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अशोक स्तंभ का मतलब जानिए; क्यों कहा जाता है इसे भगवान बुद्ध का प्रतीक चिन्ह?

राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तंभ का अर्थ बहुत गहरा है. क्या कहते हैं इसके चार दहाड़ते शेर, हाथी, बैल,घोड़ा, चक्र और कमल?

सम्राट अशोक ने सारनाथ में 45 फीट लंबे बलुआ पत्थर (Sand Stone) के स्तंभ के टॉप पर जो चिन्ह बनवाया था, वही आज देश का गौरवशाली राष्ट्रीय चिन्ह है. चार दिशाओं में सौम्य भाव से दहाड़ते हुए शेर, तथागत बुद्ध का प्रतीक है.

‘सिंह’ को बुद्ध का पर्याय माना जाता है. बुद्ध के सौ नामों में से शाक्य-सिंह और नर-सिंह भी है. सारनाथ (मृग-दाव ) में बुद्ध ने आषाढ़ पूर्णिमा को पांच भिक्खुओं को पहला धम्म उपदेश दिया था, उसे ‘सिंह गर्जना’ भी कहते हैं. उपदेश के बाद साठ भिक्खुओं को बुद्ध ने आदेश दिया कि वे एक जगह इकट्ठे होने की बजाय चारों दिशाओं में जाकर बहु-जनों के हित में, ज्यादा से ज्यादा लोगों के सुख के लिए, लोगों पर अनुकंपा करते हुए धम्म का प्रसार करें.

स्वयं बुद्ध ने भी 45 साल तक लगातार सिंह की तरह गर्जना करते हुए चारों दिशाओं में सत्य ज्ञान का प्रचार किया.यह चारों सिंह उसी का प्रतीक है.

इनके नीचे ‘धम्मचक्र’ बना हुआ है जो पहले उपदेश ‘धम्मचक्कपवत्तन‘ का सार- शील, समाधि व प्रज्ञा का प्रतीक है और यही हमारे तिरंगे के बीच में सुशोभित है.

चक्र के पास बना हाथी भगवान बुद्ध की गर्भावस्था का प्रतीक है. ‘बैल’ उनके जन्म से लेकर गृह त्याग और ‘घोड़ा’ गृह त्याग से लेकर बुद्धत्व प्राप्ति के छ: साल का प्रतीक है. इनके नीचे कमल का उल्टा फूल बना है यह सिद्धार्थ का प्रिय फूल है. बुद्ध ने कीचड़ में कमल की तरह खिल कर शुद्ध व सार्थक जीवन जिया.

अशोक स्तंभ का यह ऊपरी बहुत ही चमकीला भाग सारनाथ के म्यूजियम में सुरक्षित हैं जो जिज्ञासु अंग्रेज अफसरों द्वारा की खुदाई में टूटा हुआ मिला था. मूल स्तंभ में इन चार शेरों के ऊपर एक बड़ा चक्र भी था जिसमें 32 तिलियां थी, जो बुद्ध के 32 लक्षणों का प्रतीक थी.

11वीं सदी तक धम्म व श्रमण संस्कृति का यह प्रमुख केंद्र खूब विकसित हुआ, लेकिन सन् 1193 में आक्रमणकारियों ने इसको तबाह कर दिया. फिर अगले पाच सौ साल तक वाराणसी यह विशाल क्षेत्र घने पेड़ों और मिट्टी में दबा रहा.

सन् 1794 में काशी नरेश ने अपने महल में पत्थरों की जरूरत के लिए यहां खुदाई करवाई तो जो भी सामग्री मिली उसे महल की नींव व दीवारों में काम में ले लिया.

ब्रिटिश अफसर और धम्म जिज्ञासु कनिंघम ने ह्वेनसांग की यात्रा विवरण के आधार पर 1836 में इसकी खुदाई शुरू करवाई जो लंबे समय तक जारी रही. इसी दौरान कई विहार, साधना कक्ष, स्तूप, प्रतिमाएं और यह अशोक स्तंभ टुकड़ों में मिला.

अग्रेजों को देश भर में इस तरह की खुदाई जो भी सामग्री मिलती थी, उसी जगह हाथों हाथ सुरक्षित कर विशाल म्यूजियम बना दिये, अन्यथा भारत को उस स्वर्ण काल का पता ही नहीं चलता. यह भी झूठे इतिहास के पन्नों में दबा ही रहता कि यहां कभी कोई ‘बुद्ध’ हुए थे और उनके मानव कल्याण के वचनों को संसार में फैलाने वाले सम्राट अशोक महान भी हुए थे.

सबका मंगल हो….सभी प्राणी सुखी हो

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