HomeBuddha Dhammaमङ्गलसूत्र के बारह मोती

मङ्गलसूत्र के बारह मोती

कहते हैं कि भगवान् बुद्ध दिन-भर तो मनुष्यों को उपदेश देते थे और रात्रि के प्रथम प्रहर से अंतिम प्रहर तक देव, यक्ष, किन्नर तथा अशरीरी सत्ताओं को उपदेश करते थे. सारिपुत्र, मौद्गल्यायन, महाकाश्यप, कात्यायन आदि भगवंत के उन्नत शिष्यों ने कई बार रात में शास्ता को देवों के साथ संवाद करते देखा था.

ऐसी ही एक घटना का उल्लेख है ‘महामंगलसूत्र’ में कि एक रात आकाशचारी एक देव ने श्रावस्ती में अनाथपिंडक के जेतवन में उतरकर तथागत को अभिवादन किया. पूरा जेतवन वह देव की आभा से आलोकित हो गया. शास्ता को अभिवादन करके वह विनयपूर्वक वह एक ओर खड़ा हो गये और फिर उन्होंने एक गाथा कही.

‘गाथा’ शब्द का प्रचलित अर्थ होता है कोई कथा या कहानी, जबकि पालि भाषा के अनुसार गेय पद को गाथा कहते हैं- पद जो गाया जा सके या गाया गया हो. काव्य रूप में रचित पद ‘गाथा’  कहलाता है. ‘धम्मपद’ में संगृहीत भगवान बुद्ध की देशनाओं को ‘गाथा’ कहा जाता है. गाथाओं का पठन पाठन, वाचन या पुनरावृत्ति ‘संगायन’ कहलाती है.

वह देव ने एक गाथा कही:

पहली गाथा

बहु देवा मनुस्सा च, मङ्गलानि अचिन्तयुं..
आकङ्खमाना सोत्थानं, ब्रूहि मङ्गलमुत्तमं..१..

-मंगल की इच्छा करते हुए बहुत-से देवताओं और मनुष्यों ने मंगल कार्यों पर विचार किया है. कृपया आप बताता चाहें कि उत्तम मंगल-कार्य क्या है?

तथागत ने वह देव के प्रश्न के उत्तर में ग्यारह गाथाएँ कहीं, जिनमें उन्होंने मंगल कार्यों की देशना दी है.

दूसरी गाथा

असेवना च बालानां पंडितानञ्च सेवना..
पूजा च पूजनीयानं एतं मङ्गलमुत्तमं..२..

– मूर्खो की संगति नहीं करना, विद्वानों की संगति करना और पूजनीयों की पूजा करना- यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तमं!

तीसरी गाथा

पतिरूपदेसवासो च, पुब्बे च कतपुञ्ञता..
अत्त-सम्मापणिधि च, एतं मङ्गलमुत्तमं..३..

– उचित स्थान पर निवास करना, पूर्व के संचित पुण्यों का होना तथा सम्यक आत्मनिरीक्षण करना, यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तमं!

चौथी गाथा

बाहुसच्चं च सिप्पंच, विनयो च सुसिक्खितो..
सुभासिता च या वाचा, एतं मङ्गलमुत्तमं..४..

– बहुश्रुत होना, शिल्पादि कलाएँ सीखना, विनयशील होना, सुशिक्षित होना, वाणी से सुभाषित होना, यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तमं !

बहुश्रुत होने का अर्थ है- बहुत लोगों से सुनना, अधिक से अधिक सुनना.

कहते हैं कि अच्छा श्रोता ही अच्छा वक्ता हो सकता है. मध्य काल के संत, यथा कबीर, रैदास, दादू, पलटू इत्यादि जो औपचारिक अर्थों में ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन बहुश्रुत होने के कारण उनके पास लौकिक ज्ञान भी विद्वानों से अधिक था और अंतर्ज्ञान में तो वे संपन्न थे ही. संत कबीर ने तो निर्भीकता से कहा भी है- मसि कागद छुयो नहीं – कलम, कागज छुआ तक नहीं. ऐसे संत कबीर पर भी जाने कितने विश्वविद्यालयों में कितने शोध-ग्रंथ तैयार हो गए हैं. शोधार्थियों को पी.एच. डी. की मानद उपाधियाँ प्रदान की गई हैं.

हमारे गाँवों के बड़े-बुजुर्गों के पास भी बहुश्रुत होने के कारण विद्वानों से अधिक ज्ञान होता है.

पाँचवीं गाथा

माता-पितु उपट्ठानं पुत्तदारस्स सङ्गहो..
अनाकुला च कम्मन्ता, एवं मङ्गलमुत्तमं..५..

– माता-पिता की सेवा करना, पत्नी-बच्चों का पालन-पोषण करना, कुल के प्रतिकूल कोई गलत कार्य न करना, यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तमं!

अधिकांश लोग धर्म को कोई पारलौकिक कृत्य समझते हैं. सांसारिक जीवन की जिम्मेदारियों से भागकर जंगल, पर्वत, आश्रम इत्यादि में धर्म का आचरण हो सकता है, ऐसा समझते हैं.

कितना हास्यास्पद है कि जिसे पत्थर में भगवान दिखाई देता है, लेकिन इंसान में इंसान नहीं दिखाई देता, उसे हम धार्मिक व्यक्ति समझते हैं. माता, पिता, पत्नी, बच्चों आदि के प्रति जिम्मेदार होना भी धर्म है- यह भगवान बुद्ध की देशना है.

छठी गाथा

दानं च धम्मचरिया च, ञातकानं च सङ्गहो..
अनवज्जानि कम्मानि, एतं मङ्गलमुत्तमं..६..

– दान देना, धर्म का आचरण करना, बंधु-बांधवों का आदर-सत्कार करना, दोषरहित कार्य करना, यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तमं !

सातवीं गाथा

आरति विरति पापा, मज्जपाना च सञ्ञमो..
अप्पमादो च धम्मेसु, एतं मङ्गलमुत्तमं..७..

– तन, मन, वाणी से पापों को त्यागना, मद्यपान नहीं करना, धर्म-कर्म में अप्रमादी- आलस्यरहित होना, यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तमं!

आठवीं गाथा

गारवो च निवातो च, सन्तुट्ठी च कतञ्ञुता..
कालेन धम्मसवणं, एवं मङ्गलमुत्तमं..८..

– प्रतिष्ठा पाना, विनम्र होना, संतुष्ट रहना, कृतज्ञ होना, उचित काल में धर्म सुनना, यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तं!

प्रतिष्ठा पाना, विनम्र होना- ये दो विरोधी बातें जैसी हैं. प्रायः प्रतिष्ठा पाकर व्यक्ति विनम्र नहीं रह जाता. जो प्रतिष्ठा पाकर विनम्र नहीं रह जाता उसकी प्रतिष्ठा खोती भी निश्चित है. अहंकार ने न जाने कितने प्रतिष्ठावानों को प्रतिष्ठाहीन कर दिया.

इसलिए शास्ता कह रहे हैं- प्रतिष्ठा पाना, विनम्र होना, यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तमं!

नवीं गाया

खन्ती च सोवचस्सता समणानं च दस्सनं..
कालेन धम्मसाकच्छा एतं मङ्गलमुत्तमं ||९||

– क्षमाशील होना, आज्ञाकारी होना, श्रमणों के दर्शन करना, उचित समय पर धर्म-चर्चा करना, यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तमं!

भगवंत के इस सूत्र में, जिसे ‘महामंगलसूत्र’ कहते हैं, मनुष्य के सर्वतोमुखी माङ्गल्य का उपदेश किया गया है. भगवान बुद्ध के धर्म को अदेशिको, अकालिको कहा गया है अर्थात उनकी देशनाएँ देश व काल से परे हैं. किसी भी देश और किसी भी काल में उनका पालन होगा तो मनुष्य का मंगल निश्चित होगा. किसी भी आयु, किसी भी वर्ग में उनका पालन होगा तो मंगल निश्चित होगा- बालक, युवा, प्रौढ़, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, श्रीमंत, निर्धन, गृहस्थ, अगृहस्थ कोई भी इन देशनाओं का पालन करे, उसका जीवन मंगलमय होगा.

दसवीं गाथा

तपो च ब्रह्मचरिया च अरियसच्चानं दस्सनं..
निब्बान सच्छिकिरिया च एतं मङ्गलमुत्तमं..१०..

– तप, ब्रह्मचर्य का पालन, चार आर्य सत्यों का दर्शन, निर्वाण का साक्षात्कार करना, यह उत्तम मंगल हैं- एतं मङ्गलमुत्तमं!

कुशल अध्यापन का सिद्धांत है- सरल में कठिन की ओर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर अर्थात पहले सरल बिंदुओं की व्याख्या, फिर कठिन विषय. पहले स्थूल, फिर सूक्ष्म.

इससे पूर्व की गाथाओं में भगवंत ने तुलनात्मक रूप से थोड़े सरल व स्थूल बिंदुओं को स्पर्श किया है. इस दसवीं गाथा में उन्होंने सूक्ष्म तत्त्वों की ओर अंगुलीनिर्देश किया है. चार आर्य सत्यों एवं निर्वाण की बात की है. बुद्ध ने चार आर्य सत्य कहे हैं. आर्य का पालि भाषा में अर्थ होता है- अटल, शाश्वत, श्रेष्ठ, अकाट्य, त्रिकालिक.

मोटे तौर पर चार आर्य सत्य इस प्रकार हैं :

  1. दुःख है.
  2. दुःख का कारण है.
  3. दुःख का निवारण, निदान है.
  4. एक ऐसी अवस्था है जहाँ दुःख नहीं है, वह है निर्वाण अर्थात संबोधि, समाधि अथवा साक्षात्कार.

दुःख को भगवान बुद्ध ने जीवन का प्रथम अकाट्य सत्य कहा है. संसार का एक भी मनुष्य, एक भी प्राणी यह नहीं कह सकता कि उसके जीवन में दुःख नहीं है. हर किसी के जीवन में किसी न किसी प्रकार का दुःख है- शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक किंवा चेतनात्मक. लेकिन एक कुशल वैद्य कहता है— ‘रोग है तो रोग का कारण भी है.’ भगवंत की देशनाओं का सबसे बड़ा आशावाद यह है कि कारण है तो निदान है. औषधि भी है. दुःख के निदानों पर एक स्वतंत्र सूत्र है- द्वादश निदान सूत्र- जिसमें दुःख निवारण के बारह उपाय बताए गए हैं. औषधि का नियमानुसार सेवन किया जाए तो स्वास्थ्य लाभ भी निश्चित है.

तथागत की इस वैद्यकीय भाषा के कारण उनका एक नाम ‘भैषज्य गुरु’ भी है. बुद्ध के भैषज्य गुरु-रूप की तिब्बत के वैद्य लोग उपासना करते हैं. इस रूप की मूर्तियों में भगवान के हाथ में खरल जैसा पात्र होता है, जिसमें औषधि पीसी जाती है. औषधि बनाने से पहले वे भैषज्य गुरु की पूजा करते हैं.

शास्ता का कहना है कि यदि उनकी देशनाओं का नियमानुसार पालन किया जाए तो स्वास्थ्य लाभ भी निश्चित होगा, निवार्ण-लाभ अवश्य होगा. बुद्ध कभी नहीं कहते कि मेरी बात को मान लो, एक वैज्ञानिक की तरह वे आमंत्रित करते हैं- एहि परिसको- आओ, यह करके देखो. तथागत कहते हैं-‘जैसे सुनार सोने को कसौटी पर कसता है, ऐसे तुम मेरी देशनाओं को परीक्षण की कसौटी पर कसो, खरी लगें, हितकारी लगें तो मानो.’ तथागत ने मानवी स्वतंत्रता को कितना मान दिया है!

प्रस्तुत गाथा में वे जेतवन में उतरे आकाशचारी देव से कहते हैं- ‘तप, ब्रह्मचर्य का पालन, चार आर्य सत्यों का दर्शन और निर्वाण का साक्षात्कार- यह उत्तम मंगल है.

ग्यारहवीं गाथा

फुट्ठस्स लोक धम्मेहि चित्तं यस्सं न कम्पति..
असोकं विरजं खेमं एतं मङ्गलमुत्तमं..११..

– जिसका चित्त लोक-धर्म से कंपित नहीं होता, वह शोकरहित, निर्मल, निर्भय रहता है. यह उत्तम मंगल है- एतं मङ्गलमुत्तमं.

लाभ, हानि, यश, अपयश, स्तुति, निंदा, सुख, दुःख- ये आठ धर्म बौद्ध धर्म के अनुसार लोक-धर्म कहे गए हैं. जो इन लोक-धर्मों से विचलित नहीं होता, वह शोकरहित, निर्मल, निर्भय रहता है- यह उत्तम मंगल है.

बारहवीं गाथा

एतादिसानि कत्वान सब्बत्थं अपराजिता..
सब्बत्थ सोत्थिं गच्छन्ति, तं तेसं मङ्गलमुत्तमं’ति..१२..

– इस प्रकार के कार्य करके लोग सर्वत्र अपराजित, कल्याण प्राप्त करते हैं. यह देव और मनुष्यों के लिए उत्तम है.

यह है बारह गाथाओं का महामंगलसूत्र.

बौद्ध काल में इस देश में विवाह के समय इस सूत्र का पाठ होता था. आचार्य वर और वधू को इन गाथाओं के प्रकाश में उनके मंगल कार्यों, कर्तव्यों का उपदेश करते थे. बौद्ध परिवारों में अभी भी विवाह के समय इसी मंगलसूत्र का पाठ होता है. इस मंगलसूत्र को पति और पत्नी दोनों के सौभाग्य का, मंगल का कारक माना जाता था. इनका भंग होना अर्थात इन गाथाओं का उल्लंघन गृहस्थी के लिए अनिष्टकारक माना जाता था.

कालांतर में जब बौद्ध धर्म इस देश से लुप्त हो गया, बौद्ध ग्रंथ नष्ट हो गए तब महामंगलसूत्र का पाठ तो बंद हो गया, लेकिन उसके स्थान पर वधु के गले में प्रतीकस्वरूप एक माला पहनाई जाने लगी और उसे ‘मंगलसूत्र’ का नाम दे दिया गया. उस माला में, हार में सोने के मोती पिरोए जाने लगे. लेकिन ‘मंगलसूत्र’ के वास्तविक मोती ‘महामंगलसूत्र’ की ये बारह गाथाएँ हैं. इन्हें सँभालने की जरूरत है. देश में बढ़ती हुई पारिवारिक कलह, अलगाव, तलाक का निदान इस ‘महामंगलसूत्र’ में है, न कि सोने के मोतियों वाले ‘मंगलसूत्र’ में.

एतं मङ्गलमुत्तमं – यह उत्तम मंगल है.

(लेखक: राजेश चन्द्रा)

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