‘नाथ’ नाम वाले भारत में जितने भी धार्मिक स्थल है वे सभी बुद्ध धम्म के गौरवशाली काल के दौरान भव्य बुद्ध विहार थे. जैसे केदारनाथ, बद्रीनाथ, पशुपतिनाथ, मुक्तिनाथ, सोमनाथ, जगन्नाथ आदि.
जब देश से बुद्ध का धम्म कमज़ोर होकर विलोप हो गया तो बाद में कई सदियों के दौरान इन बुद्ध विहारों पर दूसरे पंथ के लोगों ने क़ब्ज़ा कर इनमें स्थापित बुद्ध की सुंदर प्रतिमाओं को खंडित या हटाकर अपने देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित कर दी या बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों को ही वस्त्र पहनाकर ऊपरी रूप बदल दिया,जो आज तक चल रहा है.
भारत में बुद्ध को फिर से लाने वालों में एक महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने सच्चाई की खोज में सन् 1912 में बद्रीनाथ केदारनाथ की यात्रा की. शरीर को जमा देने वाली ठंड में बर्फ़ से ढके इस स्थान पर वे दो महीने तक रुके.
राहुलजी अपनी जीवन यात्रा विवरण के खंड चार में लिखते हैं -“ बद्रीनाथ के दर्शन करना ज़रूरी था क्योंकि कितने ही लोग लिख चुके थे कि यह मूर्ति बुद्ध की है वहाँ दर्शन के लिए सुबह का समय तय किया क्योंकि उस समय मूर्ति को नग्न करके स्नान कराया जाता है .मंदिर के महंत के परिचित मेरे मित्र मेरे साथ थे. उन्होंने दर्शन की व्यवस्था करवाई.”
“सुबह जल्दी मैं मंदिर में पहुँच गया. मंदिर के तीन खंड है सबसे पीछे गर्भगृह, उसके बाद छोटा मंडप और उसके बाद बड़ा मंडप. गर्भगृह में नम्बूदरी रावल ( महंत) और उसके सहायक पुजारी को छोड़कर कोई और नहीं जा सकता था और न ही कोई मूर्ति को हाथ लगा सकता था. बीच के मंडप में द्वार से सटकर मैं खड़ा हो गया. मुख्य मूर्ति वहाँ से तीन चार फ़ुट दूरी पर थी. मेरे मित्र के कहने पर दिये का समय भी ख़ूब बढ़ा दिया गया था. मैं वहाँ से मूर्ति को अच्छी तरह देख सकता था. स्नान कराने के लिए मूर्ति नंगी कर दी गई थी. इसी को यहाँ निर्वाण दर्शन कहते हैं.”
“मूर्ति काले पत्थर की थी जिसे शायद हथौड़े से जान बूझ कर तोड़ा गया या इसे पत्थरों में फेंकते समय कुछ हिस्सा टूट गया . पद्मासन में बैठी हुई मूर्ति के एक हाथ की हथेली पैरों पर थी जो भूमि स्पर्श मुद्रा में थी. यह मूर्ति पद्मासन अवस्था में भूमि स्पर्श मुद्रा वाली बुद्ध की है इसमें मुझे कोई संदेह नहीं लगा. महंत ने बाद में बताया कि मूर्ति की छाती पर जनेऊ की रेखा है .लेकिन हक़ीक़त यह है कि यह बुद्ध की मूर्ति है. एकांश चीवर पहने बुद्धमूर्ति के चीवर का रूप जनेऊ जैसा ही लगता है.
“इसके अलावा पास में और भी कई मूर्तियां थी जिसमें नारद जी की धातु की मूर्ति भी थी वह भी बुद्ध की मूर्ति थी. नारद कुंड में भी तोड़कर फेंकी गई बुद्ध की कई मूर्तियां पडी थी. सर्दियों में यह कुण्ड अंधकारमय हो जाता है मुझे लोगों ने बताया कि मुँह तेल भरकर कुल्ला करने से वहाँ प्रकाश अधिक हो जाता है और मूर्तिया दिखाई देती है मैंने वैसा ही किया और पानी में पड़ी हुई कितनी ही बुद्ध की मूर्तियाँ देखी.”
“मैं समझता हूँ कि प्राचीन बद्रीनाथ मूर्ति के नष्ट होने पर पहले से फेंकी बुद्ध की मूर्ति लाकर उसकी जगह रख दी गई.टूट फूट होने से पहले यह मूर्ति बहुत सुंदर रही होगी.”
राहुल जी अपनी जीवन यात्रा खंड में आगे लिखते हैं – “हिमालय पर से तिब्बत के शासन के उठने के समय जो ख़ूनी संघर्ष हुआ था उसमें तिब्बत वालों का विशेष पक्षपात होने से बुद्ध विहार और मूर्तियों को भी तोड़ा और नष्ट कर दिया गया. इस प्रकार 9 वी या 10 वीं शताब्दी में यहाँ के विहार की यह बुद्ध मूर्ति और दूसरी कई मूर्तियां खंडित कर पास ही नारद कुंड में फेंक दी गई. फिर बुद्धमूर्ति पर धातु या पत्थर की बद्रीनाथ की मूर्ति स्थापित कर दी गई.
सन् 1741-42 में रूहेले यहाँ आए. उन्होने मंदिर के धन को लूटा और धातु की मूर्तियों को गलाकर या तोड़फोड़ कर पानी में फेंक दिया. पुराने मंदिर का फिर जीर्णोद्धार करने की इच्छा हुई तो स्थापना करने के लिए नारद कुंड से ही यह खंडित मूर्ति हाथ लग गई. उसे कुछ समय तक तप्तकुण्ड के ऊपर रखा गया फिर गढ़वाल के राजा ने उसके लिए बद्रीनाथ का वर्तमान मंदिर बनवाया जहाँ वह मूर्ति स्थापित हुई.
“बद्रीनाथ के आगें अलकनंदा की ओर माणा गाँव भारत की सीमा का आख़िरी गाँव है उसके आगे तिब्बत है. सभी गाँव वाले बद्रीनाथ को तिब्बत वालों का देवता मानते हैं जिससे यह और सिद्ध होता है कि वर्तमान बद्रीनाथ मंदिर किसी समय एक सुंदर बौद्ध विहार था जिसका संबंध तिब्बत के थोलिंग मठ से था.”
सबका मंगल हो……सभी प्राणी सुखी हो
(लेखक: डॉ .एम एल परिहार, पाली-जयपुर)