HomeBuddha Dhammaभगवान बुद्ध के महाश्रावक उपालि

भगवान बुद्ध के महाश्रावक उपालि

आयुष्मान उपालि का जन्म महाराज शुद्धोदन के सेवक नापित परिवार में हुआ था. बचपन से ही वहां राजकुमारों का साथ भी उन्हें उपलब्ध रहा. जब राजा भद्दिय अनुरुद्ध आनन्द आदि पांच राजकुमारों के साथ प्रव्रजित होने गये तब उनके साथ उपालि भी था. राजकुमारों के निवेदन पर भगवान ने सबसे पहले उपालि को ही प्रव्रजित किया.

प्रवज्या के कुछ दिनों बाद आयुष्मान उपालि भगवान के पास धर्म पूछने गये, तो भगवान ने उन्हें सम्यक धर्म के लक्षण बताये और नये साधक को अरण्य में एकान्तवास से मना किया. भगवान पद्मुत्तर सम्यक संबुद्ध से प्राप्त वरदान के फलस्वरूप आयुष्मान उपालि की रुचि विनय (भिक्खुओं के लिए नियम) में विशेष थी.

भगवान को नमस्कार करते हुए उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है – शास्ता द्वारा देशित विनय को मैं हृदय से धारण कर रहा हूं. विनय को हमेशा नमस्कार करता हुआ ही विहरता हूं. इसीलिए शास्ता ने उन्हें विनयधरों में अग्र की उपाधि दी.

विनयपदों के उद्देश्य के बारे में आयुष्मान उपालि द्वारा प्रश्न करने पर भगवान ने कहा उपालि संघ की अच्छाई के लिए और दुष्ट व्यक्तियों का निग्रह करने के लिए विनयपदों की प्रज्ञप्ति की गयी है. इसके साथ ही भगवान ने उपसम्पदा देने वाले भिक्खु के गुण, आश्रयदाता भिक्खु के गुण, विनयोपदेशकाल में बैठने की व्यवस्था, आपस में दोषारोपण आदि के बारे में विस्तार से बताया.

जब आयुष्मान उपालि ने ‘संघ-भेद के बारे में पूछा तब संघ-भेद की व्याख्या करते हुए भगवान ने संघ-राजी (संघ में दलबन्दी) और संघ-भेद में अंतर स्पष्ट किया. संघ-सामग्गी (संघ-एकता) की विस्तार से व्याख्या करते हुए भगवान ने संघ-सामग्गी के प्रकार भी बताये.

भगवान ने मातृ-हन्ता और पितृ-हन्ता को प्रब्रज्या के लिए अनर्ह बताया. एक भिक्खुणी के गर्भिणीभाव के संबंध में जांच के लिए भगवान ने आयुष्मान उपालि को ही जिम्मेदारी दी जिसका निर्णय उन्होंने उपासिका विशाखा के सहयोग से किया.

बुद्धवाणी के संगायन के समय विनय का उत्तरदायित्व आयुष्मान उपालि को ही सौंपा गया. भंते महाकश्यप, अध्यक्ष के पूछने पर कि क्या आयुष्मान आनंद पर्याप्त नहीं हैं? परिषद के सदस्यों का तर्क था कि श्रावक भिक्खुओं में भगवान ने आयुष्मान उपालि को अग्र पद पर प्रतिष्ठित किया है. इसलिए वे ज्यादा उपयुक्त हैं. इसलिए विनयपिटक के संपादन का श्रेय उन्हें जाता है.

— भवतु सब्ब मङ्गलं —

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