तथागत द्वारा सिखाई गई बातों में यत्किंचित भी द्वेष और कलुषता नहीं है, उन सर्वांग सुंदर भगवान बुद्ध द्वारा देशित किया गया धम्म मैत्री के रूप में ही सामान्य उपासक-उपासिका की साँसों में उतरता है.
मनुष्य एक ही समय कई जिम्मेदारियों को निभाता है और उसी आपाधापी में अपने आपको खो देता है, अतः सर्वप्रथम मैत्री अपने आपसे कीजिए. कोई भी व्यक्ति जब स्वयं से मैत्री सीख जाता है, वो फिर तैयार हो जाता है अन्य से भी मैत्री करने के लिए. अपने आपसे आरम्भ करके इस मैत्री का दायरा क्रमशः परिवार, रिश्तेदार, गाँव, शहर, जिला, देश, विश्व व ब्रह्मांड तक विस्तृत कीजिए. मैत्री को इस तरह स्थापित कीजिए कि जीव-अजीव के प्रति भी आपकी भावना में भेदभाव ख़त्म हो जाए.
भगवान बुद्ध कहते हैं कि प्राणी दृश्य हों या अदृश्य, समीप के हों या दूर के, छोटे हों या बड़े, मनुष्य हों या मनुष्येतर; सभी प्राणियो के प्रति मंगल मैत्री का भाव रखना चाहिए. उनके सुखी, स्वस्थ और दुःख मुक्त होने की, बन्धन मुक्त होने की मंगल कामना करनी चाहिए.
परम पूज्य विपश्यनाचार्य गोयनका जी कहते हैं कि मैत्री और मित्रता (दोस्ती) में भेद है. दोस्ती या साधारण मित्रता का आरंभ जान पहचान या परिचय से होता है. धीरे-धीरे यह परिचय कुछ घनिष्ट हो जाता है. एक दूसरे के यहां आना-जाना होने लगता है. दूर हों तो पत्राचार अथवा फोन पर भी बातचीत करके आपसी हालचाल पूछ लिया जाता है. एक दूसरे के सुख-दुख में शरीक भी होना संभव होता है. किन्तु मित्रता मैत्री जैसी पवित्र नहीं है. मैत्री-भावना तो प्राणीमात्र के लिये है- जाने, अनजाने, मित्र और अमित्र सब के लिए है. यह केवल सामान्य प्रेम नहीं है. यह तो अति पवित्र, निश्छल, नि:स्वार्थ प्रेम भावना है. मित्रता जहाँ प्रेम और स्वार्थ से पूरित होती है वहीं मैत्री के मूल में परार्थ और लोककल्याण रहता है.
भगवान का दुर्गम जंगलों एवं पहाड़ों में सर्वत्र निर्भय विचरण मैत्री से ही संभव हुआ. विशेष आभामय शांत चेहरा और सदा प्रसन्न-चित्त मैत्री की निशानी है. आओ आज विभिन्न प्रकार के संकीर्ण भेदभावों को जन्म देने वाले दुष्टचित्त जनों के मध्य भारत के उन शाश्वत मूल्यों विशेषकर मैत्री का प्रसार-प्रचार करें और स्वयं भी उसे धारण करें.