भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य हैं. लेकिन, यहां की जनता धर्म से अछूती नहीं है. दुनियाभर में पहले धर्मों के मानने वाले लोग आपको भारत देश में मिल जाएंगे. अब सवाल यह आता है कि आखिर धर्म की आवश्यकत क्यो?
क्या धर्म के बिना जिंदा रहना मुश्किल है? क्या कोई व्यक्ति बिना धर्म जीवन नही जी सकता है? क्या धार्मिक व्यक्ति ज्यादा नैतिक होता है?
ऐसे ही दर्जनों सवाल धर्म के बारे में पूछे जा सकते हैं और इस लेख को सिर्फ सवालों से ही पूरा किया जा सकता है. लेकिन, इस लेख में केवल इस बात का विश्लेषण किया गया है कि धर्म की आवश्यकता क्यों पड़ती है? धर्म हम इंसानों के लिए क्यों जरूरी है?
धर्म इंसानों के लिए क्यों जरूरी है?
डॉ आंबेडकर धर्म को जरुरी मानते हैं. वे उसे आम लोगों के जीवन का हिस्सा मानते हैं. वे प्रश्न करते हैं कि क्यों यहाँ के लोग साधू-फकीरों पर श्रध्दा रखते हैं? कि क्यों वर्षों से जोड़ी अपनी सम्पति बेचकर हजारों लोग काशी-बनारस और मक्का-मदीना जाते हैं?
बाबासाहेब कहते हैं कि धर्म में लाख बुराई हो, मगर, लोग नैतिकता का पाठ धर्म से ही ग्रहण करते हैं. किसी भी देश का शासन कानून के डंडे से समाज को नैतिकता नहीं सिखा सकता. लोग कानून को अपने ऊपर लादी गई शर्त मानते हैं. वे उसे दिल की गहराइयों से नहीं चाहते. मगर, धर्म के साथ ऐसा नहीं है. धर्म की बातों को लोग दिल से मानते हैं. वे उसे अपनी श्रध्दा का विषय मानते हैं. यहाँ तक की धर्म-दर्शन को बुध्दि से परे मानते हैं.
इतिहास गवाह है कि धर्म, सत्ता पर पहुँचने का जरिया भी है. क्योकि, धर्म लोगों को जोड़ कर रखता है. वह लोगों को एक सांस्कृतिक-सूत्र में पिरो कर रखता है.
कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि क्या धर्म के बिना जीवित रहना सम्भव नहीं है?
डॉ आंबेडकर कहते हैं कि जीवित रह पाने के अपने-अपने ढंग है. ऐसे कई लोग हैं जो कहते है कि वे किसी धर्म का पालन नहीं करते. सवाल है कि ऐसे लोगों की संख्या कितनी है? अगर आप सम्पन्न है तो माना भी जा सकता है कि आपको किसी धर्म की दरकार नहीं है. मगर, दबी-पिछड़ी जातियों के लोग सम्पन्न नहीं हैं.
सवाल ये है, दलित-पिछड़ी जातियां किस स्तर पर जीवित रहना चाहती है? इतिहास गवाह है कि वही मानव समुदाय जीवित रहा है, जिसने किसी सामाजिक-इकाई के रूप में अपने को रूपांतरित किया है. सामाजिक इकाई के रूप में आपके पास संघर्ष की क्षमता होती है. और वह धर्म ही है जो आपको सामाजिक-इकाई के रूप में बांध कर रख सकता है.
इसलिए, दलित जातियों को जीवित रहना है तो धर्म का छत्र आवश्यक है. सवाल ये है कि दबी-पिछड़ी जातियां क्या उसी धर्म को अपना धर्म मानती रहे जो उनके दबे-पिछड़े होने का कारण है? क्या वे उसी को अपना धर्म कहती रहे, जो उन्हें पशुओं के तुल्य मानता हो? जो उन्हें आगे बढ़ने से रोकता हो?
अब सोचना आपको है कि आपके लिए कौनसा धर्म सही है? बाबासाहेब एक रास्ता दिखाकर गए हैं. इसलिए, दबे-पिछ्ड़ों को जवाब ढूँढ़ने की भी आवश्यकता भी नही हैं.
— भवतु सब्ब मङ्गलं—