ध्यान और अध्यात्म की कोई भी बहस जब तक सामाजिक सरोकारों और सामाजिक न्याय की ठोस भूमि से होकर नहीं गुजरती तब तक वो व्यर्थ है.
न केवल व्यर्थ है बल्कि घातक भी है. पूरी दुनिया में धर्मों का इतिहास इस बात को जाहिर तौर पर सिद्ध करता है.
जो ध्यान या जो आध्यात्मिकता आपके समाज में उंच नीच छोटे बड़े स्त्री पुरुष या गरीब अमीर का विभाजन निर्मित करती है या उसके प्रति उपेक्षा रखती है वह असल में ध्यान या आध्यात्म है ही नहीं. ठीक से देखें तो वह असली ध्यान या असली अध्यात्म के खिलाफ रचा गया सबसे कारगर षड्यंत्र है.
इस षड्यंत्र को बहुतों ने उजागर किया है. आज से नहीं बल्कि हजारों साल से षड्यंत्र और षड्यंत्र का भंडाफोड़ एकसाथ, या कहें समानांतर ही चल रहा है. लेकिन ये भंडाफोड़ अभी तक सामान्यजन के बीच में एक आन्दोलन नहीं बन पाया है.
तीन उदाहरण लीजिये विवेकानंद, ओशो और कृष्णमूर्ति . विवेकानंद बहुत पारंपरिक अर्थों में वेदान्त का बखान करते हैं और धीरे धीरे क्रांतिकारी होते जाते हैं. उनकी बेबाकी और स्पष्टवादिता इतनी बढ़ जाती है कि वे आध्यात्म की गहराई में जड़ें जमाते हुए उस अध्यात्म के कलेवर सहित उसके मौलिक सौंदर्यशास्त्र पर ही सबसे बड़े सवाल उठाने लगते हैं. खासकर शिकागो वक्तृता के बाद उनके भीतर का विद्रोही एकदम सिंहनाद कर उठता है. इस बात का उनके जीते जी बहुत विरोध हुआ है. सभी पोंगा पंडितों ने उन्हें बहुत सताया है. वे कायस्थ जाती से थे, कईयों ने उन्हें छोटी जाती से होने के कारण गुरु या संन्यासी मानने से इनकार किया. उनके विरोध में बहुत प्रदर्शन हुए.
लेकिन बाद में जब उनका महात्म्य स्थापित हो गया तो उन्ही पोंगा पंडितों ने उन्हें अपना गुरु मान लिया. फिर धीरे धीरे विवेकानंद के साहित्य में पारंपरिक गुरुभक्ति और वेद वेदान्त की प्रशंसा में जो बातें कहीं गयीं हैं उन्ही को फिल्टर करके जनता तक पहुँचाया गया है. यह विवेकानंद के विद्रोह की बहुत सूक्ष्म ह्त्या है. इसे पहचानना कठिन है. आज अगर कहा जाए कि विवेकानंद स्त्री पुरुष विभाजन, धर्मों की लड़ाई सहित वर्ण और जाति के दर्शन के खिलाफ थे तो अधिकाँश लोग यकीन ही नहीं कर पायेंगे. यह पोंगा पंडितों के षड्यंत्र की सफलता है.
कृष्णमूर्ति को देखिये. वे शुद्धतम अर्थ में अध्यात्म और ध्यान की मूलभूत प्रक्रिया पर खड़े हैं उसे किसी भी तरह का सामाजिक और ऐतिहासिक आधार नहीं दे रहे हैं. वे इंसान के मन के काम करने के तरीके को उसके सबसे प्रत्यक्ष और वैज्ञानिक रास्ते से उजागर कर रहे हैं. वे किसी सन्दर्भ विशेष में जाए बिना ध्यान और मनुष्य की चेतना को उसके मौलिक रूप में समझा रहे हैं. इसीलिये उनके पूरे करियर में परंपरागत पोंगा पोंगा पंडितों को उनसे कोई ख़तरा महसूस ही नहीं हुआ. और इसीलिये उनका वृहत्तर समाज पर कोई प्रभाव भी नहीं हुआ.
इसका क्या मतलब है? इन दोनों केस स्टडीज से क्या सीखने को मिल रहा है? इसका मतलब बहुत बहुत महत्वपूर्ण है. इस मतलब को समझ लिया जाये तो न केवल सही अर्थ में ध्यान को प्रतिष्ठित किया जा सकता है, बल्कि ध्यान और सामाजिक न्याय के गठबंधन को भी सिद्ध किया जा सकता है, उसे अमल में लाया जा सकता है.
इन दोनों के करियर से यह सीखने को मिलता है कि आपकी क्रांतिकारिता और समझ कितनी भी महान क्यों न हो अगर आपने गलती से भी पारम्परिक अर्थों वाले शास्त्रों का समर्थन और प्रशंसा कर दी तो पोंगा पंडित उसी प्रशंसा से उब्बारे को फुला फुला कर आपको भी पोंगा पंडित बना डालेंगे. आपके क्रांतिकारी और विद्रोही वक्तव्यों को इन प्रशंसाओं के दलदल में ऐसा गहरा दबा देंगे कि पता भी नहीं चलेगा कि आपके मौलिक और परम्परा विरोधी विचार भी कभी जन्मे थे.
कृष्णमूर्ति ने कोई समझौता नहीं किया और किसी शास्त्र या गुरु की प्रशंसा ही नहीं की इसलिए वे अभी भी ज़िंदा हैं. वे अभी भी भ्रष्ट नहीं किये गये हैं. उनके वक्तव्यों में से पुराने धर्मों और परम्पराओं की प्रशंसा ढूंढकर उनकी ह्त्या करना असंभव है. इसलिए मेरा ऐसा विशवास है कि उनके दर्शन को सामाजिक न्याय की ठोस भूमि के थोड़ा निकट लाया जा सके तो कृष्णमूर्ति भारत के लिए चमत्कार कर सकते हैं.
ओशो के साथ यह चमत्कार बहुत मुश्किल है. क्योंकि ओशों ने हर शास्त्र और धर्मगुरु की इतनी प्रशंसा कर डाली है कि इसी प्रशंसा को पकड़कर सारे धार्मिक रुढ़िवादियों ने उन्हें शोषक धर्मों को बचाए रखने के लिए अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया है. ओशो धर्म के जगत में क्रान्ति के लिए बहुत सुरक्षित नहीं हैं. अगर आप ओशो के किसी वक्तव्य को लेकर क्रान्ति करने निकलें तो बिना एक मिनट गँवाए कोई दूसरा व्यक्ति उसी वक्तव्य के खिलाफ ओशो का ही वक्तव्य लेकर कूद पड़ेगा और ओशो को क्रान्ति विरोधी सिद्ध कर देगा.
ओशो खुद अपने आप में खुद से ही लड़ रहे हैं. उन्हें उन्ही के खिलाफ इस्तेमाल करना बहुत आसान है. इसीलिये ओशो के सन्यासियों को गौर से देखिये. वे पुराने अंधविश्वासियों से ज़रा भी भिन्न नहीं हैं. वे पुराने सारे व्रत उपवास, तीर्थ, त्यौहार मनाते हैं. वे पुनर्जन्म और भाग्यवाद में बहुत ज्यादा भरोसा करते हैं.
इस भाग्यवाद में गुरुभक्ति और गुरु की इच्छा जैसे आत्मघाती सिद्धांत भी घुसेड दिए गये हैं इसलिए उनकी मूर्खतापूर्ण निर्भरताओं में भी एक तरह की धार्मिक वैधता शामिल हो गयी है. इसका इलाज करना तो बहुत दूर, इसका पता लगाना ही बहुत मुश्किल है.
लेकिन कृष्णमूर्ति को किसी भी परम्परागत षड्यंत्र के लिए इस्तेमाल करना मुश्किल है. वे खालिस वैज्ञानिक हैं. जरूरत बस इतनी है कि उनकी शिक्षाओं को मनोविज्ञान, समाज मनोविज्ञान और समाजशास्त्र सहित सामाजिक न्याय की भाषा में अनुवाद करते हुए पेश किया जाए.
यह भी बहुत जटिल और बड़ा काम है लेकिन यह किया जा सकता है. और यह आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है. इस काम को पुराने धर्म के समर्थक बिलकुल ही नहीं कर सकते. इसे वो लोग करेंगे जो सामाजिक अन्याय की पीड़ा को को और ध्यान की संभावनाओं को एकसाथ अनुभव करते हैं.
इसीलिये आप देखेंगे कि प्रचलित अर्थ में धर्म या ध्यान की प्रशंसा करने वालों ने ध्यान या अध्यात्म की सामाजिक परिवर्तन संबंधी संभावना पर बिलकुल भी काम नही किया है. बल्कि उलटा उन्होंने यह किया है कि सामाजिक अन्याय के बारे में सोचने वाले लोगों को नकली अध्यात्म की घुट्टी पिलाकर नपुंसक और आलसी बना दिया है.
इसीलिये भारत में इतने युवा हैं जो ध्यान की बातें करते हैं, ध्यान करते हैं या इस तरह के या उस तरह के आश्रम से जुड़े हैं लेकिन कोई भी संगठित पहल समाज बदलने की होती ही नहीं. यह एक चमत्कार है. जो भारत में ही संभव है.
इस समस्या को कृष्णमूर्ति के ध्यान के विज्ञान और अंबेडकर के सामाजिक न्याय के दर्शन की युति से हल किया जा सकता है. और चूंकि दोनों की गहरी मान्यताएं बुद्ध और बौद्ध धर्म के बहुत निकट है इसलिए उनको एकसाथ लाना बहुत आसान होगा.
(लेखक – संजय श्रमण)