HomeBuddha Dhammaमन और शून्य की बौद्ध टेक्नोलॉजी

मन और शून्य की बौद्ध टेक्नोलॉजी

होश या अवधान को, या निरंतर की जागरूकता को भी एक मानक समझते हुए जो ध्यान किये जाते हैं, वे बहुत जल्दी आपको उस कल्पनालोक मे ले जाते हैं जहां आपको अपनी शर्तों पर सब कुछ मिल जाता है।

यह मन की वह तरकीब है जो आपको जिंदा रखने की या फिर कहें कि खुद को जिंदा रखने की विवशता से रची जाती है।

यह कोई दिव्य या करिश्माई बात नहीं है यह मन की स्वाभाविक तरकीब है जो उसने लाखों साल के क्रम विकास मे विकसित की है। आप जिस अनुपात मे दुखी होते हैं उसी अनुपात मे मन स्वयं के लिए सुख का इंतेजाम अपनी ही केमिकल फेक्टरी के जरिए कर देता है।

अगर आपकी मानसिक या शारीरिक तकलीफ या दर्द एक सीमा के बाहर जाने लगे तो आपका मन ऐसे अनुभव खुद ही पैदा कर देता है जिससे आपको या आपके मन को खुद ही आनंद मिलने लगे।

अगर रोजमर्रा के घमासान मे आप बहुत व्यस्त हैं तो मन की यह केमिकल फेक्टरी या मन का यह रंगमंच आपके लिए आवश्यक केमिकल का या आपके मनपसंद नाटक का निर्माण नहीं कर पाता है।

इसीलिए कहा जाता है कि थोड़ा एकांत का सेवन कीजिए ताकि आपकी मानसिक बीमारी का इलाज आपकी ही खोपड़ी की केमिकल फेक्टरी मे स्वाभाविक रूप से पैदा हो सके।

इसे ही ज्यादातर लोग ध्यान या समाधि कहने मे सुख लेते हैं। लेकिन यह उसी मन का खेल है जो मन दुख की स्मृतियों और अनुभवों को संचित करके बार बार आपका दरवाजा खटखटाता है। फिर यही मन इन्ही स्मृतियों के खिलाफ आपको अपना ही होम-मेड दर्दनिवारक भी देता है। इस तरह दायें और बाएं हाथ की नूराकुश्ती चलती रहती है।

इसे ही ज्यादातर लोग अध्यात्म या धान समाधि कहते हैं।

लेकिन इसके बाहर कैसे हुआ जाए? और क्या इसके बाहर होने की कोई जरूरत भी है?

सबसे पहली बात तो यह कि अगर आपको इसमे आनंद आता है और इस नूराकुश्ती का दुख और आनंद एक सुरक्षित सीमा मे रहता है तो इससे बाहर निकलने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। “कोई आवश्यकता नहीं है” कहना भी ठीक नहीं, असल मे वह व्यक्ति इससे खुद भी कभी बाहर नहीं निकलेगा, आप कितना भी जोर लगा लीजिए।

यही उसका स्वर्ग है और किसी को कोई अधिकार नहीं कि उससे उसका स्वर्ग छीन लिया जाए। यह अपराध है, हर व्यक्ति को अपने कल्पनालोक मे स्वर्ग के निर्माण और उसमे रमण करने का पूरा अधिकार है।

लेकिन समस्या तब आती है जब कि दुख या आनंद की यह लहर आपकी वर्तमान क्षमता से बाहर जाने लगे।

आपकी क्षमता से बाहर अगर दुख या सुख के आँसू बहने लगें तब आपको कुछ करना होता है। लेकिन किया क्या जाए?

इन मामलों मे कुछ “करना” असंभव है, या कहें कि इस “करने” कि भाषा मे सोचना भी गलत है। आप इतना ही “कर” सकते हैं कि चुपचाप बैठकर देखें कि यह खेल शुरू कैसे होता है और खत्म कैसे होता है। इस खेल के चक्र होते हैं, एक लहर के बाद दूसरी लहर होती हैं, ऐसी अनगिनत लहरें हैं।

एक स्तर पर शांत और स्थिर होकर देखने की क्षमता आ जाने के बाद पता चलता है कि यह सब मन के द्वारा पैदल चलने की कवायद जैसा है, पहले दायाँ पैर उठता है फिर बायाँ पैर, इस तरह एक निरन्तरता बनती है और जीवन भर यह चलता रहता है।

मन पहले दुख का पैर उठाता है फिर सुख का पैर उठाता है और ऐसे जिसे जीवन कहा जाता है वह चलता रहता है।

दिक्कत तब होती है जब ये कदम सामान्य की तुलना मे अधिक भारी या धीमे या तेज हो जाएँ।

ऐसी स्थिति मे आपको इस कदमताल के पूरे चक्र को बिना निर्णय लिए बिना नाम दिए देखना होता है। ज्यादातर लोग इसे श्वास पर ध्यान देते हुए करना पसंद करते हैं। आनापान से शुरू करते हुए या श्वासों के चक्र पर नजर रखते हुए धीरे धीरे अनुभूति के चक्र को देखना शुरू करते हैं। यह अच्छी शुरुआत होती है।

लेकिन समस्या तब आती है जब श्वासों के अवलंबन पर टिके रहने पर एक दृष्टा तो स्थिर हो जाता है और दृश्य बहने लगता है। तब ऐसा लगने लगता है कि अनुभव करने वाला कोई है जो स्थिर है और वह सब अनुभव ले रहा है।

असल मे यह मन का सबसे गहरा खेल है। मन हमेशा स्वयं को और अपने होने को परिभाषित करने के क्रम मे अनुभवों की फिल्म बनाकर स्वयं बैठकर देखने लगता है और अपने होने का अनुष्ठान करता है। इसमे बहुत मज़ा आता है, ध्यान मे उतरने वाला हर इंसान इस बिन्दु पर आकर बहुत आनंद का अनुभव करता है।

इसमे अपने अंदर एक ऐसे “शाश्ववत होने” का आभास होता है जो हर अनुभव को देखने वाला होता है। इस “शाश्वत” या “अनश्वर” या “केंद्र” या “साक्षी” की प्रशंसा मे बहुत सारी किताबें रंगी गई हैं।

इस बिन्दु तक पहुँचने की और इससे चिपक जाने की कोशिश बरसों तक चलती है। इसके आनंद से अधिकांश लोग बाहर निकलना नहीं चाहते। वैसे यह ठीक भी है, जहां आनंद मिले उसी मे ठहर जाना हर व्यक्ति का अधिकार है।

कम से कम शराब और गांजे के नशे से तो यह लाख गुना बेहतर है।

लेकिन कुछ लोगों के लिए यह बर्दाश्त की सीमा से बाहर होता है। स्मृतियों और भावों का आक्रमण जब होता है तब वह भी अतिशय होता है। इसके खिलाफ मन जो “एनेस्थीसिया” देता है वह भी अतिशय हो जाता है, इन दोनों अतियों पर बार बार तेजी से फुदकते हुए इंसान टूटने लगता है और तब उसे बाहरी सहायता की जरूरत होती है।

यहाँ सबसे बड़ी सहायता की सलाह यही दी जा सकती है कि अब आपने जिसे अनुभोक्ता या केंद्र मान लिया है उससे चिपकना छोड़कर उसी को देखना शुरू कीजिए।

जिस तरह स्मृति और भावो की लहर आती है उसी तरह अपने “होने” की या अनुभोक्ता की भी लहर आती है। स्मृति या भाव की लहर जितनी बड़ी होगी आपके होने की लहर भी उतनी ही बड़ी होगी।

इसीलिए जो धर्म “धारणा” और “कल्पना” के आधार पर अनुभोक्ता के अनुभव का अनुष्ठान करते हैं वे अनिवार्य रूप से “आत्मा” मे फंस जाते हैं। इस “आत्मा” के साथ निश्चित ही बहुत आनंद है।

लेकिन इस आत्मा और इसके आनंद को बार बार मैनेज करने और लेजिटीमेसी देने के लिए किसी परमात्मा की धारणा चाहिए, फिर परमात्मा को लेजिटीमेसी देने के लिए कोई और व्याख्या चाहिए। इस तरह चूहे को डराने के लिए बिल्ली और बिल्ली को डराने के लिए कुत्ते की जरूरत बढ़ते बढ़ते अनंत तक फैल जाती है।

यह खतरनाक खेल है। इस खेल से राज्य और सत्ता और राजनीति चलाने मे बहुत मदद मिलती है लेकिन व्यक्ति का अंतर्मन बहुत अस्वस्थ हो जाता है।

इस खेल को शुरू होने से पहले ही स्मृतियों और भावों के अतिरेक के बिन्दु पर ही अनुभव को छोड़कर अनुभोक्ता पर नजरें टिकानी होती हैं। या सीधे सीधे कहें तो स्मृति या भाव या शरीर कि संवेदना को देखते हुए स्वयं देखने वाली सत्ता को भी एकसाथ अनुभव करना होता है।

फिर एक बिन्दु आता है जब यह साफ होने लगता है कि जो दिख रहा है वह तो लहर है ही जो देख रहा है वह भी लहर ही है। न सामने कोई केंद्र है न भीतर कोई केंद्र है।

इसी को तथागत बुद्ध ने शून्य कहा है। यहाँ न दुख है न सुख है, न अनुभव है न अनुभोक्ता है।

इस शून्य की थोड़ी भी प्रतीति बन जाए तब आपको अपने अचेतन मे बार बार घुसकर अपनी खोपड़ी की केमिकल फेक्टरी को नशे या एनेस्थीसिया के प्रोडक्शन का ऑर्डर देने कि जरूरत नहीं पड़ती।

लेखक: डॉ संजय जोठे

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