हिमालय के फूल अपनी विशिष्टताओं के लिए सर्वविदित हैं. दुर्भाग्यवश उनकी अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं. कुछ तो केवल किस्से-कहानियों तक ही सिमट कर रह गयी हैं. यह कहानी उस समय की है, जब हिमालय का एक अनूठा पेड़ अपने फलीय वैशिष्ट्य के साथ एक निर्जन पहाड़ी नदी के तीर पर स्थित था. उसके फूल थाईलैंड के कुरियन से भी बड़े, चेरी से भी अधिक रसीले और आम से भी अधिक मीठे होते थे. उनकी आकृति और सुगंध भी मन को मोह लेने वाली थी.
उस पेड़ पर वानरों का एक झुण्ड रहता था, जो बड़ी ही स्वच्छंदता के साथ उन फूलों का रसास्वादन व उपभोग करता था. उन वानरों का एक राजा भी था जो अन्य बन्दरों की तुलना कई गुणा ज्यादा बड़ा, बलवान, गुणवान, प्रज्ञावान और शीलवान था, इसलिए वह महाकपि के नाम से जाना जाता था.
अपनी दूर-दृष्टि से उसने समस्त वानरों को सचेत कर रखा था कि उस वृक्ष का कोई भी फल उन टहनियों पर न छोड़ा जाए जिनके नीचे नदी बहती हो. उसके अनुगामी वानरों ने भी उसकी बातों को पूरा महत्तव दिया. क्योंकि, अगर कोई फल नदी में गिर कर और बहकर मनुष्य को प्राप्त होता तो उसका परिणाम वानरों के लिए अत्यंत भयंकर होता.
एक दिन दुर्भाग्यवश उस पेड़ का एक फल पत्तों के बीचों-बीच पक कर टहनी से टूट, बहती हुई उस नदी की धारा में प्रवाहित हो गया.
उन्हीं दिनों उस देश का राजा अपनी औरतों तथा दास-दासीयों के साथ उसी नदी की तीर पर विहार कर रहा था. वह प्रवाहित फल आकर वहीं रुक गया. उस फल की सुगन्ध से राजा की औरतें सम्मोहित होकर आँखें बंद कर आनन्दमग्न हो गयीं. राजा भी उस सुगन्ध से आनन्दित हो उठा.
शीघ्र ही उसने अपने आदमी उस सुगन्ध के स्रोत के पीछे दौड़ाये. राजा के आदमी तत्काल उस फल को नदी के तीर पर प्राप्त कर पल भर में राजा के सम्मुख ले आए. फल का परीक्षण कराया गया तो पता चला कि वह एक विषहीन फल था. राजा ने जब उस फल का रसास्वादन किया तो उसके हृदय में वैसे फलों तथा उसके वृक्ष को प्राप्त करने की तीव्र लालसा जगी. क्षण भर में सिपाहियों ने वैसे फलों पेड़ को भी ढूँढ लिया. किन्तु वानरों की उपस्थिति उन्हें वहाँ रास नहीं आयी. तत्काल उन्होंने तीरों से वानरों को मारना प्रारम्भ कर दिया.
वीर्यवान महाकपि ने तब अपने साथियों को बचाने के लिए कूदते हुए उस पेड़ के निकट की एक पहाड़ी पर स्थित एक बेंत की लकड़ी को अपने पैरों से फँसा कर, फिर से उसी पेड़ की टहनी को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर लेट अपने साथियों के लिए एक पुल का निर्माण कर लिया. फिर उसने चिल्ला कर अपने साथियों को अपने ऊपर चढ़कर बेतों वाली पहाड़ी पर कूद कर भाग जाने की आज्ञा दी. इस प्रकार महाकपि के बुद्धि कौशल से सारे वानर दूसरी तरफ की पहाड़ी पर कूद कर भाग गये.
राजा ने महाकपि के त्याग को बड़े गौर से देखा और सराहा. उसने अपने आदमियों को महाकपि को जिन्दा पकड़ लाने की आज्ञा दी.
उस समय महाकपि की हालत अत्यन्त गंभीर थी. साथी वानरों द्वारा कुचल जाने के कारण उसका सारा शरीर विदीर्ण हो उठा था. राजा ने उसके उपचार की सारी व्यवस्थता भी करवायी, मगर महाकपि की आँखें हमेशा के लिए बंद हो चुकी थीं.
(जातक कथा: महाकपि बंदर की कहानी)
— भवतु सब्ब मङ्गलं —