बौद्ध धम्म, बुद्ध धम्म, बौद्ध धर्म, बुद्धिस्म और भी ना जाने कितने नामों से प्रचलित जीने के इस तरीके को वैश्किक रूप से बौद्ध धम्म (Buddhism) के नाम से ही पहचाना जाता है. इसके अपने प्रतीक चिन्ह है जिन्हे पूरी दुनिया पहचानती है. इन्ही में से एक है धम्म ध्वज जिसे भारतीय बौद्ध पंचशील ध्वज, पंचशील पताका और पंचशील झंड़ा के नाम से ज्यादा जानते हैं.
नीला, पीला, लाल, सफेद और कासाय – इन पांच रंगो के क्षैतिज (Horizontal) और उर्ध्व (Vertical) पट्टियों से निर्मित ध्वज को बौद्ध ध्वज (Buddhist Flag) कहते हैं, जो कि पंचशील ध्वज (पंचशील पताका) के रूप में अधिक लोकप्रिय है. इस ध्वज की भी अपनी एक कहानी है.
बौद्ध धम्म ध्वज कैसे अस्तित्व में आया अर्थात कैसे और क्यों बना?
थियोसोफिकल सोसाइटी के संस्थापक कर्नल हेनरी स्टीले ऑलकट और मैडम ब्लावत्सकी थे. हेनरी अमेरिकी सेना से अवकाश प्राप्त कर्नल थे. थियोसोफिकल सोसाइटी किसी एक धर्म अथवा सम्प्रदाय की पोषक या प्रचारक संस्था नहीं थी, बल्कि सभी धर्मों व सम्प्रदायों के आध्यात्मिक मूल्यों के समन्वय की पोषक थी, इसलिए इस संस्था में बिना पूर्वाग्रह के सभी धार्मिक विचारधाराओं का अध्ययन, शोध एवं तद्नुसार अनुपालन होता था.
अध्ययन व अभ्यास करते-करते कर्नल हेनरी बुद्ध के धम्म (Buddhism) की ओर आकर्षित होने लगे और अन्ततः वर्ष 1880 में श्रीलंका में उन्होंने बुद्ध धम्म आत्मसात कर लिया और श्रीलंका में बुद्ध धम्म के उत्थान की गतिविधियों के सक्रिय अंग बन गये. वहाँ उन्होंने 400 के आसपास बौद्ध विद्यालय एवं महाविद्यालयों की स्थापना की जिनमें से कुछ बहुत ही प्रसिद्ध हुए. जैसे आनन्द, नालन्दा, महिन्द, धम्मराजा इत्यादि. ये उनके द्वारा स्थापित विद्यालयों के नाम हैं.
अपने शान्तिमय लोकतांत्रिक आन्दोलनों के जरिये श्रीलंका के बौद्धों को सन् 1884 में एक बड़ी सफलता मिली. सफलता यह कि वह ब्रिटिश सरकार से वेसाक डे अर्थात बुद्ध पूर्णिमा के सार्वजनिक अवकाश की घोषणा करा सके, जो कि सन् 1885 की बुद्ध पूर्णिमा से क्रियान्वित हुआ.
इस सफलता के बाद श्रीलंका के बौद्धों ने ‘कोलम्बो कमेटी‘ नाम से एक संस्था बनायी, जिसमें कर्नल हेनरी स्टीले ऑलकट भी एक सदस्य थे. इस कमेटी में एक प्रस्ताव आया कि बौद्धों का एक ध्वज होना चाहिए, जो बौद्ध अस्मिता व गौरव का प्रतीक हो. कहा जाता है कि प्रस्ताव कर्नल हेनरी की ओर से था, जिस पर पूरी कमेटी की सहमति थी. तय यह हुआ कि वह ध्वज आगामी बुद्ध पूर्णिमा 28 मई, 1885 को फहराया जाएगा. इस प्रकार ‘कोलम्बो कमेटी’ द्वारा निर्मित वह ध्वज अस्तित्व में आया, जिसे आज पंचशील ध्वज कहते हैं.
बुद्ध पूर्णिमा पर फहराए जाने से पूर्व 17 अप्रैल, 1885 को ‘कोलम्बो कमेटी’ द्वारा यह ध्वज सार्वजनिक किया गया तथा सार्वजनिक अनुमोदन व सहमाति प्राप्त की गयी. यह पंचशील ध्वज श्रीलंका में कोटाहेना के दीपदुथ्थरमया बुद्ध विहार में सन् 1885 की बुद्ध पूर्णिमा, 28 मई को पहली में बार पूज्य भिक्खु मिगेत्तुवन्ते गुणानन्द थेर द्वारा विशाल बौद्ध समूह के समक्ष फहराया गया.
कालान्तर में कर्नल हेनरी स्टीले ऑलकट के परार्मश पर इस ध्वज का आकार राष्ट्र ध्वज के आकार का तय किया गया. इसमें कतिपय परिवर्तन किये गये और उसे अन्तिम रूप दिया गया. इसे आगामी वर्ष 1886 की बुद्ध पूर्णिमा को फहराया गया. तब से आज की तारीख तक यही ध्वज यथावत है और पूरे विश्व के बौद्धों की अस्मिता व गौरव का प्रतीक है.
बौद्ध धम्म ध्वज की वैश्विक मान्यता
इस ध्वज की वैश्विक स्वीकृति की भी एक कहानी है. इसका मुख्य श्रेय प्रोफेसर जी.पी. मलालसेकर को जाता है, जिनकी अध्यक्षता एवं पहल से 25 मई, 1950 को दाढ़ा धातु बुद्ध विहार (कोलम्बो) के सभागार में श्रीलंका की पहली वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप आयोजित हुई. इस विहार में भगवान बुद्ध के पावन दन्त धातु स्थापित हैं.
पूज्य भदन्त गलगेदर प्रज्ञानंन्द का कहना है, “प्रोफेसर जी.पी. मलालसेकर मूलतः श्रीलंका के थे. वह सिंहली, पालि, संस्कृत, अंग्रेजी, लैटिन, ग्रीक, फ्रांसीसी भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान थे. वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप के वह संस्थापक अध्यक्ष थे. वह बोधिसत्व बाबा साहब से अत्यधिक प्रभावित थे. उन्होंने बाबा साहब को बुद्ध पूर्णिमा 25 मई, 1950 को आयोजित होने वाले वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप में कोलम्बो आमंत्रित किया.
“इस आयोजन में जाने से पहले बाबा साहब ने महाबोधि दिल्ली में डॉ. एच. सद्धातिस्स की उपस्थिति में पू. भन्ते आर्यवंश से 2 मई, 1950 को बुद्ध धम्म की दीक्षा ली थी, यानी कि वर्ल्ड बुद्धिस्ट फेलोशिप में बाबा साहब एक बौद्ध के रूप में सम्मिलित हुए थे.”
“25 मई, 1950 को श्रीलंका के इस कार्यक्रम में विश्व-भर के बौद्ध संघ के सम्मुख प्रोफेसर डॉ. जी.पी. मलालसेकर ने बाबा साहब को ‘लिविंग बोधिसत्व’ कह कर सम्बोधित किया था, एक जीवन्त बोधिसत्व.”
सम्यक प्रकाशन प्रमुख श्री शान्ति स्वरूप जी बताते हैं, “02 मई, 1950 को दिल्ली में बुद्ध धम्म की दीक्षा लेते समय बाबा साहब के साथ समता सैनिक दल के 101 नवयुवकों ने भी धम्म-दीक्षा ली थी, जिसके साक्षी के रूप में करोलबाग में श्री किशोरी लाल गौतम जी अभी भी वर्तमान हैं.”
प्रोफेसर डॉ. गुणपाल पियासेन (जी.पी.) मलालसेकर बुद्धिस्ट इन्साइक्लोपीडिया के प्रधान सम्पादक थे. इसके अलावा ‘पालि-सिंहली-अंग्रेजी शब्दकोश’ तथा ‘गुणपाल सिंहली-अंग्रेजी शब्दकोश’ उनके कालजयी ग्रंथ हैं.
यह प्रोफेसर डॉ. जी.पी. मलालसेकर को श्रेय है कि 25 मई, 1950 को वर्ल्ड बुद्धिस्ट फलोशिप में वैश्विक बौद्ध संघ के सम्मुख, जिसमें बाबा साहब भी उपस्थित थे, जापान के ज़ेन विद्वान डॉ. डी. टी. सुजुकी भी उपस्थित थे, उन्होंने उस बौद्ध ध्वज को समस्त बौद्ध जगत के द्वारा स्वीकृत करने का प्रस्ताव रखा, जो कि साधुवाद के साथ अनुमोदित हो गया. कह सकता हूँ कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज में धम्मचक्र समावेशित कर उसे बौद्ध स्वरूप देने का श्रेय बाबा साहब को है और धम्म ध्वजा को वैश्विक मान्यता दिये जाने की घटना में भी उनकी उपस्थिति है. आधिकारिक रूप से इस ध्वज को अन्तराष्ट्रीय बौद्ध ध्वज की मान्यता सन् 1952 में वर्ल्ड बुद्धिस्ट कांग्रेस में मिली.
प्रकटतः इस धम्म ध्वज में पांच रंग की खड़ी पट्टियाँ होती हैं. इस कारण लोग इसे पंचशील ध्वज कहते हैं. जबकि वास्तव में इसमें पांच पट्टियाँ नहीं वरन छः पट्टियाँ होती हैं, छठी खड़ी पट्टी में पाचों रंगों का संयुक्त रूप होता है. तथापि इस ध्वज को पंचशील ध्वज कहकर सम्बोधित करना इस बात की ओर भी संकेत करता है कि बौद्ध पंचशीलों को कितना महत्व देते हैं. यदि रंगो की संख्या की भाषा में ही कहा जाये, तो इसे पंचशील न कह कर षडायतन ध्वज कहना अधिक उपयुक्त होगा, लेकिन ‘धम्म ध्वजा’ के रूप में इसकी वैश्विक मान्यता तथा स्वीकार्यता है. पंचशील या षडायतन बोलचाल में प्रयोग किये जा सकते हैं, मगर ‘धम्म ध्वजा’ या ‘बुद्धिस्ट फ्लैग’ इसकी सार्वभौमिक संज्ञा है.
बौद्ध धम्म ध्वज में रंगों का क्या मतलब होता है?
‘धम्म ध्वजा ‘ के छः रंगों का भी विशेष अर्थ है. बौद्ध ग्रंथों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान बुद्ध के शरीर से छः रंगों का आभामण्डल (Aura) प्रस्फुटित होता रहता था, नीला, पीला, लाल, धवल, कासाय और छः रंगों का मिश्रित रूप जिसे प्रभास्वर कहते हैं. यह छः रंग बुद्धत्व व धम्म की परिपूर्णता के प्रतीक हैं. बौद्धों के स्मरण रखने के लिए अनुस्मारक अर्थात् रिमाइण्डर जैसे हैं. इस ध्वज के छः रंगों का प्रतीकार्थ निम्नवत व्याख्यायित है:
नीला:
कहा जाता है कि नीले रंग का आभा मण्डल भगवान बुद्ध के सिर के चारों ओर रहता था, जो कि प्राणि मात्र के प्रति उनकी अखण्डित करुणा का प्रतीक है. इस प्रकार नीला रंग मैत्री, करुणा व शान्ति का प्रतीक है. आसमान और सागर के नीले रंग की तरह व्यापकता का संदेश देता है.
पीला:
पीले रंग की आभा भगवान बुद्ध के निकटतम रहती थी. पीला रंग रूप-अरूप की अनुपस्थिति, शून्यता और मध्यम मार्ग का प्रतीक है।.मध्यम मार्ग अर्थात अतियों से परे बीच का रास्ता.
लाल:
लाल रंग बुद्ध त्वचा की आभा है. यह रंग धम्माभ्यास की जीवन्तता व मंगलमयता का प्रतीक है. यह प्रज्ञा, सौभाग्य, गरिमा, सद्गुण व उपलब्धि का भी संकेत है.
धवल या सफेद:
बुद्ध के दांतों, नाखूनों व अस्थि धातुओं से धवल आभा प्रस्फुटित होती रहती थी. यह रंग शुद्धता व पावनता का प्रतीक है और बुद्ध की शिक्षाओं की अकालिकता का भी. अकालिकता अर्थात बुद्ध की देशनाएं समय के साथ पुरानी नहीं पड़ती, वरन नित नवीन बनी रहती हैं, वे जितनी सच कल थीं, उतनी आज भी हैं और आगे भी रहेंगी.
कासाय या केसरिया:
बुद्ध की हथेलियों, एड़ियों, होंठों पर केसरिया आभा दमकती रहती थी. यह रंग बुद्ध की अकम्प प्रज्ञा का प्रतीक है. यह वीर्य अर्थात उत्साह व गरिमा का संकेत भी करता है.
पांचों रंग-प्रभास्वर:
पांचों रंगों की मिश्रित आभा अर्थात प्रभास्वर बुद्ध की देशनाओं की विभेदता, क्षमता का प्रतीक है. यह मिश्रित आभा दर्शाती है कि बुद्ध की शिक्षाएं जाति, सम्प्रदाय, नस्ल, राष्ट्रीयता, विभाजन-विभेद से परे न केवल मानवमात्र के लिए हैं वरन प्राणिमात्र के लिए हैं.
इस प्रकार यह ध्वजा मानवीय मूल्यों व गरिमा का एक सार्वभौमिक प्रतीक है. यह ध्वज किसी एक राष्ट्र का नहीं वरन सकल विश्व है. यद्यपि इसे बौद्ध ध्वजा की अन्तरराष्ट्रीय मान्यता है तथापि यह सम्पूर्ण मानवता का ध्वज है.
(लेखक: राजेश चंद्र जी)