जागो लोगों जगत के बीती काली रात,
हुआ उजाला धर्म का मंगल हुआ प्रभात ।
आओ प्राणी विश्व के सुनो धर्म का ज्ञान,
इसमें सुख है शांति है मुक्ति मोक्ष निर्वाण ।
यह तो वाणी धर्म की बुद्धि,
ज्ञान की ज्योत, अक्षर अक्षर में भरा मंगल ओत प्रोत ।
मीठी वाणी धर्म की मिसरी के से बोल,
कल्याणी मंगलमयी भरा अमृत रस घोल ।
आओ मानव मानवी चलें धर्म के पंथ, इस पथ,
चलते सत्पुरुष इस पथ चलते संत ।
धर्म पंथ ही शांति पथ धर्म पंथ सुख पंथ,
धर्म पंथ पर जो चले करे दुखों का अंत ।
इस पथ मंगल मूल है इस पथ है कल्याण,
कदम कदम चलते हुए पाये सुखों की खान ।
धर्म धर्म तो सब कहें पर समझे न कोए,
निर्मल मन काया चरण शुद्ध धर्म है सोए ।
मैं भी दुखिया न रहूँ जगत न दुखिया होए
जीवन जीने की कला सत्य धर्म है सोए ।
धर्म न हिन्दू बौद्ध है सिख न मुस्लिम जैन,
धर्म चित्त की शुद्धता धर्म शांति सुख चैन ।
सम्प्रदाय न धर्म है धर्म न बने दीवार,
धर्म सिखाये एकता धर्म सिखाये प्यार ।
जात पात न धर्म है धर्म न छुआ छूत,
धर्म पंथ पर जो चले होवे पावन पूत ।
जाति वरण का गोत्र का जहां भेद न होय,
जो सबका सबके लिए धर्म शुद्ध है सोए ।
मानव मानव में जहां भेद भाव न होए,
निजहित परहित सर्वहित सत्य धर्म है सोय ।
अपना भी होवे भला भला सभी का होए,
जिससे सबका हो भला शुद्ध धर्म है सोए ।
धन्य होयें माता पिता धन्य होयें कुल गोत्र,
धर्म पुरुष जन्मे जहाँ लिए ज्ञान की ज्योत ।
यही धर्म की परख है यही धर्म का माप,
जन जन का मंगल करे दूर करे संताप ।
कुदरत का कानून है इससे बचा न कोय,
मल मन व्याकुल रहे निर्मल सुखिया होए |
यह ऋत है यह नियम है सब पर लागु होए
धर्म धार सुखिया रहे छूटे व्याकुल होए |
निर्धन या धनवान हो अनपढ़ या विद्वान,
जिसने मन मैला किया उसके व्याकुल प्राण ।
हिन्दू हो या बौद्ध हो मुस्लिम हो या जैन,
जब जब मन मैला करे तब तब हो बैचैन ।
गोरा काला गेहुआँ मनुज मनुज ही होए,
जो जो मन मैला करे सो ही दुखिया होये ।
वर्ण रंग से मानवी ऊंच नींच न होए,
काली गोरी गाय का दूध एक सा होए ।
धर्मवंत तू है वही शील वंत जो होए,
काया वाणी चित्त की कर्म न दूषित होए ।
काया कर्म सुधार ले वाचक कर्म सुधार,
मन के करम सुधर ले यही धरम का सार ।
सदाचरण ही धर्म है दुराचरण ही पाप,
सदाचरण से सुख जगे दुराचरण दुःख पाप ।
परोपकार ही पुण्य है परपीड़न ही पाप,
पुण्य की सुख ही जगे पाप किये संताप ।
तीन बात बंधन बंधे राग द्वेष अभ्हिमान,
तीन बात बंधन खुले शील समाधी ज्ञान ।
प्रज्ञा शील समाधि की बही त्रिवेणी धार,
डुबकी मारे सो तरे हो भव सागर पार ।
गंगा जमुना सरस्वती शील समाधि ज्ञान,
तीनों का संगम होवे प्रगटे पद निर्वाण ।
शील धर्म पालन भला निर्मल भली समाधि,
प्रज्ञा तो जागी भली दूर करे भव व्याधि ।
शील हमारे पुष्ट हों होव चित अडओल ,
प्रज्ञा जागे बीनती देह ग्रन्थियां खोल ।
धर्म छूटे तो सुख छूटे आकुल व्याकुल हो ये,
धर्म जगे तो सुख जगे हल्कीत पुलकित होए ।
मंगल मंगल धर्म का फल निर्मल होए,
मानस की गांठे खुले अंतर निर्मल होए ।
अंतर गंगा धर्म की लहर लहर लहराय,
राग द्धेष के मोह के मैल सभी धुल जाएं ।
जीयें जीवन धर्म का रहे पाप से दूर,
चित्त द्वारा निर्मल रहे मंगल से भरपूर ।
धर्मवान पुरुष हो धर्मचारिणी नारी,
धर्मवंत संतान हो सुखी रहे परिवार ।
धर्म सदा मंगल करे धर्म करे कल्याण,
धर्म सदा रक्षा करे धर्म बड़ा बलवान ।
धर्म सदृश रक्षक नहीं धर्म सुदृश न ढाल ,
धर्म पालकों की सदा धर्म रहे रखवाल ।
प्रयालंकारी बाढ़ में धर्म सा धृष्ना द्वीप,
काल अँधेरी रात में धर्म सा धृष्ना द्वीप।
धर्म हमारा ईश्वर धर्म हमारा नाथ ,
हम तो निर्भय ही रहे धर्म हमारे साथ ।
धर्म हमारा बंधू है सखा सहायक मीत ,
चले धर्म की रीत ही रहे धर्म से प्रीत ।
धर्म धार निर्मल बने राजा हो या रंक,
रोग शोग चिंता मिटे निर्भय होए निशंख ।
यही धर्म का नियम है यही धर्म की रीत,
जो धारे निर्मल बने पावन बने पुनीत ।
धर्म न मंदिर मे मिले धर्म न हाट बिकाए ,
धर्म न ग्रंथों में मिले जो धारे सो पाये ।
अपना रक्षित धर्म ही अपना रक्षक होए,
धारण करें धर्म को धर्म सहायक होए ।
वाणी तो वष में भली वष में भला शरीर,
जो वष में मन करे वोही सच्चा वीर ।
मन ही दुर्जन मन सुजन मन बैरी मन मीत,
मन सुधरे सब सुधरे हैं कर मन पुनीत ।
मन बंधन का मूल है मन मुक्ति उपाय,
विकृत मन जकड़ा रहे निर्विकार खुल जाए ।
मन चंचल मन चपल है भागे चारों ओर ,
सांस डोर से बाँध कर रोक रक एक ठोर ।
जितना बुरा न कर सके दुश्मन दोषी दोय,
अधिक बुरा यह मन करे जब मन मैला होए ।
जितना भला न कर सके माँ बापू सब कोये,
अधिक भला निज मन करे जब मन निर्मल होए ।
मन के करम सुधार ले मन ही प्रमुख प्रधान,
कायक वाचक कर्म तो मन की ही संतान ।
जो चाहे बंधन खुलें मुक्ति दुःखों से होए,
वश में करले चित्त को, चित के वष मत होए।
चित से चित का दमन करे,
चित्त से चित्त सुधार चित्त स्वछ कर चित्त से
खोल मुक्ति के द्वार ।
चित की जैसी चेतना फल वैसा ही होए,
दुर्मन का फल दुःख सुखद सुमन का होए ।
अपने अपने कर्म के हम ही तो करतार,
अपने सुख के दुःख के हम ही जिम्मेदार ।
जब तक मन में राग है जब तक मन में द्वेष,
तब तक दुःख ही दुःख है मिटे न मन का क्लेश ।
जितना गहरा राग है उ तना गहरा द्वेष है
जितना गहरा द्वेष है उतना गहरा क्लेश ।
राग से जागे रोग है द्वेष से जागे
दोष मोह से जागे मूढ़ता धर्म से जागे होश।
क्षण क्षण जागे धर्म ही क्षण क्षण जागे होश
क्षण भर भी ज्ञान में रहे नहीं बेहोश।
क्षण क्षण बीतते जीवन बीता जाए
क्षण क्षण उपयोग कर बीता क्षण नहीं आये।
दृश्य और अदृश्य सब प्राणी सुखिया होए ,
निर्मल हो निर बैर हों सभी निरामय होयें।
जल के थल के गगन के प्राणी सुखिया होयें,
निर्भय हों निरबैर हों सभी निरामय होए।
सुख चाहे संसार में दुखिया रहे न कोई ,
जन जन मन जागे धर्म जन जन सुखिया होए ।
जन जन मंगल होए सबका मंगल होये।
मानव का जीवन मिला धर्म मिला अनमोल ,
अब श्रद्धा से यत्न से मन की गाँठें खोल।
मानव जीवन रत्न सा किया व्यर्थ बर्बाद,
चर्चा करली धर्म की चाख न पाया स्वाद।
जीवन सारा खो दिया ग्रन्थ पडंत पडंत ,
तोते मैना की तरह नाम रटन्त रटंत।
कितने दिन यूँही गए करते वाद विवाद ,
अवसर आया धर्म का चाख मुक्ति का स्वाद।
दुर्लभ जीवन मनुज का दुर्लभ धर्म मिलाप ,
धन्य भाग्य दोनों मिले दूर करें दुःख ताप।
जीवन सारा खो दिया करते बुद्धि विलास ,
बुद्धि विलासों से भला किसकी बुझती प्यास।
चर्चा ही चर्चा करे धारण करें न कोई ,
धर्म बिचारा क्या करे धारे ही सुख होये।
धारण करे तो धर्म है वर्ना कोरी बात ,
सूरज उगे प्रभात है वर्ना काली रात।
आते जाते सांस पर रहे निरंतर ध्यान ,
कर्मों के बंधन कटें होये परम कल्याण।
सांस देखते देखते मन अविचल हो जाए ,
अविचल मन निर्मल बने सहज मुक्त हो जाये।
सांस देखते देखते सत्य प्रकट हो जाये ,
सत्य देखते देखते परम सत्य दिख जाये।
पल पल क्षण क्षण होश रखे अपना कर्म सुधार ,
सुख से जीने की कला अपनी ओर निहार।
क्षण क्षण प्रतिक्षण सजग रह अपना होश संभाल ,
राग द्वेष की प्रतिक्रिया टाल सके तो टाल।
बीते क्षण तो चल दिए आने वाले दूर ,
इस क्षण में जो भी जिए वोही साधक शूर।
समय बड़ा अनमोल है समय न आत बिकाय ,
तीन लोक सम्पद दिए बीता क्षण न पाए।
बीते क्षण को याद करे मत बिरथा अकुड़ाये ,
बीता धन तो मिल सके बीता क्षण न आये।
भूतकाल व्याकुल करे य भविष्य भरमाये ,
वर्तमान में जो जिये तो जीना आ जाये।
प्रतिक्षण अंतरतप चले प्रतिक्षण रहे निष्पाप ,
प्रतिक्षण बंधन मुक्त हो दूर करे भव ताप।
तप रे तप रे मानवी तपे निर्मल ही होये ,
स्वर्ण अग्नि में तपे तप तप कुंदन होये।
नए कर्म बांधे नहीं क्षीण पुरातन होये ,
क्षण क्षण जाग्रत ही रहे सहज मुक्त है सोये।
देख देख कर चित्त की ग्रंथि सुलझती जाए ,
जागे विमल विपस्सना चित्त मुक्त हो जाये।
बाहर बाहर भटकते दुखिया रहे जहान ,
अंतर मन में खोज ले सुख की खान खदान।
होश जगे जब धर्म का होवे दूर ,
प्रमाद स्वदर्शन करते हुए चखे मुक्ति का स्वाद।
तृष्णा जड़ से खोद करे अनासक्त बन जाएं ,
भव बंधन से छूटन का यही एक उपाय।
भोगत भोगत भोगते बंधन बंधते जाएँ ,
देखत देखत देखते बंधन खुलते जाएं।
ऐसी जगे विपस्सना समता चित्त समाय ,
एक एक कर पाप की परत उतरती जाए।
ज्यों ज्यों अंतर जगत में समता छाती जाए
काया वाणी चित्त की कर्म सुधरते जाएं।
बाहर भीतर एक रस सरल स्वच्छ व्यवहार ,
कथनी करनी एक सी यही धर्म का सार।
कपट रहे न कुटिलता रहे न मिथ्याचार ,
शुद्ध धर्म ऐसा जगे जगे स्वच्छ व्यवहार।
शीलवान के ध्यान से प्रज्ञा जागृत होये ,
चित्त की समता स्थिर रहे उत्तम मंगल होये।
जिसके मन प्रज्ञा जगे होये विनम्र विनीत ,
जिस डाली पर फल लगें झुकने की ही रीत।
धन आये तो बाँवरे मत करे गर्व गुमान ,
यह बालू की बीत है इसका क्या अभिमान।
मत कर मत कर बाँवरे अहंकार अभिमान ,
बड़े बड़ों का मिट गया जग से नाम निशान।
सुख आये नाचे नहीं दुःख आये नहीं रोए ,
दोनों में समरस रहे धर्मवंत है सोए।
सुख दुःख आते ही रहें जो आएं दिन रैन ,
तू क्यों खोए बांवरा अपने मन का चैन।
अनचाहे होवे कभी मनचाही भी होए ,
धूप छायें की ज़िन्दगी क्या नाचे क्या रोए।
जीवन में आते रहें पतझड़ और बसंत ,
चित्त विचलित होवे नहीं मंगल जगे अनंत।
कभी बाग़ वीरान है कभी बसंत बहार ,
समता में प्रमोदित रहे संत निहार निहार।
तन सुख धन सुख मान सुख भले ध्यान सुख होये ,
पर समता सुख परम सुख ऐसा अन्य न कोई।
अंतर में डुबकी लगी भीग गए सब अंग ,
धर्म रंग ऐसा चढ़ा चढ़े न दूजा रंग।
जैसे मेरे दुःख कटे सबके दुःख कट जाएं ,
जैसे मेरे दिन फिरे सबके दिन फिर जाएं।
मेरे सुख में शान्ति में भाग सभी का होये ,
इस मंगलमय धर्म का लाभ सभी को होए।
इस दुखियारे जगत में सुखिया दिखे न कोई ,
शुद्ध धर्म जग में जगे जन जन सुखिया होये।
शुद्ध धर्म इस जगत में पुनः प्रतिष्ठित होये ,
जन जन का होये भला जन जन मंगल होये।
जग में बहती रहे धर्म गंग की धार ,
जन जन का होवे भला हो जन जन उपकार।
भला होये इस जगत का सुखी होएं सब लोग ,
दूर होएं दरिद्र दुःखी दूर होएं सब रोग।
बरसे बरखा समय पर दूर रहे दुष्काल ,
शासन होये धर्म का लोग होएं खुशाल।
शासन में जागे धर्म उखड़े भ्रष्टाचार ,
धनियों में जागे धर्म स्वच्छ होये व्यापार।
जन जन में जागे धर्म जन जन सुखिया होये ,
जन मन के दुखड़े मिटें जन जन मंगल होये।
दुखियारे दुःख मुक्त हों भय त्यागें भयभीत ,
द्वेष छोड़ कर लोग सब करें परस्पर प्रीत।
द्वेष और दुर्भाव का रहे न नामोनिशान ,
स्नेह और सधभाव से भर ले तन मन प्राण।
दूर रहे दुर्भावना द्वेष होएं सब दूर ,
निर्मल निर्मल चित्त में प्यार भरे भरपूर।
ज्यों इकलौते पूत परे उमड़े माँ का प्यार ,
क्यों प्यारा लगता रहे हमें सकल संसार।
दुखी देख करुणा जगे सुखी देख मन मोद ,
मंगल मैत्री से भरे अंतर से ओत्त प्रोत।
दृश्य और अदृश्य सभी प्राणी सुखिया होएं ,
निर्मल हो निरबैर हों सभी निरामय होये।
जल के थल के गगन के प्राणी सुखिया होएं ,
निर्भय हों निर्बैर हों सभी निरामय होये।
सुख चाहे संसार में दुखिया रहे न कोई ,
जन जन मन जागे धर्म जन जन सुखिया होये।
सुख व्यापे इस जगत में दुखिया रहे न कोई ,
जन जन मन जागे धर्म जन जन सुखिया होये।
जागो लोगों जगत के बीती काली रात,
हुआ उजाला धर्म का मंगल हुआ प्रभात ।
आओ मानव मानवी चलें धर्म के पंथ ,
इस पथ चलते बुद्ध जन इस पथ चलते संत।