प्रोफेसर देबिप्रसाद चट्टोपाध्याय, डॉ आंबेडकर और प्रोफेसर योहानेस ब्रोंखोर्स्ट की रिसर्च प्राचीन बुद्धिज्म पर बहुत कुछ उजागर करती है. बुध्द, बौध्द धर्म और बौध्द संघ सहित तत्कालीन राजनीति और श्रमण ब्राह्मण संघर्ष को देखने का ढंग अब निर्णायक रूप से बदल रहा है.
प्रोफेसर देबिप्रसाद ने अपने महान ग्रँथ ‘लोकायत’ में प्राचीन शाक्य संघ और गणतांत्रिक शासन प्रणाली का उल्लेख किया है जिसमे एक विशेष तरह का लोकतंत्र नजर आता है. इसी लोकतंत्र की झलक स्वयं बुध्द के संघ में मिलती है.
इसी क्रम में अंबेडकर ‘बुद्ध और उनका धम्म’ में हमे बताते हैं कि इस गणतंत्र की कार्यप्रणाली के विश्लेषण और इसी के साथ उभर रहे असन्तोष और सत्ता संतुलन के मुद्दों का संबन्ध बुद्ध के वन-गमन से भी था. डॉ अंबेडकर बहुत जोर देकर शाक्य और कोलियों के बीच नदी के जल बंटवारे से जुड़े विवाद और युध्द की संभावना को बुद्ध के वन-गमन से जोड़ते हैं.
इस प्रकार साफ होता है कि बुद्ध का वन गमन किसी व्यक्तिगत मोक्ष के अनुष्ठान का उपकरण नही था. उनका वन गमन जनजातीय कबीलों और समाज में उभर रही हिंसा और उससे जुड़े शोषण के प्रश्न को हल करने के लिए था. ऐसा करने के क्रम में बुद्ध राजनीतिक, सामाजिक प्रश्नों को सुलझाते हुए कहीं गहराई से मनोवैज्ञानिक प्रश्नों से भी जूझते हैं. उनके विश्लेषण से जो परिणाम उन्हें मिला वह अंतिम रूप से एक मनोवैज्ञानिक उपचार की प्रणाली जैसा है जिसे व्यक्ति और समाज के लिए उन्होंने विकसित किया.
इस प्रकार बुद्ध का बुद्धत्व या ज्ञान प्राप्ति कोई यौगिक या तांत्रिक अर्थ की रहस्यमयी घटना नही थी बल्कि एक वैज्ञानिक द्वारा किन्ही प्रश्नों के उत्तर खोज लेने की घटना थी. इस घटना को बाद के धूर्तों ने एक चमत्कारी घटना की तरह चित्रित किया ताकि बुध्द को आराध्य और ईश्वर बनाकर पुनः लोगों को अंधविश्वास में धकेला जा सके.
अपने विश्लेषण और तर्क पद्धति विकास के दौर में बुद्ध ने व्यक्ति के मनोविज्ञान और समाज के जीवन को एक संतुलन में रखने का प्रयास किया. निश्चित ही यह तत्कालीन आवश्यकताओं से प्रेरित था और इसमें तत्कालीन विवशताओं के कुछ दोष भी थे. लेकिन साथ ही विश्लेषण और तर्क की मध्यमार्गीय प्रणाली देकर बुद्ध ने इसे हर युग के अनुकूल ढालने की मास्टर चाबी भी दे दी.
इसी चाबी का इस्तेमाल करते हुए डॉ अंबेडकर हमारे समय मे बुद्ध के धम्म और बौद्ध संघ के अनुशासन को दुबारा समसामयिक बना पाए हैं. अब भारत के सभ्य होने की दिशा में एक मील का पत्थर और दिशा सूचक रख दिया गया है. डॉ अंबेडकर की वह उंगली जो हर चौराहे पर खड़ी राह दिखा रही है उसे हल्के में मत लीजिये वह उंगली भारत को सभ्यता और सामर्थ्य की दिशा दिखा रही है.
पिछले तीस सालों में डॉ अंबेडकर और प्रोफेसर चट्टोपाध्याय के बाद अब प्रोफेसर ब्रोंखोर्स्ट ने जो काम किया है वह निर्णायक रूप से सब कुछ बदल चुका है.
प्रोफेसर ब्रोंखोर्स्ट प्राचीन पालि प्राकृत और संस्कृत के तुलनात्मक अध्ययन से यह सिध्द करते हैं कि जनजातीय गणतंत्रों के साथ-साथ पश्चिमी भारत की तरफ से राजतंत्रों का उदय हो रहा था. इसी दिशा से ब्राह्मण भारत मे प्रवेश कर रहे थे. यह गौतम बुध्द के काफी पहले शुरू हो चुका था, फिर सिकन्दर के आक्रमण ने अचानक बहुत कुछ बदल दिया था.
सिकन्दर के आक्रमण ने राजतंत्रों को उभरने और गणतन्त्रों के खत्म होने की पृष्ठभूमि निर्मित कर दी. यह प्रवृत्ति स्वयं बूद्ध के समय मे प्रसेनजित के “गणतन्त्रों के विनाश के संकल्प” में देखी जा सकती है.
इस प्रकार लोकतांत्रिक (प्राचीन ढंग का) गणतन्त्रों की हार और ब्राह्मणवाद के उभार का सीधा संबन्ध है. बाद में बौध्द राजतंत्रों का भी उदय होता है. लेकिन तब तक वे बुध्द के सन्देश से काफ़ी दूर निकलकर स्वयं बुध्द को आराध्य बनाकर उन्हें ईश्वर की तरह राजतंत्र के संरक्षक की तरह इस्तेमाल करने लगे थे.
इस प्रकार लोकतन्त्र का पतन और मूल बौद्ध धर्म का पतन एकसाथ होता है.
इसी प्रकार राजतंत्रों का उदय और ब्राह्मणवाद का उदय एकसाथ होता है.
इन दो निष्पत्तियों पर डॉ आंबेडकर, देबिप्रसाद चट्टोपाध्याय और प्रोफेसर ब्रोंखोर्स्ट तीनो सहमत होते हैं.
इसका हमारे लिए क्या अर्थ है?
भारत के सभ्य और समर्थ होने की दिशा उसके लोकतांत्रिक होने की संभावना पर निर्भर है. इसका अर्थ है कि भारत के जनमानस को ब्राह्मणवाद से मुक्त होना है और बुध्द के मार्ग को अपनाना है.
(लेखक: संजय श्रमण)