सम्राट अशोक (304-232 ई.पू.) के गिरनार का प्रथम शिलालेख इस तरह आरंभ होता है – “अयं धम्मलिपि देवानं पिय्येन पिय्यदसिना राजा लेखापिता…” यह लेख अलग-अलग स्थानों में स्थानीय बोली/भाषा के प्रभाव के कारण थोड़े अंतर के साथ मिलते हैं. स्पष्ट है, भाषा के तौर पर यह पालि भाषा है और लिपि जैसे कि शिलालेख में उत्कीर्ण है, ‘धम्मलिपि’ है.
स्मरण रहे, व्याकरणचार्य पाणिनि (400 ई.पू.) ने वेद भाषा को सूत्र-आबध्द करते समय अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ अष्टाधायी में किसी ‘लिपि’ की चर्चा नहीं की है. निस्संदेह, तब बुद्धवचनों की तरह वेद भी कंठस्थ ही थे.
बौद्धों के धर्म-ग्रन्थ ललितविस्तर, जिसे विद्वानों ने पहली सदी की कृति माना है, में सिद्धार्थ गौतम को 64 लिपियों और भाषाओँ में निष्णांत होने का ऊलेख है (लिपिशाला संदर्शन परिवर्त). ललितविस्तर महायानी निकाय का एतिहासिक एक प्रसिद्ध संस्कृत काव्य-ग्रन्थ है. ललितविस्तर का अनुवाद 310 ई. के लगभग चीन में हो चूका था. 64 लिपियों की सूची में ब्राह्मी, खरोष्टि, पुष्करसारी आदि लिपियों का क्रम हैं.
स्मरण रहे, ललितविस्तर के लेखक का पता नहीं है, किन्तु इतना तो तय है, वह ब्राह्मण ही है. क्योंकि बुद्ध के जन्म के बारे में, जिसे आगे विष्णु का अवतार कहा गया, एक ब्राह्मण ही लिख सकता है कि जिस काल में ब्राह्मण बढे-चढ़े होते हैं तो ब्राह्मण कुल में, क्षत्रिय बढे-चढ़े होते हैं तो क्षत्रीय कुल के अलावा अन्यत्र किसी हीन/चाण्डाल कुल में जन्म नहीं ले सकते (कुलशुद्धि परवर्त:ललित विस्तर)?
दूसरे, अशोक (304-232 ई. पू.) ने अपने शिलालेखों में आवश्यक दिशा-निर्देशों के साथ सुत्तपिटक के पांच सुत्तों को उत्कीर्ण करवाया था. स्पष्ट है, सम्राट अशोक के समय ति-पिटक आंशिक रूप से लिपि-बद्ध हो चुका था.
हिन्दुओं के धर्म-ग्रन्थ वेद; जिनका बौद्ध धर्म-ग्रंथों में उल्लेख हैं, बुद्ध (563-483 ई. पू.) के पहले के हैं. ये वैदिक लोक भाषा और नागरी (देव नागरी) लिपि में लिखे गए. पाणिनि (400 ई.पू.) ने लोक भाषा/बोलियों को सूत्र आबद्ध करते हुए ‘अष्टाधायी’ की रचना की, जो नागरी लिपि और संस्कृत भाषा में है.
भारतीय परिप्रेक्ष्य में, सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में जो अभिलेख मिले हैं, उनकी लिपि के मात्रा-अक्षरों (संकेत-चिन्हों) और अशोक शिलालेख में उत्कीर्ण धम्म लिपि के मात्रा-अक्षरों में उल्लेखनीय समरूपता है. यद्यपि हड़प्पा अभिलेख, 600 से भी अधिक मात्रा-अक्षरों (संकेत चिन्हों) में होने के कारण ठीक-ठीक पढ़े नहीं जा सकें हैं, तब भी, अशोक के अभिलेखों में प्रयुक्त धम्म लिपि को, हड़प्पा अभिलेखों में प्रयुक्त लिपि का विकसित रूप निसंकोच कहा जा सकता है.
कनिष्क (78-144 ई. पू.) एक बौद्ध धर्मी सम्राट के रूप में इतिहास में प्रसिद्ध है. विदित हो कि कनिष्क के संरक्षण में चतुर्थ बौद्ध संगति, जो कनिष्कपुर (वर्तमान कश्मीर का कनिस्पुर) में हुई थी, के समय समस्त ति-पिटक और उनकी अट्ठकथाओं को पीतल धातु के पट्टों पर उत्कीर्ण करवा कर पत्थरों के बक्सों में एक स्तूप में रखवा दिया गया था. इसके कुछ ही पूर्व सिंहल द्वीप में वहां के शासक वट्टगामिणी (29-17 ई.) के संरक्षण में भी पालि ति-पिटक को वहां की भाषा और लिपि में लिखा कर सुरक्षित रखवाया गया था.
अब प्रश्न है, अशोक के शिलालेखों की लिपि जिसे अशोक ने ‘धम्मलिपि’ कहा है, को ‘ब्राह्मी लिपि’ क्यों कहा जा रहा है? और बात सिर्फ कहने की नहीं है, बाकायदा ब्राह्मी लिपि कह कर स्कूल-कॉलेजों में पढाया रहा है? क्या इसके पीछे वही ब्राह्मण मानसिकता तो नहीं जो हर श्रेष्ठ को ब्रह्म से जोड़ती है?
क्योंकि, धर्म-शास्त्रों में पहले ही लिख दिया है, ब्रह्म अर्थात ब्राह्मण, ब्रह्मचर्य, ब्रह्मविहार, ब्राह्मीलिपि, ब्रह्मज्ञान, ब्रह्माण्ड; ये सारे ‘ब्रह्म’ से ही उत्पन्न हो सकते हैं?
लेखक: त. अमृतलाल उके
—- भवतु सब्ब मङ्गलं —