HomeBuddha Dhammaसाल की बारह पूर्णिमाएं और बौद्ध सन्दर्भ

साल की बारह पूर्णिमाएं और बौद्ध सन्दर्भ

अंग्रेज़ी कैलेण्डर में निम्न पूर्णिमाएं प्राय: इंगित महीनों में ही पड़ती हैं लेकिन कभी-कभी अधिमास या चन्द्र दर्शन की तिथियों में परिवर्तन होने से संकेतित पूर्णिमा का अंग्रेजी माह परिवर्तन भी हो जाता है.

जनवरी: पौष पूर्णिमा

श्रीलंका के दो शास्त्रीय ग्रंथ हैं- दीपवंश और महावंश- इन ग्रंथों के अनुसार पौष पूर्णिमा को भगवान बुद्ध श्रीलंका द्वीप पधारे थे. यद्यपि भारतीय तिपिटक इस बारे में मौन हैं. दरअसल नालंदा के महाविहार की आग में बहुत कुछ जल गया- विहार जला सो जला, पूरी की पूरी एक संस्कृति, विरासत, ग्रंथ, धरोहर जल गयी, साक्ष्य जल गये.

भगवान बुद्ध एक सुत्त में अपने धम्म की तुलना सागर से करते हैं. जैसे सागर में आठ गुण होते हैं वैसे ही धम्म में भी आठ गुण होते हैं. इसी सुत्त में भगवान की देशना है कि जैसे सागर में मिल कर नदियाँ अपना नाम खो देती हैं ऐसे धम्म में आकर व्यक्ति अपनी जाति-वंश-गोत्र खो देता है. इस एक बात ने भारत के संविधानशिल्पी डॉ. बी. आर. अम्बेडकर को सर्वाधिक प्रभावित किया कि दुनिया का एकमात्र यही धम्म है जिसमें जातियाँ नहीं हैं. बोधिसत्व बाबासाहेब ने भारत को जातिविहीन बनाने के लिए बुद्ध धम्म अंगीकार किया था. तात्पर्य कहने का यह कि भगवान ने सागर का वर्णन किया है. जिस भूभाग में भगवान की चारिका का उल्लेख तिपिटक में मिलता है वहाँ सागर नहीं है. श्रीलंका सागरीय द्वीप है. बहुत सम्भव है कि दीपवंश-महावंश सत्य लिख रहे हों, लेकिन इस सन्दर्भ में भारतीय स्रोत नहीं हैं. हो सकता है कि वे स्रोत नालन्दा की आग में जल गये हों.

उरुवेला काश्यप और नदी काश्यप की उनके पांच सौ शिष्यों सहित दीक्षा पौष पूर्णिमा को हुई थी.

अपनी प्रजा सहित राजा बिम्बिसार ने राजगृह में भगवन से दीक्षा पौष पूर्णिमा को पायी थी.

पौष पूर्णिमा को ही राजा बिम्बिसार ने भगवान को पहला विहार दान किया था- वेणुवन.

फरवरी: माघ पूर्णिमा

माघ पूर्णिमा के दिन भगवान ने पंचवर्गीय भिक्खुओं के सम्मुख अनिच्च लक्खन सुत्त का उपदेश किया था. पंचवर्गीय भिक्खु अर्थात कौण्डिण्य, वप्प, भद्दिय, अस्सजि और महानाम. ऐसा कहा जाता है कि धम्मचक्र प्रवर्तन सुत्त के उपदेश से सिर्फ कौण्डिण्य अर्हत हो पाये थे, शेष चार भिक्खुओं को अर्हत्व अवस्था अनिच्च लक्खन सुत्त सुन कर उपलब्ध हुई थी.

उस दिन भी माघ पूर्णिमा थी जिस दिन सारिपुत्त और मोद्गल्यायन की दीक्षा हुई और भगवान ने उन्हें अपना धम्मसेनापति घोषित किया.

माघ पूर्णिमा के दिन ही वैशाली के चापाल चैत्य में भगवान के द्वारा स्तब्धकारी घोषणा की गयी थी कि तीन माह बाद तथागत महापरिनिर्वाण को उपलब्ध होंगे.

भगवान की घोषणा सुन कर महाप्रजापति गौतमी सहित पांच सौ अरहत भिक्खुनियों ने निर्णय लिया कि भगवान के महापरिनिर्वाण से पहले वे परिनिर्वाण को उपलब्ध होंगी, माघ पूर्णिमा से लेकर अगले सात दिनों तक महाप्रजापति ने भिक्खुनी संघ को अभूतपूर्ण उपदेश दिया और सातवें दिन परिनिर्वाण को उपलब्ध हुईं.

माघ पूर्णिमा के दिन संत रैदास जयंती भी होती है.

मार्च: फाल्गुन पूर्णिमा

फाल्गुन पूर्णिमा का भगवान बुद्ध और बौद्धों से बड़ा गहरा सम्बन्ध है.

  • बुद्धत्व लाभ के बाद फाल्गुन पूर्णिमा के दिन भगवान पहली बार कपिलवस्तु पधारे थे.
  • फाल्गुन पूर्णिमा के दिन राहुल की दीक्षा हुई थी.
  • फाल्गुन पूर्णिमा पूर्णिमा के दिन मान्य आनन्द, महाप्रजापति गौतमी की दीक्षा हुई थी.
  • इसी पूर्णिमा के दिन पहली बार चीनी भाषा में धम्मपद का अनुवाद हुआ था, सन् 823 में.

ये सारी घटनाएं एक ही दिन की तिथि की नहीं हैं लेकिन जिस दिन की है उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी.

अप्रैल: चैत्र पूर्णिमा

चैत्र पूर्णिमा को माता सुजाता ने भगवान बुद्ध को खीर खिलायी थी और इसी दिन सिद्धार्थ के द्वारा महान संकल्प लिया गया था कि वह अब बुद्धत्व प्राप्ति के बाद ही आसन से उठेंगे.

चैत्र पूर्णिमा को केसपुत्तीय नगर में भगवान ने कालामों को उपदेश किया था जो कि कालाम सुत्त में संग्रहीत है. यह एकमात्र ऐसा सुत्त है जिसे पढ़ कर पूरा पश्चिमी जगत बुद्ध पर फिदा हो गया है. इस समय पश्चिमी संसार में बुद्ध के धम्म को फास्टेट ग्रोइंग रिलीजन- सबसे तेजी से बढ़ता हुआ धर्म- कहा जा रहा है. यह सुत्त भगवान बुद्ध के द्वारा विज्ञानवाद की घोषणा है.

चैत पूर्णिमा के ही दिन भगवान बुद्ध ने नागराजा को महाकारुणिक उपदेश किया था.

मई: वैशाख पूर्णिमा

वैशाख पूर्णिमा बौद्धों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण पूर्णिमा है. विश्व को उपलब्ध हुए इतिहास की यह दुर्लभतम घटना है कि जब किसी व्यक्ति का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और निर्वाण एक ही तिथि को हुआ हो.

भगवान का जिस दिन जन्म हुआ उस दिन वैशाख की पूर्णिमा थी. जिस दिन वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उस दिन भी वैशाख पूर्णिमा थी और जिस दिन वह महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए उस दिन भी वैशाख की पूर्णिमा थी. इसलिए बौद्ध इसे त्रिविधपावनी पूर्णिमा कहते हैं. पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में इस तिथि को महान उत्सव के रूप में मनाते हैं, वहाँ इसे वैशाख दिवस, वेसाक पर्व अथवा विशाखा पूजा के रूप में मनाते हैं. भारत में इसे बुद्ध पूर्णिमा कहते हैं. अब यह तिथि सिर्फ एशिया महाद्वीप के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए महत्वपूर्ण हो गयी है. 25 दिसम्बर, 1999 से संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस पूर्णिमा को अपने अन्तरराष्ट्रीय पर्वों की सूचि में सम्मिलित कर लिया है. संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रतिवर्ष बुद्ध पूर्णिमा मनायी जाती है.

जून: ज्येष्ठ पूर्णिमा

ज्येष्ठ की पूर्णिमा के साथ अनेकानेक बौद्ध घटनाएं जुड़ी हैं जिनमें दो घटनाएं सर्वाधिक मान्य एवं उल्लेखनीय हैं.

ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन भारत के यशस्वी सम्राट अशोक के पोषण में अरहत मोगलीपुत्त तिस्स की अध्यक्षता में तीसरी बौद्ध संगीति का शुभारम्भ हुआ था.

और ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र ने श्रीलंका की भूमि पर पदार्पण किया था. श्रीलंका में इस पूर्णमा को आज भी महान पर्व के रूप में मनाया जाता है.

ज्येष्ठ पूर्णिमा को संत कबीर जयंती भी होती है.

जुलाई: आषाढ़ पूर्णिमा

वह आषाढ़ पूर्णिमा का ही दिन था जिस दिन सिद्धार्थ गौतम ने महाभिनिष्क्रमण किया, गृह त्याग किया.

इस पूर्णिमा के दिन इतिहास की महानतम घटना घटित हुई कि भगवान बुद्ध ने सारनाथ के मृगदाय वन में पंचवर्गीय भिक्खुओं के सम्मुख धम्मचक्र प्रवर्तन किया, इसलिए इसे धम्मचक्र प्रवर्तन पूर्णिमा भी कहते हैं, इसी दिन से गुरु-शिष्य परम्परा का औपचारिक सूत्रपात भी हुआ, इसलिए इसे गुरुपूर्णिमा भी कहते हैं. भारत को विश्वगुरु का जो दर्जा मिला है. इस पूर्णिमा के बाद मिला है. क्योंकि बौद्ध काल में सारे विश्व के विद्यार्थी भारत आकर धम्म सीखते थे- ह्वेन-सांग, फाह्यान, हो-ची, इत्सिंग इत्यादि वह विख्यात यात्री हैं जिन्होंने भारत में धम्म सीख कर अपने-अपने देश को आलोकित किया.

आषाढ़ पूर्णिमा को वह महान प्रथम बौद्ध संगीति सम्पन्न हुई जिसमें पाँच सौ अर्हत सम्मिलित हुए थे. वह संगीति राजगृह के सप्तपर्णी गुफा में आयोजित हुई थी जिसके पोषक सम्राट अजातशत्रु थे.

अगस्त: श्रावण पूर्णिमा

पालि व प्राकृत भाषा में ‘सवन’ का अर्थ होता है ‘सुनना.’ यह ‘सवन’ ही संस्कृत में “श्रवण” हुआ है जिसका अर्थ होता है ‘सुनना.’ सवन से सावन और श्रवण से श्रावण हुआ है. इस प्रकार सावन अर्थात श्रावण का महीना सुनने का महीना है. क्या सुनने का महीना है? धम्म सुनने का महीना. धम्म सवन कालो, अयं भदन्ता…

“सावन का महीना क्या है?

“प्राकृत में सावन के दो अर्थ हैं:

  1. माह सावन
  2. धम्म सावन

“माह सावन का अर्थ है- आषाढ़ और भाद्रपद के बीच का महीना. धम्म सावन का अर्थ है- बौद्ध सुत्तों का पाठ एवं श्रवण (सुनना)…

“बौद्धों का वस्सावास (वर्षावास) आषाढ़ पूर्णिमा से आरंभ होता है और अगले दिन से पूरे सावन माह बौद्ध सुत्तों का सावन होता है, जिसे धम्म सावन कहा जाता है…

“माह सावन में धम्म का सावन होता था, इसीलिए इस महीने का नाम सावन हुआ…

“सम्राट अशोक ने धम्म सावन में बदलाव किए, अधिकारी नियुक्त किए तथा बड़े पैमाने पर धम्म सावन का कार्य जारी किए…

“…शिलालेख में अशोक के धम्म सावन सम्बधी कार्यों को अंकित पाएंगे…”

क्यों सावन का महीना ही धम्म सुनने का महीना है? क्योंकि वैशाख पूर्णिमा पर भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तीन माह पश्चात सावन की पूर्णिमा को ही पहली संगीति आयोजित हुई थी, सप्तपर्णी गुफा में, राजगृह में, सम्राट अजातशत्रु के पोषण में.

बौद्ध इतिहास की यह महानतम घटनाओं में से एक है जिसमें भगवान के वचनों को संग्रहीत करने के लिए पांच सौ अरहत एकत्रित हुए थे. भगवान के वचनों के वह महान संग्रह को तिपिटक कहते हैं. यह संगीति सात माह चली थी.

श्रावण पूर्णिमा के दिन अर्हत महाकाश्यप की अध्यक्षता में पहली बौद्ध संगीति का शुभारम्भ हुआ था. इस संगीति में पहली बार भगवान बुद्ध के वचनों का, 84000 धम्म स्कन्धों का, संग्रह किया गया था. इसमें विनय का संगायन अर्हत उपालि ने किया था और सुत्त का संग्रह आनन्द ने किया था. तिपिटक में अभिधम्म पिटक का प्रथक अस्तित्व बाद की संगीतियों में आया, पूर्व में यह प्रथम संगीति में ही समावेशित था.

कालान्तर में आषाढ़ पूर्णिमा से पावन संघ का वस्सावास शुरू होते ही सावन माह की पूर्णिमा तक धम्मसुत्तों के अखण्ड संगायन की बौद्ध परम्पराओं का सूत्रपात हुआ. बौद्ध देशों में यह परम्पराएं आज भी यथावत जीवित हैं तथा अपनी उद्गम भूमि भारत में क्रमिक रूप से वापस लौट रही हैं.

सितम्बर: भाद्र पूर्णिमा

भाद्र पूर्णिमा को मधु पूर्णिमा भी कहते हैं.

भगवान ने अपने जीवन का एक वर्षावास जंगल में किया था, पशु-पक्षियों के साथ. कौशाम्बी के भिक्खुओं के विवाद के बाद भगवान बिना किसी को बताए वस्सावास के लिए चुपचाप जंगल में चले गये थे. कहते हैं जंगल में भगवान बुद्ध के भोजन की व्यवस्था बन्दर-हाथी इत्यादि पशु करते थे. बन्दरों ने भगवान बुद्ध को शहद अर्थात मधु परोसा था. इस कारण इस पूर्णिमा को मधु पूर्णिमा कहा जाता है. तब से इस पूर्णिमा पर उपासकों, उपासिकाएं भिक्खु संघ को भोजन में मधु दान भी करने लगे.

भाद्र पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध ने महाप्रजापति गौतमी सहित पांच सौ भिक्खुनियों को वैशाली में दीक्षा दे कर भिक्खुनी संघ स्थापित किया था. इस प्रकार भाद्र पूर्णिमा भिक्खुनी संघ की स्थापना की पूर्णिमा भी है.

अक्टूबर: आश्विन पूर्णिमा

शरद ऋतु में पड़ने के कारण आश्विन पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा भी कहते हैं.

भगवान बुद्ध के जीवन के पैंतालीस वस्सावासों में दो वस्सावास बड़े रहस्यमय हैं, जिनके बारे में सिर्फ भगवान ही जानते हैं. लोकजन सिर्फ उतना जानते हैं जितना भगवान बताते हैं.

उन दो वस्सावासों में एक वस्सावास भगवान ने कौशांबी के जंगलों में किया, जहाँ पशु-पक्षियों, तिर्यक योनि के जीव-जंतुओं को सांकेतिक शैली में उपदेश देकर, उन्हें शील में प्रतिष्ठित कर तिर्यक योनि से मुक्त किया, तिर्यक योनि से मुक्ति का मार्ग दिखाया.

भगवान के वचन हैं कि माता-पिता के ऋण से कोई उऋण नहीं हो सकता. समस्त ऋणों से उऋण हुए बिना अरहत्व भी पूरा नहीं, बुद्धत्व भी अधूरा है. माता-पिता के ऋण से उऋण होने का एक ही उपाय है कि उन्हें भी धम्म में प्रतिष्ठित कर दिया जाए.

भगवान की माता महामाया भगवान के जन्म के सातवें दिन ही दिवंगत हो गयीं थीं.

अपनी माता को धम्म में प्रतिष्ठित करने के लिए भगवान ने एक वर्षावास देवलोक में किया था, तावतिंस लोक में. वहाँ देवों को तथा अपनी माता को अभिधम्म की देशना देकर अरहत्व के मार्ग पर लगाया था.

भगवान बुद्ध ने देवलोक के लिए सशरीर गमन किया था. यह बात सिर्फ धम्म सेनापति सारिपुत्त व मोद्गल्यायन को मालूम थी. जिस स्थान से भगवान ने देवलोक को प्रस्थान किया था वह स्थल श्रावस्ती में है. उस स्थान को कोड़ियाझार कहते हैं. पुब्बाराम विहार सड़क के एक ओर है और कोड़ियाझार सड़क की दूसरी ओर है. सम्राट अशोक के द्वारा उस स्थान पर एक विशाल स्तूप बनवाया गया था जिसके अवशेष अभी भी विद्यमान हैं तथा भारतीय पुरातत्व विभाग के द्वारा वह स्थल संरक्षित है.

देवलोक में अभिधम्म की देशना देकर, वस्सावास पूर्ण कर भगवान ने जिस स्थान पर धरती पर अवतरण किया था वह स्थल संकिसा है. जिस दिन भगवान ने संकिसा में अवतरण किया उस दिन को बौद्ध उपासकगण अमृत पूर्णिमा कहते हैं जिसे अब शरद पूर्णिमा कहते हैं. उस दिन श्रद्धालु उपासकगणों ने भगवान बुद्ध को भोजनदान में खीर का भोग लगाया था. शताब्दियों तक बौद्ध श्रद्धालुओं की यह मान्यता रही कि शरद पूर्णिमा के दिन खीर बना कर रात में खुले आकाश के नीचे रख देने से देव लोक से उसमें अमृत टपकता है. उन्हीं मीठी मान्यताओं ने अब स्वरूप बदल लिया है.

आश्विन पूर्णिमा के दिन भगवान ने सारिपुत्त को धम्मसेनापति के पद पर प्रतिष्ठित किया था. भगवान धम्मराजा हैं. सारिपुत्त व मोद्गल्यायन भगवान के धम्म सेनापति हैं.

आश्विन अर्थात शरद पूर्णिमा के दिन उपासक सिरीवद्धन ने भगवान से भिक्खु दीक्षा पायी थी. उसी उपासक को आगामी मैत्रेय बुद्ध होना है. वह उपासक अभी भी भारत की धरती पर बार-बार जन्म ले रहा है- कभी उपासक रूप में तो कभी भिक्खु रूप में.

आश्विन पूर्णिमा के दिन भगवान ने भिक्खुनी महाप्रजापति गौतमी को अभिधम्म का उपदेश दिया था, उन्हें अरहत्व की उपलब्धि हुई थी.

आश्विन पूर्णिमा के दिन श्रीलंका से अरित्त आमात्य ने भारत के लिए प्रस्थान किया था- सम्राट अशोक की भिक्खुनी बेटी संघमित्रा को आमंत्रित करने के लिए. श्रीलंका में भिक्खुनी संघ की स्थापना थेरी संघमित्रा ने किया.

उस दिन भी शरद पूर्णिमा थी जब सम्राट अशोक के निर्देश पर बोधगया के बोधिवृक्ष की शाखा सोने के पात्र में रोपित करके ससम्मान श्रीलंका भेजी गयी थी. वह वृक्ष श्रीलंका के अनुराधापुर में आज भी है तथा प्राचीनतम वृक्ष के रूप में मान्यताप्राप्त हो कर यूनेस्को के द्वारा भी उसका संरक्षण होता है. गुरुवाद के मुखर आलोचक जिद्दू कृष्णमूर्ति भी उस वृक्ष की परिक्रमा करते थे और दाढ़ाधातु बुद्ध विहार श्रीलंका में शीष नवाते थे.

वह तिथि भी शरद पूर्णिमा थी जब थूपाराम बुद्ध विहार श्रीलंका में विनय की संगीति हुई थी.

आश्विन पूर्णिमा को पावन संघ का वस्सावास समापन होता है तथा उपासकगणों का उपोसथ अधिष्ठान पूर्ण होता हैं, उपासक-उपासिकाओं द्वारा संघदान किया जाता है. आश्विन पूर्णिमा को वस्सावास के समापन पर प्रवारणा दिवस भी मनाया जाता है. उपासक उपासिकाएं इस दिन महा उपोसथ व्रत रखते हैं. भिक्खु संघ को चीवर दान करते हैं.

आश्विन पूर्णिमा को कठिन चीवर दान भी किया जाता है. बौद्ध देशों में यह परम्परा आज भी कायम है. इस पूर्णिमा को कठिनोत्सव के रूप में मनाया जाता है.

नवम्बर: कार्तिक पूर्णिमा

कार्तिक पूर्णिमा को बौद्ध लोग संघ पूर्णिमा भी कहते हैं. इसी पूर्णिमा के दिन भगवान ने भिक्खु संघ की घोषणा की थी. इसी दिन उन्होंने अपने साठ अर्हत भिक्खुओं को संदेश दिया था- चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकम्पाय

अथ्याय… हे भिक्खुओ! तुम बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, लोक पर अनुकम्पा करने के लिए, उनकी अर्थप्राप्ति के लिए चारिका करो, उस धम्म का उपदेश करो जो आदि में कल्याणकारी है, मध्य में कल्याणकारी है, अन्त में कल्याणकारी है…

भगवान की देशना में एक शब्द विशेष ध्यान देने लायक है- अथ्याय- अर्थात अर्थ प्राप्ति के लिए. दुनिया के लगभग सारे धर्म किसी न किसी रूप में अपने श्रद्धालुओं के अर्थ का शोषण करते हैं, अर्थ का अपव्यय करते-कराते हैं, भगवान की देशना है कि उन पर अनुकम्पा करने के लिए, अर्थ प्राप्ति का उपदेश करो.

धार्मिक कर्मकाण्डों के नाम पर बुद्ध का धम्म अर्थ के अपव्यय को प्रोत्साहित नहीं करता है. यही कारण है कि उत्तर प्रदेश से भी कम क्षेत्रफल वाला छोटा-सा बौद्ध देश जापान, भारत और अमेरिका जैसे देशों को भी ऋण देने की क्षमता रखता है.

कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही काश्यप बन्धुओं की उनके विशाल शिष्य समुदाय के साथ दीक्षा हुई थी, इसी पूर्णिमा के दिन भगवान के धम्मसेनापति महामोद्गल्यायन परिनिर्वाण को उपलब्ध हुए थे.

कार्तिक पूर्णिमा को उपासक उपासिकाएं स्नान-दान की पूर्णिमा के रूप में भी मनाते हैं. वह पर्व आज भी जीवित है, बस उनका स्वरूप बदल गया है.

कार्तिक पूर्णिमा धम्मसेनापति सारिपुत्र परिनिर्वाण दिवस है. बिहार सरकार ने कार्तिक पूर्णिमा को राजकीय रूप से सारिपुत्र दिवस घोषित कर भी दिया है.

विभिन्न पालि एवं संस्कृत स्रोतों से यह ज्ञात होता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही चक्रवर्ती सम्राट अशोक का निधन हुआ था, अतः कार्तिक पूर्णिमा देवानं पिय पियदस्सि सम्राट अशोक का परिनिर्वाण दिवस भी है.

कार्तिक पूर्णिमा कठिन चीवर दान का अंतिम दिन होता है.

वस्सावास का आरम्भ आषाढ़ मास की पूर्णिमा से होता है और समापन आश्विन अर्थात शरद पूर्णिमा के दिन होता है. आश्विन पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक कठिन चीवरदान के समारोह होते हैं जिनमें उपासक-उपासिकाएं विभिन्न विहारों में जाकर दान करते हैं.

कार्तिक पूर्णिमा पर गुरू नानक देव जी का जन्मदिन होता है- गुरू पर्व होता है.

दिसम्बर: मार्गशीर्ष पूर्णिमा

जय मङ्गलअट्ठगाथा में तीसरी गाथा कहती है:
“नालागिरि गजवरं अतिमत्तभूतं,
दावग्गि-चक्कमसनीव सुदारुणन्तं।
मेत्तम्बुसेक-विधिना जितवा मुनिन्दो,
तं जयमङ्गलानि॥”

-दावाग्नि-चक्र अथवा विद्युत की भांति अत्यंत दारुण और विपुल मदमत्त नालागिरि गजराज को जो मुनीन्द्र भगवान बुद्ध ने अपने मैत्री रूपी जल की वर्षा से जीत लिया, उनके तेज प्रताप से तुम्हारी जय हो! तुम्हारा मंगल हो!!

द्वेषचित्ती देवदत्त ने भगवान बुद्ध को हानि पहुँचाने की दृष्टि से उनके सामने नालागिरि नामक पागल हाथी छुड़वा दिया था, लेकिन भगवान के मैत्री बल के सम्मुख वह नमन की मुद्रा में समर्पित हो गया.

यह गाथा भगवान के मैत्री बल की दुहाई देते हुए विजय होने की और मङ्गलमयता कामना करती है.

नालागिरि नामक पागल हाथी को मैत्री बल से जीत लेने की यह घटना मार्गशीष पूर्णिमा की है.

मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा की भिक्खुनी दीक्षा हुई थी. मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन सम्राटों के सम्राट देवानं प्रियदर्शी अशोक महान की पुत्री भिक्खुनी संघमित्रा धम्म प्रचार के लिए श्रीलंका पहुँची थीं जिनका भव्य स्वागत तत्कालीन सिंहलदेश के सम्राट देवानामपिय तिस्स और महारानी अनुला ने किया था, अतः इसे संघमित्रा दिवस भी कहा जाता है. भिक्खुणी संघमित्रा स्वर्ण पात्र में मगध से बोधिवृक्ष की एक शाखा लेकर सिंहलदेश पहुँची थीं, जिसे वहाँ आज तक संरक्षित एवं सुरक्षित रखा गया है. आज वह वृक्ष धरती के सबसे प्राचीन वृक्षों के रूप में यूनेस्को द्वारा संरक्षित विश्व धरोहर, वर्ल्ड हेरीटेज भी है.

(लेखक: राजेश चंद्रा)

— भवतु सब्ब मङ्गलं —

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