नमन करूं गुरुदेव को, कैसे संत सुजान ।
कितने करुणा चित्त से, दिया धरम का दान ॥
संस्कृति एक सतत प्रक्रिया है और प्रत्येक जाने वाली पीढ़ी अपनी विद्यमान पीढ़ी को इसे देकर जाती है ताकि आने वाली पीढ़ी जान सके कि उसके पूर्वज क्या थे और उन्हें उनसे क्या मिला? एक तरफ रूढ़िवादी समाजों में ऊंच-नीच, भेदभाव और दमन आदि को संस्कृति का हिस्सा माना गया है, जिसे ढोने वाले और करने वाले लोग बराबर इस विष को अपनी आने वाली नस्लों को पिला के जाते हैं और इससे एक मानसिक विकृति वाला समाज पैदा हो रहा है जो बस गर्दभ की तरह उस बोझ को ढोए जा रहा है। दूसरी तरफ एक प्रगतिशील संस्कृति हैं जहाँ मानव को मानव की तरह देखा जाता है और सहज व्यवहार किया जाता है.
हमारी बौद्ध संस्कृति सदैव मानव को पारिस्थिकीय तंत्र का अंश मानते हुए उसे समदर्शी बनाती है, वो उसे जीने का एक तरीका देती है ताकि मनुष्य सीख पाए कि ये संसार ही क्षणिक है तो इसमें ऊंच-नीच, भेदभाव और दमन आदि जैसे आचरण से आपको कुछ भी नहीं मिलने वाला. समय के साथ जिस संस्कृति ने अपने अंदर बदलाव किया वह उन्नत होते चली जाती है और भले ही उस सद् विचार से कम लोग जुड़े, वे ही काफी होते हैं उस महान विरासत को आगे बढ़ाने के लिए.
इस सांस्कृतिक धारा को हजारों लोग थामते हैं और अनवरत आगे बढ़ाते रहते हैं. हर उम्र का व्यक्ति जब सत्य विचारों से ओतप्रोत हो जाता है तो वह चाहता है कि सन्मार्ग पर सभी आरूढ़ हों. सद्धम्म को श्वांसों पर उतारने के लिए तथा श्वांसों से भी नैरात्म्य तक पहुँचाने का जो सम्यक सम्बुद्ध द्वारा आविष्कृत मार्ग है ऐसी ‘विपस्सना’ पद्धति को जन – जन तक पहुँचाने वाले परम पूज्य गुरुदेव सत्यनारायण गोयनका जी का आज जन्मदिन है. सद्धम्म विस्तारिका विपश्यना एवं पालि भाषा को हम सब तक सुगम तरीके से पहुँचाने वाले गुरुदेव के प्रति हम आभार प्रकट करते हैं और पुण्यानुमोदन करते हैं.
आज नमन का दिवस हैं, अंतर भरी उमंग,
श्रद्धा और कृतज्ञता विमल भक्ति का रंग।।
गुरुवर आपके चरणों की, धूल लगे मम शीश,
सदा धर्म में रत रहूं, मिले यही आशीष ।।