योग साधना तो हजारों वर्षों से चली आ रही ‘बुद्धों’ की परम्परा है. ध्यान और योग तो वैदिक काल से भी पहले के संत, श्रमण, यतियों, मुनियों द्वारा प्रणीत पद्धतियां है. योग साधना तो बुद्ध परम्परा के वाहक नाथों, सिद्धों का गौरव है.
अद्वैत वेदांत के प्रवर्तक शंकर ने तो बुद्ध को ‘योगियों के चक्रवर्ती’ कहकर गुणगान किया है. बुद्ध की महिमा एक महान योगी के रूप में उनके समय में ही बहुत प्रसिद्ध थी. वह बार बार भिक्षुओं व गृहस्थों को योग ध्यान के लिए प्रेरित करते थे. उनके बाद भी अनेक देशों में योग व योगियों की बहुत चर्चा रही. पालि भाषा में ‘विशुद्धिमग्ग’ नामक बड़ा ग्रंथ योग ध्यान साधना पर ही लिखा गया है. वज्रासन में ध्यान मुद्रा की बुद्ध प्रतिमा सबसे ज्यादा लोकप्रिय है.
सिद्धार्थ गौतम तो सात वर्ष की उम्र में ही खेत में जामुन के पेड़ के नीचे पहली बार ध्यान में लीन हो गए थे. संसार में दुख का कारण और उसके निवारण का मार्ग खोजने के लिए जब घर छोड़ा. कोसल में आलार कालाम और मगध के उद्दक रामसुत्त जैसे आचार्यों से ध्यान योग सीखा था. लेकिन जिस उद्देश्य के लिए वह निकले थे वह पूरा नहीं हो रहा था. उनसे सिद्धियां व चमत्कार सीखा, ध्यान की कुछ अवस्थाएं भी सीखी थी लेकिन वे मानव कल्याण के लिए उपयोगी नहीं थी.
फिर सिद्धार्थ ने भूख प्यास से शरीर को सूखा देने वाली कठोर तपस्या भी की लेकिन उससे उल्टा नुकसान हुआ. उसे भी छोड़ कर मध्यम मार्ग अपनाया. आख़िर में बोधि वृक्ष के नीचे सात सप्ताह की साधना द्वारा संसार का सत्य जाना, दुख निवारण की सम्यक संबोधि प्राप्त की और वह ज्ञान ही मनुष्य की मुक्ति का मार्ग था. जीवन भर मानव के दुख को दूर करने, भवचक्र से मुक्ति और निर्वाण प्राप्ति का मार्ग बताया.
दरअसल ‘योग ध्यान’ का अर्थ होता है जोड़ना, जुड़ना. मनुष्य का स्वयं से जुड़ना. भीतर की ओर मुड़ना. बाहर भटकने की बजाए स्वयं के अंदर झांकना ,मन को वश में करना, चित्त को एकाग्र कर शुद्ध करना. क्रोध मोह लोभ द्वेष आदि विकारों को दूर कर चित्त को निर्मल करने की इस साधना द्वारा दुखों से मुक्ति पाना और जीवन में सुख शांति का उजियारा फैलाना. यही योग साधना है. यही विपस्सना ध्यान साधना समाधि है, यही सच्चा योग है और ऐसे मार्ग के राही ही श्रमण, योगी, साधक कहलाते हैं.यही गोरख, कबीर, रैदास, नानक का मार्ग है.
तथागत ने योग ध्यान पर बहुत महत्व दिया है.
वह कहते हैं-
योगा वे जायती भूरि अयोगा भूरि सड्ख्यो।
एतं द्वेधापथं ञत्वा भवाय विभवाय च।
तथ’त्तानं निवेसेय्य तथा भूरि पवड्ढति।। … धम्मपद
अर्थात योग के अभ्यास से प्रज्ञा (Wisdom) में वृद्धि होती है और अभ्यास नहीं करने से प्रज्ञा की हानि होती है. इसलिए मनुष्य अपनी प्रगति और पतन के इन दोनों मार्गों को अच्छी तरह जान कर स्वयं को ऐसी योग ध्यान समाधि में लगावें ताकि प्रज्ञा की निरंतर वृद्धि हो.
प्रज्ञा का अर्थ है अंतर्दृष्टि, विवेक, असाधारण ज्ञान जिससे संसार की सच्चाई का बोध होने से मन में किसी वस्तु या प्राणी के प्रति आसक्ति नहीं रहती है, तृष्णा का नाश होता है. शील, समाधि और प्रज्ञा ही बुद्ध का मार्ग है. और इन तीनों का जोड़ ही मुक्ति का अष्टांगिक मार्ग है.यही जोड़, यही योग है. यही विपस्सना ध्यान साधना है.
भगवान बुद्ध के बाद कुमारजीव और बोधिधर्म जैसे सैकड़ों भिक्षुओं ने भारतीय संस्कृति की इस गौरवशाली परम्परा को पूरे एशियाई देशों में खूब फैलाया. इस अनमोल विद्या को पाने के लिए कई वर्षों की जोखिम भरी यात्रा कर विश्व के विद्यार्थी तक्षशिला व नालंदा आते थे. आज जुड़ो, मार्शल आर्ट आदि रुप में शरीर के स्वास्थ्य सुरक्षा व झान (ध्यान) साधना मन की एकाग्रता व शुद्धि के लिए वहां खूब प्रसिद्ध है.
भारत में भी अलग अलग मान्यताओं के लोगों ने बुद्ध से पहले की व बुद्ध की खोजी योग साधना को अपनाया लेकिन उसमें कोई काल्पनिक शक्ति, मंत्र, प्रार्थना, संप्रदाय आदि को ठूंस कर खुद का ठप्पा लगा दिया. उपनिषदों में भी अष्टांग योग का विवरण है जिनमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार , धारणा, ध्यान और समाधि शामिल हैं.
योग, योग-सूत्र व इसके प्रणेता के बारे में आजकल जो दावे किए जाते है वह सब बुद्ध के बाद की रचनाएं हैं जो मौलिक न होकर सिर्फ संकलन है. जिनमें बुद्ध के धम्म की ध्यान साधना की अधिकतर बातें ज्यों की त्यों रखी गई है. खास बात यह है कि वहां भी योग ध्यान का उद्देश्य चित्त की निर्मलता ही है. लेकिन आजकल के कमाई के योग में मन की शुद्धि, चित्त की निर्मलता पर जोर नहीं दिया जाता है बल्कि शरीर की कसरत द्वारा शरीर को मोड़ने, मरोड़ने, पेट पिचकाने और सांस को धोंकनी की तरह चलाने को ही योग मान लिया जाता है.
निसंदेह कसरत से शारीरिक लाभ होता है लेकिन मानसिक शुद्धि नहीं. और मन की शुद्धि के बिना मनुष्य का कल्याण नहीं. यदि शारीरिक रूप से स्वस्थ व बलवान व्यक्ति के मन में क्रोध, मोह, लोभ, घृणा आदि विकार भरे हुए हैं तो उससे स्वयं का और समाज का भला नहीं होगा, हानि ही होगी. लेकिन संतों, मुनियों, बुद्धों की योग साधना का मकसद संपूर्ण मानव जगत को दुखों से मुक्त कराना और सुख शांति के उजियारे से जगत को रोशन करना है. ऐसे योग के जनक भगवान बुद्ध को वंदन.
भवतु सब्बं मंगलं… सबका कल्याण हो…सभी प्राणी सुखी हो.
(प्रस्तुती: डॉ. एम एल परिहार)