सवाल: भिक्षु संघ का बौद्ध धम्म में काफी महत्व हैं. भिक्षु और भिक्षुणी संघ किसलिए होता हैं और उनका कार्य क्या हैं?
जवाब: बुद्ध ने भिक्षु संघ और भिक्षुणी संघ इसलिए निर्माण किए ताकि धम्म आचरण की सुविधा हो. श्रावकों से उन्हे जरूरत की चीजें जैसे भोजन, घर, कपडा और दवाईयाँ आदि मिलती हैं – ताकि वे धम्माचरण और धम्माभ्यास कर सके. अनुशासनपूर्ण और सादगी का जीवन उन्हे ध्यान तथा आतंरिक शांति पाने में मदद देता हैं. इसके बदले में उन्होने धम्मोपदेश देकर समाज के सामने एक आदर्श बौद्ध के रूप में स्वयं को रखना चाहिए. आजकल भिक्षु/भिक्षुणी वास्तव में बुद्ध की अपेक्षा से कुछ ज्यादा; जैसे स्कूली शिक्षक, समाजसुधारक, कलाकार, चिकित्सक और तो और राजनेता तक की सेवाएं देते हैं. कुछ लोग मानते हैं कि बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए कोई भी सेवा की भूमिका निभानी उचित हैं. पर कुछ लोग मानते हैं कि भिक्षु/भिक्षुणी इससे सांसारिक झंझटों में पडते हैं और धम्म आचरण का मूल उद्देश्य भूल जाते हैं.
सवाल: कौन लोग भिक्षु/भिक्षुणी बनते हैं?
जवाब: अधिकतर लोगों को कई बातें; जैसे परिवार, व्यवसाय, राजनीति, शौक या धम्म आदि में रूस होता हैं. पर इनमे कुछ बातें; जैसे परिवार या व्यवसाय प्राथमिक और अन्य दुय्यम होते हैं. पर जब बौद्ध धम्म किसी व्यक्ति के जीवन में प्राथमिक और बाकि सारी बाते गौण होती हैं तब व्यक्ति की भिक्षु बनने की संभावना होती हैं.
सवाल: क्या बुद्धत्व प्राप्ति के लिए भिक्षु होना आवश्यक हैं?
जवाब: कदापि नहीं. बुद्ध के कुछ अग्रणी शिष्य; संसारी स्त्रियाँ और पुरुष रहे हैं. कुछ तो भिक्षुओं तक शिक्षा से सकते थे. बौद्ध धम्म में साधक की प्रज्ञा सबसे महत्वपूर्ण हैं न की वे चीवर या नीली जींस पहनते हैं, विहार या घर में रहते हैं. किसी को विहार ज्यादा ठीक लगता हो या किसी को घर. हर एक व्यक्ति भिन्न हैं.
सवाल: बौद्ध भिक्षु/भिक्षुणी चीवर क्यों पहनते हैं?
जवाब: प्राचीन भारत में लोग वृक्षों की पतियों को देखकर कह सकते थे की वे कब झड जाएंगे, क्योंकि वे हरे, केसरी या पीले होते थे. तो भारत में पिला रंग त्याग का प्रतीक हुआ. भिक्षु/भिक्षुणी के चीवर इसलिए पीले हैं ताकि त्याग की, अनाशक्ति की स्मृति बनी रहें.
सवाल: भिक्षु/भिक्षुणी के सिर मुंडाने का क्या मतलब होता हैं?
जवाब: साधारणत: हमें स्वयं से काफी लगाव होता हैं, खासतौर पर बालों से. स्त्रियाँ अच्छे बालों को काफी महत्व देती हैं और पुरुष बाल झडने के प्रति सावधान होते हैं. बालों के संवारने में काफी समय बर्बाद होता हैं. मुंडन करने से भिक्षु/भिक्षुणी; साधना को अधिक समय दे पाते हैं. मुंडन किया हुआ सिर इस बात का प्रतीक भी हैं कि अंदरूनी बदलाव बाहरी रूप से ज्यादा जरूरी हैं.
सवाल: भिक्षु होना अच्छा हैं पर सभी अगर भिक्षु बने तब क्या होगा?
जवाब: ऐसा हर कार्य के बारे में पूछा जा सकता हैं. ‘कि हर कोई दंत चिकित्सक बनेगा तब क्या होगा? तब कोई शिक्षक, रसोईया, रिक्शा चालक नहीं होगा.’ ‘शिक्षक होना अच्छा हैं पर अगर सभी शिक्षक होने लगे तब क्या होगा? तब कोई दंत चिकित्सक इत्यादि नहीं होगा.’ बुद्ध ने कभी नहीं कहां की सभी भिक्षु/भिक्षुणी बने और यह कभी होगा भी नहीं. लेकिन,ऐसे लोग हमेशा रहेंगे जो सादगी और त्याग के जीवन को और बुद्ध की शिक्षा को सबसे अधिक प्राथमिकता देंगे. तब दंत चिकित्सक और शिक्षक की तरह विशिष्ट ज्ञान या कौशल से भरे होंगे जिसका उनके समूह में उपयोग होगा.
सवाल: यह उनके लिए ठीक होगा जो धम्म देसना देते हैं, किताबे छपवाते या सामाजिक कार्य करते हैं. पर उनके बारे में क्या जो सिर्फ ध्यान ही करते हैं. वे समाज के किस काम के?
जवाब: आप ध्यान करने वाले भिक्षु की तुलना किसी अनुसंधानकर्ता से कर सकते हैं. जबकि अनुसंधानकर्ता अपनी प्रयोगशाला में कार्यरत हैं, समाज उने यह समझकर मदद देता हैं कि आगे वे कोई समाजोपयोगी खोज करेंगे, जो सबके काम की होगी. इसी तरह समाज भिक्षुओं को मदद देता हैं (उनकी जरूरते बहुत कम हैं) यह जानकर की आगे की वे प्रज्ञा और अंतर्दृष्टि प्राप्त करेंगे जो सबके हित में होगी. पर इसके पहले भी वे लाभकारी होते हैं. कई आधुनिक सभ्यताओं में अधिक संपति, उपभोगवाद को आदर्श माना जाता हैं. भिक्षु जीवन हमें, संतुष्ति के लिए अमीरी जरूरी नहीं ऐसा आदर्श सिखाता हैं? हमे दिखता हैं की सादगी का जीवन सुंदर हैं.
सवाल: मैंने सुना हैं कि अब बौद्ध भिक्षुणी नहीं होती हैं. क्या यह सच हैं?
जवाब: बुद्ध ने अपने जीवनकाल में भिक्षुणी संघ का निर्माण किया था. भिक्षुणियों ने 500-600 सालों तक बौद्ध धर्म के प्रचार और प्रसार में बहुत काम किया था. कारण साफ नहीं; पर भिक्षुणी संघ को भिक्षु की तरह मदद और प्रतिष्ठा नहीं मिलि और भारत, श्रीलंका, तिब्बत व दक्षिण-पूर्वी एशिक्या में भिक्षुणी संघ खत्म हुआ. आज श्रीलंका में भिक्षुणी संघ के पुनर्स्थापना के लिए कोशिश की जा रही हैं. जबकि कुछ पंरपरावादी इसमें ज्यादा उतसुक नहीं हैं. पर बुद्ध की मूल धारणा के अनुसार, स्त्रियाँ और पुरुषों दोनों को सादगी के जीवन से लाभ लेन का मौका हैं.