, ईश्वर आदि की वैसी व्याख्या करते हैं जिससे कि नेताओं और व्यापारियों की व्यवस्था बनी रहे। इस तरह एक विराट ढांचा बना रहता है। इस खेल में नेता, व्यापारी और बाबा तीनों मलाई खाते हैं और जनता इन तीनों से बारी बारी से लुटती जाती है। यही दुनिया भर में धर्म के धंधे का तरीका है।

धर्म की और अध्यात्म की इस पोपटलीला से अगर आपको बचना है तो आपको गौतम बुद्ध और जिद्दू कृष्णमूर्ति को पढ़ना समझना चाहिए। वे खुद कभी आत्मा परमात्मा ब्रह्मलोक मोक्ष स्वर्ग आदि की बकवास नहीं करते।

(लेखक- संजय श्रमण)

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