“आर्य भारत के बाहर से आए”, यह वाक्य तकनीकी तौर पर त्रुटिपूर्ण है. बल्कि सही कथन यह होगा: “जो भारत के बाहर से आए उन्होंने स्वयं के लिए आर्य सम्बोधन प्रयोग करना शुरू किया और क्रमशः लोग उन्हें आर्य कहने लगे.”
इस स्थापना के लिए कुछ तथ्यों पर ध्यान देना होगा.
भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट प्रथम धम्मोपदेश में चार “आर्य” सत्य उद्घोषित किये गये हैं. बुद्धत्व के आठ अंगों को “आर्य” अष्टांग मार्ग कहा गया है. “आर्य” विनय, “आर्य” मौन, “आर्य” संघ इत्यादि शब्दों का भगवान के उपदेशों में बार-बार प्रयोग किया गया है. मूलतः पालि भाषा में ‘अरिय’ अथवा ‘अरियो’ शब्द है जिसे संस्कृत में “आर्य ” उच्चारित किया गया, जैसे अरिय सच्चानि अर्थात आर्य सत्य; अरियोअट्ठंगिकोमग्गो अर्थात आर्य अष्टांग मार्ग, आदि.
“संस्कृत” शब्द का अर्थ ही होता है- संस्कारित किया हुआ. पालि और प्राकृत भाषा को कथित रूप से संस्कारित करके जिस नयी भाषा ने जन्म लिया उसका ही नाम संस्कृत है.
भाषा विज्ञानी जानते हैं कि प्रत्येक भाषा भाषा से पहले बोली होती है. व्याकरणबद्ध होने के बाद बोली भाषा बनती है. भगवान बुद्ध के समय तक यह एक बोली थी जिसे छांदस कहा जाता था. वेद भगवान के समय भी अस्तित्व में थे मगर सिर्फ तीन वेद अस्तित्वगत थे क्योंकि पालि ग्रंथों में तिवेदपारगू अर्थात तीन वेदों में पारंगत, यह शब्द कई-कई बार प्रयुक्त हुआ है.
एक माणवक भगवान से निवेदन करता है कि वह बुद्ध वचनों को छांदस में रूपांतरित करना चाहता है जिसे भगवान ने इंकार कर दिया था. यह प्रसंग विनयपिटक में है. कालान्तर में आचार्य पाणिनि ने छांदस को व्याकरणबद्ध करके जिस भाषा को जन्म दिया उसका ही नाम संस्कृत है. वेदों की छांदस के लिए सायण भाष्य एवं व्याकरण का सहारा लिया जाता है न कि पाणिनि व्याकरण को.
इसी क्रम में पालि व प्राकृत शब्दों को कथित तौर पर संस्कारित करके धम्म को धर्म, कम्म को कर्म, चक्क को चक्र, अरिय को आर्य, दिट्ठि को दृष्टि, सब्ब को सर्व, सम्मा को सम्यक, पवत्तन को प्रवर्तन, समञ्ञ को श्रमण, पिय को प्रिय इत्यादि बनाया गया.
रोचक तथ्य यह है कि संस्कृत भाषा ने अपने उदयकाल में सर्वप्रथम बौद्ध ग्रंथों को ही संस्कृत में रूपांतरित किया. इसी से महायान का जन्म हुआ. सारे महायानी ग्रन्थ संस्कृत में हैं. संस्कृत के महाकाव्य इत्यादि बाद की रचनाएँ हैं. यहाँ तक कि संस्कृत साहित्य का मूल स्रोत बौद्ध ग्रन्थ हैं. अधिकांश मिथकीय कथानक जातक कथाओं से लिए गये हैं. यहाँ तक कि रामायण के कथानक का मूल स्रोत दशरथ जातक एवं महाभारत का स्रोत युधिष्ठिर जातक है. यक्षप्रश्न प्रसंग पूरा का पूरा खुद्दकनिकाय के धम्मपद अट्ठकथा का अनुवाद है. देव, इन्द्र, देवी, विश्वकर्मा, पूर्व जन्म-पुनर्जन्म, भाग्य, कर्म-फल, ध्यान-साधना, ब्रम्हा इत्यादि समस्त धारणाएं मूलतः पालि ग्रंथों में हैं जिनका संस्कृत ग्रंथों में उपयोग करके नये मिथकीय कथानकों की रचना की गयी.
इसी नाते पालि व संस्कृत ग्रंथों में समान पात्रों व शब्दों को देख कर विद्वज्जन प्रायः भ्रमित भी हो जाते हैं, वे निर्णय नहीं कर पाते कि किसने किसकी नकल की है. इसी भ्रम का लाभ- जिसे अंग्रेजी में ‘बैनिफिट्स आफ डाउट’ कहते हैं- संस्कृत साहित्य उठा ले जाते हैं. महापण्डित राहुल सांकृत्यायन और डॉ. भदन्त आनन्द कौस्ल्यायन ने अपने ग्रंथों में संदर्भ सहित इस पर विस्तार से लिखा है. लेकिन संस्कृत ग्रंथों में वर्णव्यवस्था का समावेश संस्कृत साहित्यकारों की अपनी मौलिक रचना है, इसका आधार पालि ग्रंथ नहीं हैं.
सच यह है कि पहले से प्रचलित कथानकों को मिटाना मुश्किल है, उनकी लोकस्वीकार्यता होती है, लेकिन प्रचलित कथानकों का स्वरूप परिवर्तन आसान है. जातक कथाएँ, बुद्ध कथानक पहले से प्रचलन में थे. लोग उन कथाओं को सुनते थे. संस्कृत साहित्यकारों ने उनको अपने दर्शन के अनुसार प्रस्तुत किया. उनमें वर्णव्यवस्था के क्षेपक जोड़े. यहाँ तक कि ऋग्वेद का दशम मण्डल भी क्षेपक है जहाँ से कथित ब्रम्ह पुरुष के शरीर से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्णों की उत्पत्ति की स्थापना की गयी है. आज जो संस्कृत का मिथक साहित्य प्रचलन में है मौलिक रूप से वह बौद्ध साहित्य का विकृत रूप है. यदि इन ग्रंथों से वर्णव्यवस्था के अंशों को हटा दिया जाए तो जो शेष बचेगा वह सिर्फ बुद्ध धम्म होगा. इस नज़रिये से भी संस्कृत साहित्य की विवेचना की आवश्यकता है.
बुद्ध धम्म में “अरिय” अर्थात “आर्य” शब्द श्रेष्ठ, अटल, उत्कृष्ट, सर्वोच्च इत्यादि के अर्थ में प्रयोग किया गया है. अंग्रेजी में इसे ही “नोबल” कहा गया है, चार आर्य सत्य अर्थात फोर नोबल ट्रुथ.
भारत में बाहर से आए लोगों ने इस शब्द की महिमा को देखते हुए इसे स्वयं के लिए प्रयोग करना शुरू कर दिया. यह सहज मनोविज्ञान है कि हीनताग्रसित समुदाय अथवा श्रद्धालु मन श्रेष्ठ लोगों की नकल करता है जैसे बहुत-सी बातों में गुलाम भारत के नागरिकों ने अंग्रेजों की नकल की है- खानपान, चाल चलन, पहनावा इत्यादि में. छात्र अपने अध्यापकों की नकल करते हैं. ऐसे ही खानाबदोश विदेशियों ने “आर्य” शब्द आत्मसात करते हुए स्वयं के लिए “आर्य पुत्र”, “आर्य पुत्री” सम्बोधन तथा अपने प्रवास के क्षेत्र को “आर्यावर्त” प्रयोग करना शुरू किया.
ज्यादातर “स्थापित” मान्यताएं मिथ्या हैं, न केवल इतिहास में बल्कि साहित्य और विज्ञान में भी. लेकिन स्थापित मान्यताओं से हट कर कहने-सुनने पर असहजता के भय से लोग प्रायः स्वीकारने से कतराते हैं.
जैसे “हिन्दू” धर्म एक स्थापित सम्बोधन प्रचलन में है जबकि कथित हिन्दू धर्मग्रंथों में “हिन्दू” शब्द है ही नहीं. यह शब्द मूलतः फारसी भाषा का है जिसके अर्थ बड़े नकारात्मक हैं जैसे चोर, डाकू, काला, गुलाम, काफिर इत्यादि. भारत में ही प्रकाशित फ़ारसी के शब्दकोश यथा “जवाहर-उल-लुगत”, “लुगत-ए-किशोरी” तथा हिन्दी संस्थान उत्तर प्रदेश से प्रकाशित डा. राजबली पाण्डेय द्वारा सम्पादित “हिन्दू धर्म कोश” इन समस्त ग्रंथों में हिन्दू शब्द के वही अर्थ दिये हैं- चोर, डाकू, काला, गुलाम, काफिर इत्यादि. “हिन्दू” शब्द की “सिन्धु” शब्द से व्युत्पत्ति भी एक मिथ्या स्थापना है. मेरा मकसद किसी की आस्थाओं पर प्रहार करना नहीं है, सिर्फ शब्द विवेचना कर रहा हूँ और तथ्य प्रस्तुत कर रहा हूँ.
“आर्य” शब्द के साथ भी यही हाल है. यह शब्द शुद्ध रूप से बुद्ध धम्म का है जिसे विदेशिओं ने आत्मसात किया.
यह सुनना बड़ा रोचक होगा कि सम्बोधि लाभ के उपरान्त भगवान को शहद का मिष्ठान्न अर्पित करने करने वाले दो श्रद्धालु-तपस्सु और भल्लिक-कम्बोज के व्यापारी थे. कम्बोज ही आज का ईरान है. ईरान आर्यान का अपभ्रंश रूप है. आज भी ईरान का सर्वोच्च राजकीय सम्मान आर्यमेहर है और ईरान का प्रसिद्ध विश्वविद्यालय आर्यमेहर युनिवर्सिटी है. भगवान ने उन श्रद्धालु बन्धुओं को उपहार में अपनी जटाओं से निकाल कर आठ बाल दिये थे. दोनों व्यापारी बन्धुओं ने वह पावन उपहार ब्रम्हदेश के सम्राट को दिया जिस पर यंगाॅन का प्रसिद्ध स्तूप बना. यह धरती का एकमात्र स्तूप है जो भगवान बुद्ध के रहते-रहते बना, शेष सभी स्तूप भगवान के महापरिनिर्वाण के उपरान्त बने हैं.
कहने का तात्पर्य यह कि भगवान बुद्ध के समय से ही दूर देश के लोगों के इस देश में आने के प्रमाण मिलते हैं. कालान्तर में व्यापारी भल्लिक ने भगवान से दीक्खा (दीक्षा) ले कर बुद्ध धम्म स्वीकार लिया था. द्वीशरण की दीक्खा का यह पहला उदाहरण है. द्वीशरण अर्थात सिर्फ दो शरण- बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि- क्योंकि जब उन श्रद्धालु व्यापारियों ने भगवान के दर्शन किये तब संघ बना ही नहीं था. पालि तिपिटक (पालि त्रिपिटक) में बाकायदा एक सुत्त भी है- भल्लिक सुत्त, जिसमें व्यापारी भल्लिक के बुद्ध भक्त बन जाने का विवरण है.
भारत देश अपनी समृद्धि के कारण हमेशा से दुनिया के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है. समृद्धि यानी सब प्रकार की समृद्धि, न केवल आर्थिक समृद्धि, प्राकृतिक समृद्धि, बौद्धिक, ज्ञान-विज्ञान की समृद्धि बल्कि आध्यात्मिक समृद्धि भी. भारत की समृद्धि ने हमेशा से दुनिया को आकर्षित किया. आज भी भारत का अवचेतन जिस “सोने की चिड़िया” काल का गर्व करता है वह बुद्ध का एवं कालान्तर का बौद्धकाल ही है. भारत में एक अनूठी समृद्धि और भी रही है- आत्मसातीकरण की समृद्धि. इस देश में खानाबदोश भी आए, व्यापारी भी आए, लुटेरे भी आए, अध्यात्म पिपासु भी आए, यात्री-पर्यटक भी आए, इसने सबको आत्मसात कर लिया.
भारत के बाहर से आए अधिकांश लोगों ने इस देश की मूल मैत्रीपूर्ण संस्कृति को, अमन और मोहब्बत की तहजीब को, प्यार से आत्मसात कर लिया तो कुछ लोगों ने उसके साथ ‘छेड़छाड़’ भी की. भारत की सामाजिक समस्याओं का मुख्य कारण यही ‘छेड़छाड़’ है.
सर्वाधिक रोचक बात यह है कि जिन्हें कथित तौर पर आज “आर्य” कहा जा रहा है उन्होंने इस देश की संस्कृति को सर्वाधिक आत्मसात किया है, इस कद्र कि, वे इस पर एकाधिकार का दावा तो दूर अपने को इसका प्रणेता सिद्ध करने की सीमा तक भी जाते हैं.
न केवल धर्म व संस्कृति बल्कि संसाधनों को भी उन्होंने आत्मसात कर लिया- उन्होंने भारत की नदियों-सागरों-पर्वतों-वनों को भी तीर्थ बना कर पूजनीय बना दिया. क्या गंगा, क्या यमुना, क्या गोदावरी, क्या कृष्णा, क्या रामेश्वरम, क्या कन्याकुमारी, क्या हिमालय, क्या विन्धयाचल, क्या वृन्दावन, क्या दण्डकारण्य सब पर उनकी दावेदारी, सब पर उनका अधिकार है.
इन कथित “आर्यों” ने पूरी की पूरी एक ऋषि संस्कृति को जन्म दिया, उसका महिमामण्डन किया. इस पूरे महिमामण्डन से सिर्फ “वर्णव्यवस्था” की “छेड़छाड़” को हटा दीजिए तो भारत बुद्ध की मैत्री के सिवा कुछ नहीं है, विश्व की आध्यात्मिक धुरी के सिवा कुछ नहीं है.
इन कथित “आर्यों” ने ही बुद्ध का धम्म पूरी दुनिया में फैलाया. इतिहास उठा कर देखिये तो कौण्डिण्य, वप्प, भद्दिय, अस्सजी, महानाम, सारिपुत्र, मोदगल्यायन, महाकाश्यप, महाकात्यायन से लेकर अश्वघोष, वसुबन्धु, बोधिधम्म, पद्मसंभव, विनीतारुचि, असंग, नागार्जुन और आधुनिक युग में आचार्य धम्मानन्द कोसाम्बी, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय तक सबके सब कथित “आर्य” ही तो हैं.
सवाल किसी को देशी-विदेशी सिद्ध करना भर नहीं है बस इतनी-सी बात है कि जिसे अमन और मोहब्बत स्वीकार है, जिसे बुद्ध की मैत्री स्वीकार है, वह देशी हैं बाकी सब विदेशी हैं, क्योंकि बुद्ध की मैत्री एकमात्र देशी है, नफ़रत विदेशी है, घृणा परदेसी है. मैं कोई काव्यात्मक अलंकरण नहीं कर रहा हूँ बल्कि सच में पांच हजार साल के ज्ञात-अज्ञात इतिहास-प्राइतिहास के आलोक में कह रहा हूँ कि आज तक भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया, किसी को जबरन अपने अधीन नहीं किया लेकिन भगवान बुद्ध की मैत्री से सम्पूर्ण एशिया को जीत लिया, बुद्ध का अनुयायी बना दिया.
यूनान के सम्राट कनिष्क और मीनाण्डर ने भारत को जीता लेकिन बुद्ध के धम्म ने इन सम्राटों को जीत लिया. वे भारत के हो कर रह गये. कनिष्क ने चौथी संगीति आयोजित की और मीनाण्डर मिलिन्द बन गया. भारत आज भी दुनिया में पूजनीय है तो बुद्ध के कारण पूजनीय है और अगर निन्दनीय तो उसी ‘छेड़छाड़’ के कारण निन्दनीय है जिसके लिए देश का बुद्धानुयायी न केवल चिंतित है बल्कि समता-स्वतंत्रता-बन्धुता-न्याय की स्थापना के लिए सतत प्रयासरत भी है. जो इस अभियान में साथ हैं वे सब सच में भारतीय हैं. जिन्हें ये दर्शन स्वीकार नहीं बस वो ही विदेशी हैं. भगवान बुद्ध के वचन हैं- मैत्री सम्पूर्ण धम्म है.
(लेखक: राजेश चंद्रा जी; इस लेख में प्रस्तुत विचार स्वयं लेखक के हैं)