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आचार्य सत्यनारायण गोयनका गुरुजी की ये तीन बातें हर बौद्ध को पता होनी चाहिए

भगवान बुद्ध को भारत में विष्णु का नौंवा अवतार बताया जाता है. उन्हे हिंदू धर्म का ही अंग मान लिया गया है. बौद्ध धम्म का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नही है. ये सभी मान्यताएं हिंदू धर्म के संचालकों द्वारा फैलाई गई व लिखि गई हैं.

इसलिए, विदेशों में फैंले बौद्ध धम्म को मानने वाले लोगों के सामने सच्चाई नही आ पाती है और वे दुविधा में ही रहते हैं कि क्या वास्तव में बौद्ध धम्म का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नही है?

इसी दुविधा को दूर करने के लिए गुरुजी सत्यनारायण गोयनका जी ने शंकराचार्यों से मिलकर भगवान बुद्ध पर फैलाई गई गलत धारणा कि “भगवान बुद्ध विष्णु के नौंवे अवतार है” इसे दूर करने के लिए लिखित में घोषणा करवाई थी. इस घोषणा में तीन बातों पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सार्वजनिक रूप से सच्चाई सामने लाई गई थी.

शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी और विपश्यना आचार्य सत्यनारायण गोयनका जी की संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति

स्थान: महाबोधि सोसाइटी कार्यालय, सारनाथ, वाराणसी
समय: दोपहर 3:30, दिनांक – 12-11-1999

जगदगुरु कांची कामकोटि पीठ के श्रद्धेय शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी और विपश्यनाचार्य गुरुजी सत्यनारायण योयनका जी की सौहार्दपूर्ण वार्तालाप की संयुक्त विज्ञप्ति प्रकाशित की जा रही है.

दोनों इस बात से सहमत हैं और चाहते हैं कि दोनों प्राचीन परंपराओं में अत्यंत स्नेहपूर्ण वातावरण स्थापित रहे. इसे लेकर जिन पड़ोसी देशों के बंधुओं में किसी कारण किसी प्रकार की गलतफहमी पैदा हुई हो, उसका जल्दी ही निराकरण हो. इस संबंध में निम्न बातों पर सहमति हुई:

  1. किसी भी कारण पहले के समय में आपसी मतभेदों को लेकर जो भी साहित्य निर्माण हुआ, जिसमें भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार बताकर जो कुछ लिखा गया, वह पड़ोसी देश के बंधुओं को अप्रिय लगा, इसे हम समझते हैं. इसलिए, दोनों समुदायों के पारस्परिक संबंधों को पुन: स्नेहपूर्ण बनाने के लिए हम निर्णय करते हैं कि भूतकाल में जो हुआ, उसे भुलाकर अब हमें इस प्रकार की मान्यता को बढ़ावा नहीं देना चाहिए.
  2. पड़ोसी देशों में यह भ्रांति फैली कि भारत का हिंदू समुदाय बौद्ध के अनुयायिओं पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए इस कार्याशलाओं का आयोजन कर रहा है. यह बात उनके मन से हमेशा के लिए निकल जाय. इसलिए, हम यह प्रज्ञापित करते हैं. वैदिक और बुद्ध-श्रमण की परंपरा भारत की अत्यंत प्राचीन परंपराओं में से हैं. दोनों का अपना-अपना गौरवपूर्ण स्वतंत्र अस्तित्व है. किसी एक परंपरा द्वारा अपने आपको ऊँचा और दूसरे को नीचा दिखाने का काम परस्पर द्वेष, वैमनस्य बढ़ाने का ही कारण बनता है. इसलिए, भविष्य में कभी ऐसा न हो. दोनों परंपराओं को समान आदर एवं गौरव का भाव दिया जाये.
  3. सत्कर्म के द्वारा कोई भी व्यक्ति समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त कर सकता है और दुष्कर्म के द्वारा नीचा, पतित, हीन लेता है. इसलिए, हर व्यक्ति सत्कर्म करके तथा काम, क्रोध, मद, मो, मात्सर्य, अहंकार इत्यादि अशुभ दुर्गुणों को निकालकर अपने आप को समाज में उच्च स्थान पर स्थापित करके सुख-शांति का अनुभव कर सकता है.

उपर्युक्त तीनों बातों पर हम दोनों की पूर्ण सहमति है तथा हम चाहते हैं कि भारत के सभी समुदाय के लोग पारस्परिक मैत्री भाव रखें तथा पड़ोसी देश भी भारत के साथ पूर्ण मैत्री भाव रखें.

— भवतु सब्बमङ्गलं —

(नोट: इस लेख को वरिष्ठ लेखक श्रेद्धय एम एल परिहार की फेसबुक वॉल पर प्रकाशित पोस्ट के आधार पर तैयार किया गया है.)

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