‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ बाबासाहेब डॉ. अम्बेड़कर का कालजयी शोध ग्रंथ है, जिसकी परम्परागत बौद्ध देशों में आलोचना भी हुई थी, किन्तु चहुं ओर अभिनन्दन भी हुआ था. चूंकि यह शोध ग्रंथ है और बुद्ध और उनके धम्म के नए-नए आयाम खोलता है, सद्धम्म को मानवता के लिए अनिवार्य सिद्ध करता है, अतयव जो लोग भाग्य, भगवान और कर्म को पुनर्जन्म से जोड़कर देखने के अभ्यस्त है, ऐसे परजीवियों को भला यह कैसे स्वीकार्य हो सकता था?
‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ को बाबासाहेब डॉ. अम्बेड़कर ने पालि और अंग्रेजी भाषा के अनेकों ग्रंथ अध्ययन कर लिखा था. बाबासाहेब पालि भाषा के अनुत्तर विद्वान थे. वृहत् ‘पालि शब्द कोस’ इसका गवाह है. और यही कारण है कि पालि और संस्कृत के स्वनामधन्य पंडितों को धता बता कर दुनिया को वे दिखा सके कि ‘सद्धम्म’ कैसा है. बुद्ध की देसना में क्या है, क्या नहीं है. यहां तक कि उन्होंने कौन-सा प्रसंग कहां से लिया गया है, बतलाना भी गैर जरूरी समझा. यह तो भदन्त आनन्द कौसल्यायन थे जिन्होंने बाद के अपने अनुवाद में इस पर काम किया. सवाल है कि क्या इसी तरह के शोध-ग्रंथ और नहीं आना चाहिए?
इस समय ति-पिटकाधीन अनेकों ग्रंथ हिंन्दी और अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं, तथापि अनेकों ग्रंथ आज भी पालि अथवा पालि मिश्रित संस्कृत में अटके पड़े हैं. इन्हें हिन्दी में अनुदित करने की महत्ती आवश्यकता है. बिना पालि जाने यह किस तरह संभव है? अगर हम अपने बच्चों को पालि पढ़ाएंगे नहीं तो यह काम कौन करेगा? आखिर, प्रसिद्ध ऐतिहासिक बौद्ध-ग्रंथ ‘महावंस’ के अनुवादक स्वामी द्वारकादास शास्त्री जैसे ब्राह्मण विद्वानों के भरोसे हम कब तक बैठे रहेंगे? विश्वविद्यालयों में, नाम के लिए ही सही, स्थापित बौद्ध विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर रमाशंकर त्रिपाठी जैसे संस्कृत प्रोफेसर कब तक बैठे रहेंगे? हमें जातीय तौर इन ब्राह्मण विद्वानों से कोई शिकायत नहीं है, किन्तु बौद्ध विभागाध्यक्ष की कुर्सी पर पालि-भाषा का प्रोफेसर क्यों नहीं होना चाहिए?
जहां तक हमें ज्ञात है, पालि भाषा के प्रोफेसर डॉ. विमलकीर्ति हैं, जिन्होंने ‘सद्धम्मपुण्डरिक’ जैसे कई महत्वपूर्ण बौद्ध-ग्रंथों का अनुवाद किया है. किन्तु देश में ऐसे कितने पालि के प्रोफेसर बौद्ध-ग्रंथों पर शोध कर रहे हैं और करा रहे हैं? प्रथम तो स्कूल-कॉलेजों में पालि पढ़ाई नहीं जाती. और अगर कोई जैसे- तैसे पढ़ ले तो शोध के लिए उसे कोई गॉइड नहीं मिलता. उसे कहा जाता है कि बेहतर है वह संस्कृत में पी. एच. डी. कर लें! संस्कृत में नहीं तो नागरी में गीता अथवा मानस पर कर लें?
बुद्ध, उनका धम्म और पालि के प्रति वैमनश्यता के चलते स्कूल और कॉलेजों में पालि पढ़ायी नहीं जाती. संस्कृत को बिना जनता की मांग के स्कूल और कॉलेजों में जबरन पढ़ाया जाता है. महानगरों से लेकर दूरस्थ स्थानों में महाविद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय खोले जाते हैं. टीवी से लेकर प्रचार मिडिया तक इस मद में अरबों रूपया खर्च किया जाता है. किन्तु पालि-ग्रंथ, जो एकमात्र स्रोत है, भारत के इतिहास को बतलाने वाले, के अनुवाद और प्रसार पर घोर उदासीनता बरती जाती है. इसके विपरित, यूपीएसी में किसी तरह चल रही ‘पालि भाषा’ को हटा दिया जाता है!
सवाल है, पालि के प्रति सरकार के भेदभाव पूर्ण रवैये के चलते हमारे बच्चों को पालि कौन पढ़ाएगा? रोजी-रोटी की समस्या से हमारे उन लोगों को, जो इस दिशा में कुछ कर सकते हैं, फुर्सत नहीं है. जो रोजी-रोटी से ऊबर चुके हैं, उनका मुंह सरकार ने विभिन्न सुविधाएं देकर बंद करा दिया है. सवाल है, हमारे युवा पालि पढ़ेंगे कैसे? उन पर शोध करेंगे कैसे?
हम बाबासाहेब को नमन करते हैं, उनके कृत्यों को स्मरण करते हैं, किन्तु ‘बुद्धा एण्ड धम्मा’ जैसे शोध ग्रंथ प्रकाशित हो, ति-पिटक ग्रंथों के नए-नए आयाम खुले, इस दिशा में हम मौन है! हम तो हम, हमारे भिक्खु-गण भी विनय पिटक में दिए गए दैनिक जीवनचर्या के निर्देशों के आगे कुछ नहीं देखते. क्या बुद्ध की देसना ति-रतन वन्दन और पंचशील तक ही सीमित है ? हम यह क्यों नहीं देखते कि अश्वघोष, नागसेन, नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु, बुद्धघोष, कुमारजीव, दिग्गनाग, धम्मकीर्ति, शांतिदेव जैसे दार्शनिक परवर्तितकाल में बौद्ध दर्शन का विकास कर दर्शन-शास्त्र का कितना बड़ा किला बाद की सदियों में खड़ा कर सके? अगर तक्षसीला, नालन्दा, ओदन्तपुरी, वल्लभि, विक्रमसीला, जगद्दल जैसे विश्व प्रसिद्ध बौद्ध विश्वविद्यालय उस काल में नहीं होते तो क्या ऐसा संभव था?
अठारवीं और उन्नसीसवीं सदी में पूर्व और पश्चिमी देशो में जिस विज्ञानवादी दर्शन का विकास हुआ, उस पर बौद्ध दार्शनिक असंग, वसुबन्धु और दिग्गनाग ने चौथी-पांचवी सदी में जबरदस्त काम किया था. सनद रहे, दूसरी सदी के दौर में ही बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के शून्यवाद ने ‘पदार्थ’ को पहली बार परिभाषित किया. क्या यह विश्व को बौद्ध दार्शनिकों की अभिनव देन नहीं है? यही कारण है कि पश्चिम के दार्शनिकों ने छटवीं सदी के बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति को ‘कान्ट’ की संज्ञा दी. आखिर, आज ऐसे बौद्ध दार्शनिक पैदा क्यों नहीं हो रहे हैं?
चौथी सदी प्रारम्भ में बुद्धघोष ने सिंहलद्वीप जाकर पालि-ग्रंथों पर जो अट्ठकथाएं लिखी, उन अट्ठकथाओं पर अट्ठकथाएं अब और क्यों नहीं लिखी जा रही है? अगर मानस पर हजार-हजार शोध ग्रंथ लिखे जा रहें हैं तो पालि-ग्रंथ क्यों अछूत हैं?
स्पष्ट, है, पालि भाषा के पठन-पाठन की महत्ती आवश्यकता है. ति-पिटकाधीन ग्रंथों पर कितना ही शोध होना बाकि है. ललितविस्तर जैसे आज भी कई ग्रंथ हैं, जिनके लेखकों का पता नहीं हैं. इसकी खोज कौन करेगा? बिना पालि पढ़े क्या यह संभव है?
भारत सरकार के अनुसार पालि ‘मृत-भाषा है! जबकि संस्कृत और हिन्दी की तरह इसकी ‘नागरी लिपि’ ही है. सवाल है, कि आखिर इसे जीवित कौन करेगा? आज, हमारे आदिवासी भाइयों ने गोन्डी भाषा को पुनः जीवित कर ऐतिहासिक कार्य कर दिखाया है. एक अच्छी बात उनके साथ यह थी कि वे अपने घरों में इसे बोल रहे थे. उन्होंने इसे अपनी ‘भाषा-संस्कृति’ के रूप में सहज कर रखा था. दूसरी ओर, पालि जो हमारी भाषा-संस्कृति’ है, धम्म-विरासत है, को हमने ‘वैदिक-संस्कृति’ के झांसे में आकर विस्मृत कर दिया.
इसी प्रकार हिमालयीन अंचल के क्षेत्र तिब्बत, भूटान, सिक्किम हो, अथवा आसाम, लद्दाख, अरुणाचल, यद्यपि वहां भिन्न-भिन्न बोलियां बोली जाती हैं किन्तु लिपि, ध्वनि, अर्थ में उनकी ‘धर्म-भाषा’ एक है और वह है- भोट भाषा. परम्परागत बौद्ध आज भी ‘भोट भाषा’ बोलते हैं. इसकी अपनी ‘भोट लिपि’ है. ‘भोट’ सब्द ‘बौद्ध’ अथवा ‘बोध’ का अपभ्रंश है. यह धर्म-भाषा उनके जन्म से लेकर विवाह और मृत्यु जैसे संस्कारों की भाषा है. यह संस्कार लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक प्रायः लामा कराते हैं. लामा बौद्ध भिक्खु है.
स्मरण रहे, भोट भाषा में बौद्ध साहित्य का विपुल भंडार है. ‘कंजूर-तंजूर’ तिब्बति ति-पिटक है. कंजूर में 1108 और तंजूर में 3458 ग्रंथ संग्रहित हैं. भला हो, राहुल सांस्कृत्यायन का जिन्होंने कितनी ही पोथियां जिसमें अथाह बौद्ध साहित्य भरा पड़ा है, तिब्बत के बौद्ध विहारों (गोनपाओं) के तहखानों की कई-कई महिनों खाक छानकर बुद्ध के जन्म स्थान भारत में लाकर भारत सहित विश्व के बौद्ध अध्ययताओं को उपकृत किया. किन्तु भोट भाषा और लिपि, जो हिमालयीन एक बड़े भू-भाग में बोली और लिखी जाती है, के प्रति भारत सरकार का क्या रवैया है? कितनी ही भाषाएं जिन्हें कोई बोलता तक नहीं, सरकार ने संविधान की ‘भाषा-अनुसूची’ में रखकर उनका संवर्द्धन किया है. किन्तु भोट भाषा के प्रति सरकार का रवैया उदासीन ही नहीं नकारात्मक भी है(स्रोतः हिमालय की धर्म भाषा, बौद्ध निबन्धावलीः लेखक कृष्णनाथ).
पालि भाषा का अथाह भण्डार है. घरों और विहारों में हम इसका पाठ भी करते हैं. आवश्यकता है, इसके दैनदिनी में व्यवहार करने की. यह धम्म-सेवियों के रुचि और उत्साह से सहज ही किया जा सकता है. प्रोफेसर प्रफुल्ल गढ़पाल जैसे धम्म-सेवी इस दिशा में कार्यरत भी हैं. किन्तु इसको गति जन-सहयोग के बिना नहीं मिल सकती. अगर हम अपने-अपने घरों की दीवार पर लिख लें कि पालि हमें पढ़ना है, बच्चों को पढ़ाना है, तो यह कतई नामुमकीन नहीं है.
कुछ हमारे भाई सवाल करते हैं कि अंग्रेजी आदि विदेशी भाषा न पढ़कर पालि क्यों पढ़े, क्यों हम वक्त जाया करें? इसमें रोजगार भी नहीं है? इसके उत्तर में हम यही कहेंगे कि भविष्य में इस दिशा में रोजगार के अवसर भी खुल सकते हैं.
हमारे कई लोगों के पास उनके अपने स्कूल और महाविद्यालय हैं. अगर अतिरिक्त भाषा के तौर पर वे अपने स्कूलों में पालि पढ़ाना प्रारम्भ कर दें तो? हम देखते हैं कि देश के कई प्रांतों में मानस और गीता को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है. कॉलेजों में पढ़ाया जा रहा है. योग को पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया है. और आप तो पालि को अतिरिक्त भाषा के रूप में पढ़ा रहे है. अंग्रेजी में तो रोमन लिपि होती है. यहां, पालि पढाने में बच्चें पहले से नागरी लिपि से वाकिफ होते हैं. सोचिए, इस प्रकार अगर स्वयं-सेवी की तरह हम अपने स्कूल और कॉलेजों में पालि पढ़ाना प्रारम्भ करें तो, निश्चित रूप से रोजगार के अवसर आपके दरवाजे पर होंगे.
विदित हो कि महाराष्ट्र के कुछ विद्यालय-महाविद्यालयों में पालि पढ़ाया जा रहा है. यह कोर्स महाराष्ट्र राज्य माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षण मंडल द्वारा मान्यता प्राप्त है. उल्लासनगर में संचालित ‘तक्षसीला महाविद्यालय’ जैसे अनेकों सिक्खण-संस्थानों में पालि भाषा के रूप में पढ़ायी जाती है. हमें बतलाया गया है कि हिन्दी और पालि का 50-50 प्रतिशत वाला संयुक्त पेपर होता है.
इधर, वर्तमान दिल्ली सरकार ने पालि विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रति रुचि दिखाई है. महाराष्ट्र में पालि विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए वहां की जनता ने बौद्ध भिक्खुओं के साथ आन्दोलन छेड़ रखा है. सोचिए, ये प्रयास अगर कारगर होते हैं, तो क्या रोजगार के अवसर नहीं खुलेंगे?
और फिर, आप इतने ‘निकट दृष्टि-दोष’ से बाधित कैसे हो सकते हैं? हमारे आदिवासी भाई हमारे लिए रोशनी है. हम अगर ‘अपना दीपक आप न बन सकें’ तो उनकी रोशनाई में अपना अक्स ढूंढ सकते हैं.