सवाल: अक्सर बौद्ध व्याख्यानों में प्रज्ञा और करुणा के बारे में सुनता हूँ! इसका क्या अर्थ हैं?
जवाब: कुछ धर्म की मान्यता हैं कि, करुणा या प्रेम (दोनों बहुत ही समान हैं) आध्यात्मिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग हैं; परंतु वे प्रज्ञा की तरफ ध्यान नही देते. इससे आप सह्रदय पर मुर्ख, दयालु पर नासमझ होते हैं. विज्ञान यह मानता हैं कि प्रज्ञा तह विकसित होती हैं, जब करुणा जैसी भावनाओं को हटाया जाये. परिणाम यह हुआ की विज्ञान नतीजे पर केंद्रित रहा और भूल गया की उसका ध्येय मनुष्य की सेवा हैं न की नियंत्रण करना. अन्यथा कैसे वैज्ञानिक अपना कौशल्य अणुबम, जैविक हथिया आदि बनाने में लगाते? बौद्ध धम्म सिखाता हैं कि, एकक परिपूर्ण और संतुलित व्यक्ति बनने के लिए, आप को प्रज्ञा और करूणा दोनों को विकसित करनी चाहिए.
सवाल: बौद्ध धर्म के अनुसार प्रज्ञा क्या हैं?
जवाब: सभी घटनाओं को अनित्य, अनात्म और असमाधानकारक हैं ऐसे देखना सर्वश्रेष्ट हैं प्रज्ञा हैं. यह समझ पूर्णत: मुक्तिदाई हैं और निर्वाण की सुरक्षितता तथा सुख की तरफ ले जाती हैं. तथापि, बुद्ध ने इस तरह की प्रज्ञा के बारे में ज्यादा नहीं बताया. जो शिक्षा हमें दी हैं उसमें विश्वास रखना प्रज्ञा नहीं हैं. सच्ची प्रज्ञा हैं साफ और प्रत्यक्ष देखना. और इस स्तर पर प्रज्ञा का अर्थ हैं ग्रहणशील रहना न की बंदिस्त, औरों की सुनना, न की अपनी बात मनवाना, स्वयं के विरोधी मतों का परिक्षण करना न की उससे मुंह मोडना, तटस्थ रहना न की पूर्वाग्रह से दूषित होना और धीरज से निष्पति पर पहुँचना न की भावनिक होकर पहले सामने आये दृष्टिकोण को स्वीकार करना. हमारी धारणा के विपरीत बात प्रमाण से साबित होते देख अपनी दृष्टि बदलना, प्रज्ञा हैं. ज्यों व्यक्ति यह करता हैं वो निश्चित ज्ञानी हैं और निश्चित रूप से अंतिमत: सत्य तक पहुँचता हैं. जो आपको बताया गया उस पर विश्वास रखने का मार्ग सहज हैं. बौद्ध धर्म के मार्ग पर धैर्य, सहनशीलता, लचिलापन तथा बुद्धिमता आवश्यक होती हैं.
सवाल: मुझे लगता हैं बहुत कम लोग इसे कर सकते हैं. अगर कम लोग इसका आचरण कर सकते हैं तब बौद्ध धर्म में क्या सार हैं?
जवाब: ये सच हैं कि हर कोई बौद्ध धम्म के इसस सत्य को स्वीकारने के लिय तैयार नहीं हैं. पर अगर वर्तमान में कोई बुद्ध की शिक्षा समझने में सक्षम नही हैं तो वे अगले जन्म में सक्षम होंगे. पर कुछ लोग हैं, जो थोडी सही शिक्षा या प्रेरणा से उनकी समझ विकसित करने में सक्षम हैं. इसी कारण बौद्ध अपनी दृष्टि को औरों के साथ शांति और धीरज से बांटते हैं. बुद्ध ने अपनी करुणा से हमे यह शिक्षा दी हैं और हम भी औरों को करुणा से शिक्षा दे सकते हैं.
सवाल: बुद्ध धम्म में श्रद्धा क महत्व क्या हैं?
जवाब: कुछ धर्मों के अनुसार मनुष्य को श्रद्धा से मुक्ति मिलती हैं. तब वे धर्म शास्त्र में निर्देशित आदर्शों को मानते हैं, दैवी संकल्पना को मानते हैं, ईश्वर से नाता जोड उसे प्रसन्न करने से वो हमें मुक्त करता हैं ऐसा मानते हैं. बौद्ध धम्म में श्रद्धा अलग तरह से समझी जाती हैं. समझों कि मैं बीमार हूँ, मैंने दोस्त को बताया और वह मुझे उसके डॉक्टर के पास ले गया. मुझे नही मालूम की वो डॉक्टर अच्छा हैं या नही पर मैं दोस्त के सलाह के अनुसार डॉक्टर से समय लकर दवाखाने में गया. अस्पताल के वेटिंग हॉल के एक दीवार पर लगे प्रमाणपत्र में देखा कि डॉक्टर के प्रमाणपत्र स्थानिक युनिवर्सिटी के हैं और बाद में उच्चा शिक्षा के लिए लंदन गये. हो सकता हैं वे प्रमाणपत्र जाली हो परंतु मैंने विश्वास किया कि, वे वास्तविक हैं. मुझे विश्वास हैं कि, आरोग्य मंत्रालय और आरोग्य यत्रंणा उच्च शिक्षित डॉक्टर को ही सेवा देने के लिए प्रमाणित करते हैं. अंतिमत: मैं डॉक्टर तक जाता हूँ, मुझे वे ज्ञानी तथा प्रसन्नता से सेवा देने वाले लगे और दवा से मैं ठीक हो गया. शुरु में मुझे मालुम नही था कि डॉक्टर ठीक था या नहीं, पर अनुभव से मुझे विश्वास हुआ. बाद में जब मैं अगले दो बार बीमार हुआ तब उन से संपर्क किया और मुझे पता चला की वे डॉक्टर अच्छे हैं. अभी डॉक्टर में मुझे विश्वास नहीं हैं, अभी मैं जानता हूँ. अगर मित्र के कहने पर या प्रमाणपत्र के वास्तविकता पर या आरोग्य अधिकारी पर विश्वास न होता; तो मैं यह कभी नहीं जानता. तो बौद्ध धम्म श्रद्धा को ऐसे देखता हैं, संभावनाओं के प्रति खुला और प्रयोग करने को राजी. बुद्ध की शिक्षा में श्रद्धा, आपको आचरण के लिये प्रेरित करती हैं और परिणाम प्राप्त होने तक कार्य करती हैं. उसके पश्चात आपको श्रद्धा की जरूरत नही रहेगी, उसकी जगह ज्ञान होगा.
सवाल: बौद्ध धम्म के अनुसार करुणा क्या हैं?
जवाब: जिस तरह प्रज्ञा हमारी बौद्धिक समझ को समाहित करती हैं, उसी तरह करुणा हमारा भावनिक अंग दर्शाती हैं. प्रज्ञा की तरह करुणा एक विशेष मानवी गुण सदगुण हैं. COMPASSION यह शब्द दो लेटीन शब्दों से बना हैं, COM यानि ‘इकट्ठे’ और PASSIO यानि ‘दु:ख’. यही करुणा हैं. जब किसी को हम कठीनाईयों में देखते हैं और हम उनका दुख महसूस करते हैं और इसे अपना दु:ख समझकर दूर करने के लिये या कम करने के लिये प्रयास करते हैं; तब वह करुणा हैं. मनुष्य मात्र में सब अच्छे गुण जैसे सहानुभूति, सुख देना, देखबाल करना यह सब कल्याण के विविध रूप हैं. आप देख सकते हैं कि, करुणावान व्यक्ति का औरों को मदद करना अपना स्वयं की मदद करने से जन्मता हैं. हम दूसरों को अच्छी तरह तरह से तब समझते हैं जब हम स्वयं को समझते हैं. हम दूसरों के लिये अच्छा क्या हैं ये तभी समझ सकते हैं, जब हम स्वयं की विकसित अवस्था से दूसरों को स्वाभाविक ढंग से मदद करते हैं. बुद्ध की जीवनी इस तत्व को बहुत अच्छी तरह से दर्शाती हैं. स्वयं के लिये उन्होने छ: साल तक कठिन प्रयास किये जिससे वें प्रबुद्ध बने और फलस्वरूप सभी मनुष्यों के लिए उपयोगी साबित हुए.
सवाल: तो आप कहते हैं कि हम पहले स्वयं की मदद करें तो दूसरों को मदद कर सकते हैं. तो क्या यह स्वार्थ नही हैं?
जवाब: परोपकारवाद को हम समझते हैं कि इसमें स्वयं से पहले दूसरों की मदद करना होता हैं. बुद्ध धम्म इस तरह नहीं देखता किंतु दोनों का अन्तर्संबंध देखता हैं. स्वयं के विकास के प्रति प्रमाणिक उद्देश्य क्रमश: विकसित होते हुए औरों की मदद बन जाता हैं जैसे की और मनुष्य भी एक अर्थ में हम स्वयं ही हैं. यह सच्ची करुणा हैं. करुणा, बुद्ध की शिक्षा के मुकुट में लगा एक रत्न हैं.
सवाल: आपने कहा की करुणा और प्रेम समान हैं. उनमें क्या फर्क हैं?
जवाब: वो एक दूसरे से संबंधित हैं यह कहना उचित होगा. अंग्रेजी में LOVE शब्द का इस्तेमाल भावनाओं के विभिन्न रूप को दर्शाने के लिये किया जाता हैं. हम हमारे साथीदारों, पालकों से, बच्चों से, अपने अच्छे मित्र और पडोसियों से प्रेम कर सकते हैं. इस तरह की भावनाओं में कुछ फर्क होता हैं पर कुछ समानता भी होने की वजह से यहाँ ‘प्रेम’ शब्द उपयोग किया जाता हैं. और इसमें समानता क्या हैं? जब हम किसी के बहुत निकट होते हैं तब हम उनकी खुशी में उत्सुक होते हैं, उनकी आदते या वृतियाँ जो औरों को तकलीफ देनेवाली होती हैं वो हमारे लिये मायने नही रखती, हमें उनके स्वीकारने की अलग से कोशिश नहीं करनी पडती. प्रेम में एक दूसरें से जुडना, दया और कदर करना और स्वीकारना होता हैं. मगर यह भाव हमें उनके प्रति लगता हैं जो हमसे प्रत्यक्ष जुडे हैं. बुद्ध नें कहा हैं कि, इस तरह से सबके बारे में महसूस करें. उन्होने कहा:
“जिस तरह माँ इकलौते बेटे का प्राणों से बढकर संरक्षण करती हैं, उसी तरह हमें भी सभी जीवों के प्रति अमर्याद प्रेम करना चाहिए.” Sn. 149
बौद्ध धर्म में इसी ‘अमर्याद प्रेम’ को मैत्री कहते हैं. जब हम किसी को दुखी देखते हैं तब यही मैत्री करुणा बन जाती हैं. इस तरह करुणा, मैत्री का दुखियारों के प्रति संवेदनशील हो जाना हैं.
सवाल: मुझे लगता हैं कि, जब आप दयालु और सच्चे होते हैं तो लोग आप पर जुल्म करेंगे.
जवाब: यह संभव नहीं हैं. पर यह तब भी होता हैं, जब आप स्वार्थी और आक्रमक होते होते हैं, क्योंकि यहाँ आपसे भी ज्यादा बदमाश लोग होते हैं. तो कुछ पक्का नही हैं. ये सच हैं, आपकी अच्छाई का फायदा उठाने वाले लोग यहाँ हैं, पर बहुत लोग आपका समर्थन और सम्मान भी करेंगे. आपको शोषण करने वालों से ज्यादा मित्र और मददगार मिलेंगे. और फिर आप उनकी तरह क्यों बनना चाहेंगे जो लोग आपको पसंद नहीं? प्राचीन बौद्ध ग्रंथ यह उपदेश देता हैं: “जैसे नेवला अपने बदन पर औषधि लगाकर सांप को पकडता हैं उसी तरह साधक को इस जगत में जहाँ झगडे, द्वेष, क्रोध, कलह आदि हैं वहाँ स्वयं के मन को प्रेम की औषधि से आच्छादित करना चाहिये.” MILINDAPANHA 394