आषाढ़ी पूर्णिमा का मानव जगत के लिए ऐतिहासिक महत्व है. लगभग छब्बीस सौ साल पहले और 528 ईसा पूर्व 35 साल की उम्र में सिद्धार्थ गौतम को बोधगया में बुद्धत्व की प्राप्ति हुई और बुद्ध बने. दुख के कारण व निवारण के मार्ग की खोज की.
महाकारुणिक सम्यकसम्बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के दो महीने बाद आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन सारनाथ में पञ्चवर्गीय भिक्खुओं कौण्डिन्य, वप्प,भद्दीय,अस्सजि और महानाम को अपना पहला ऐतिहासिक धम्म उपदेश दिया था. जिसमें कहा – ‘भिक्षुओ! बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय लोकानुकंपाय, अर्थात बहुत जनों के हित के लिए, ज्यादा से ज्यादा लोगों के कल्याण के लिए, उनके भले के लिए, उन पर अनुकंपा करते हुए चारिका करो. एक जगह इकट्ठा होने की बजाय अलग अलग दिशाओं में विचरण कर धम्म की देशना दो. बहुजन यानी ज्यादा से ज्यादा लोगों को दुख दूर करने व सुखी जीवन का मार्ग बताओ .प्रेम, करुणा व मैत्री का प्रचार प्रसार करो.
इस उपदेश के माध्यम से तथागत बुद्ध ने प्राणी मात्र के कल्याण के लिए ‘धम्म का चक्का’ घुमा कर भिक्खुसंघ की स्थापना की. इसलिए इसे संघ दिवस भी कहते है. इस दिन से तीन रत्न- बुद्ध, धम्म और संघ का स्वरूप साकार हुआ था.
इसी दिन भगवान बुद्ध के देहांत के एक माह बाद पांच सौ अर्हत भिक्खुओं की पहली धम्म संगीति यानी कॉन्फ्रेंस राजगृह के पर्वत की सप्तपर्णी गुफाओं में सम्राट अजातशत्रु के आयोजन में हुई थी.
आषाढ़ी पूर्णिमा का दिन ‘धम्मचक्क पवत्तन दिवस’ के रूप में मनाया जाता है. इस मानव कल्याणकारी मध्यम मार्ग के उपदेश को पालि भाषा में “धम्मचक्कपवत्तन सुत्त” कहा जाता हैं.
इस दिन से भिक्खुओं का ‘वर्षावास’ शुरू होता है .वर्षाऋतु में आषाढ़ पूर्णिमा से आश्विन पूर्णिमा, तीन माह तक बौद्ध भिक्खुओं को एक विहार में वास करने व धम्म उपदेश देने को वर्षावास कहते हैं.
वर्षावास का समापन समारोह कार्तिक पूर्णिमा को होता है. वर्षावास शुरू से समापन तक चार माह होते हैं, इसलिए इसे चातुर्मास भी कहते है. वर्षावास रखना श्रमण संस्कृति का अभिन्न अंग है. बौद्ध संस्कृति में इसे वर्षावास और जैन संस्कृति इसे चातुर्मास कहते हैं.
वर्षावास की शुरुआत भगवान बुद्ध ने ही की थी क्योंकि उस समय आवागमन के ऐसे साधन नहीं थे, भिक्षुओं को पैदल ही यात्राएं करनी होती थी, बारिश मे जंगलों में जहरीले जीवों से बचाव व रास्तों में नन्हें जीवों व वनस्पति के बचाव के लिए यह व्यवस्था की थी.
- आज ही के दिन सिद्धार्थ गौतम ने माता महामाया की कोख में गर्भ धारण किया था.
- आज ही राजकुमार सिद्धार्थ ने लोक कल्याण की भावना से गृहत्याग, महाभिनिष्क्रमण किया था.
- आज ही के दिन बुद्ध ने सारनाथ की पावन भूमि पर पंच्चवर्गीय भिक्खुओं को ‘धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्त’ का उपदेश दिया.
- आज ही के दिन पंच्चवर्गीय भिक्खुओं ने तथागत बुद्ध को अपना शास्ता, मार्ग दिखाने वाला (गुरू) स्वीकार किया था.
जिसके कारण इस पूर्णिमा को अन्य संप्रदाय में ‘गुरू पूर्णिमा’ भी कहते हैं. हालांकि तथागत बुद्ध खुद के लिए गुरु शब्द को अच्छा नहीं मानते थे. इसकी बजाय वे स्वय को ‘कल्याण मित्र’ यानी प्राणी मात्र को सही मार्ग बता कर कल्याण चाहने वाला कहते थे.
जब जम्बूद्वीप के इस भूभाग से गौरवशाली बौद्ध संस्कृति को नष्ट किया गया तो इसकी परम्पराएं भी दूसरों ने लेकर अपना लेबल लगा दिया. लेकिन अपने स्वार्थवश वर्षावास, गुरु, गुरु पूर्णिमा के भावों का दुरुपयोग कर इनके मानव कल्याण के स्वरूप को ही विकृत कर दिया.
लेकिन सुखद यह है कि बुद्ध व उनके धम्म के प्रेम, करुणा व मैत्री की संस्कृति पूरे संसार मे फिर से जीवित होकर तेजी से अंगिकार की जा रही है. आज विज्ञान के युग में मनुष्य तर्क, विवेक, प्रज्ञा व मानव कल्याण के विचार को ज्यादा महत्व दे रहा है. अत: वह वैज्ञानिक व मानवतावादी धम्म और बुद्ध की खोजी हुई विपस्सना ध्यान साधना द्वारा सुख शांति के बुद्ध के मार्ग की ओर चल पड़ा हैं.
सबका मंगलं हो.. सभी स्वस्थ हो…सभी प्राणी सुखी हो!
(लेखक: एम एल परिहार)