HomeBuddha Dhammaफागुनी पूर्णिमा को मनाएं धम्मपद महोत्सव

फागुनी पूर्णिमा को मनाएं धम्मपद महोत्सव

Dhammapada Mahotsava: त्रिरत्न की पावन भावना सहित सभी धम्मबंधुओं को बौद्ध धम्म के एक अत्यंत गौरवशाली पक्ष से अवगत कराते हुए हमें अत्यंत हर्ष का अनुभव हो रहा है कि सम्राट अशोक के समय तक बौद्धों द्वारा लेखन कला का विकास कर लिया गया था. सम्राट अशोक ने जिस लिपि में अपने धम्म संदेश एवं धम्मोपदेश शिलालेखों पर उत्कीर्ण करवाएं (खुदवाए) उस लिपि को उन्होंने अपने शिलालेखों में “धम्मलिपि” लिखा है. मगर प्रतिक्रांति के दौरान इसी लिपि को “ब्रह्मलिपि” बता दिया गया. सम्राट अशोक के शिलालेखों को हम  “पत्थर की किताब” भी कह सकते हैं.

समय के साथ पत्थर के विकल्प के रूप में पशुओं की खाल, धातु की पतली परत अथवा ताड़पत्रों (भोज पत्रों) पर लेखन कार्य किया जाने लगा. बौद्ध लोग अहिंसक थे. इसलिए, वह पशुओं की खाल पर लिखना उचित नहीं समझते थे. धातु की परत लागत की दृष्टि से महंगी पड़ती थी इसलिए इसकी भी अनदेखी कर दी गई. मगर, ताडपत्रों पर लिखने का अथवा उन पर चित्रकारी करने का प्रचलन खूब पनपा. नालंदा, विक्रमशिला, तक्षशिला, वल्लभी आदि महाविहारों (विश्वविद्यालयों) में सभी पांडुलिपियां “ताड़पत्रों” पर ही लिखी गई थी.

मगर चीन में लिखाई के काम के लिए अथवा चित्रकारी के लिए रेशम के वस्त्र पर लिखने के चलन ने जोर पकड़ा. साथ ही उन्होंने लकड़ी की पतली तख्तियों पर भी लिखावट अथवा चित्रकारी के काम में दक्षता प्राप्त कर ली. यह वह समय था जब चीन के बौद्ध भिक्खुओं ने ना केवल पेपर का आविष्कार कर लिया अपितु पेपर के ऊपर लेखन कार्य में भी वह बहुत माहिर हो गए. एक अच्छा और गौरवशाली कार्य चीन के क्षमतावान एवं प्रतिभा संपन्न बौद्ध भिक्खुओं ने प्रिंटिंग तकनीक का आविष्कार कर लिया.

सन 823 की फागुनी पूर्णिमा के दिन चीन के बौद्ध भिक्खुओं ने संसार में सर्वप्रथम “धम्मपद” नामक तिपिटक बौद्ध साहित्य के प्रमुख ग्रंथ का प्रकाशन किया. उसी दिन से प्रत्येक फागुनी पूर्णिमा के दिन “धम्मपद महोत्सव” एक उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा.

इस दिन श्रद्धा संपन्न उपासक उपासिका प्रातः काल बुद्ध विहार में जाते हैं और उपोसथ धर्म का धम्मसम्मत पालन करते हुए पवित्र ग्रंथ धम्मपद का पाठ करते हैं तथा विद्वान बौद्ध भिक्खु योग्य बौद्धाचार्य अथवा अन्य विद्वानों द्वारा धम्मपद पर सारगर्भित व्याख्यान करते हैं तथा धम्मपद की गाथाओं पर विधि सम्मत व्याख्या एवं चर्चा करते हुए अपना दिन धार्मिक वातावरण में बिताते हैं.

इस दिन बौद्ध विहारों में भिक्खुओं को दानादि देकर सम्मानित किया जाता है. साथ ही क्षेत्र के बुजुर्ग उपासक उपासिकाओं को भी उचित उपहार देकर सम्मानित किया जाता है. जहां कहीं बुद्ध विहार नहीं है, वहां पर किसी उपासक उपासिका के निवास अथवा अन्य स्थान पर धम्मपद महोत्सव मनाया जा सकता है.

यह परंपरा भारतवर्ष में भी कई जगह निभाई जाने लगी है बेंगलुरु महाबोधि महासभा कई वर्षों से यह उत्सव पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण भाव के साथ मनाते आ रहे है. हमें भी इस पवित्र एवं ऐतिहासिक दिन को अपने-अपने बौद्ध विहारों में उपोसथ धम्म का पालन करते हुए संपन्न करना चाहिए और बौद्ध सांस्कृतिक पुनर्स्थापना के अभियान को मजबूती से आगे बढ़ाना चाहिए.

कई मित्रों का कहना है कि रंग पानी वाला दिन तो धुलेंडी को पड़ता है. इसका पूर्णिमा से क्या मतलब इस संबंध में हमारा निवेदन है कि सम्राट अशोक के पांचवें शिलालेख के अनुसार पूर्णिमा की चतुर्दशी और एकादशी, इसी प्रकार अमावस्या की चतुर्दशी और एकादशी वाले दिन भी उपोसथ के दिन है अतः वह दिन भी पूर्णिमा के समान ही महत्व रखते हैं. इन दिनों पर भी हर प्रकार से कठोरता के साथ उपोसथ धर्म का पालन करना चाहिए.

(लेखक: तत्वलीन बौद्धाचार्य शांति स्वरूप बौद्ध)

Must Read

spot_img