HomeBuddha Dhammaकेसरिया स्तूप: कालाम सुत्त का साक्षी

केसरिया स्तूप: कालाम सुत्त का साक्षी

Kesariya Stupa: स्नेह जब किसी से इस क़दर हो कि आप नतमस्तक हो जाएं और सम्यक ज्ञान के प्रति श्रध्दा ऐसी हो कि उस ज्ञान के स्रोत से जुड़ी हर एक वस्तु, घटना और पंक्ति को सहेजकर आने वाली पीढ़ी तक पंहुचाने का जज़्बा पैदा हो जाए तो जान लीजिए वो कोई साधारण मनुष्य नहीं है, वो अकेला नरों में सिंह है और पुरुषों में उत्तम है।

इतिहास के पन्ने धूल के पड़ने से धूसरित जरूर हुए हैं किंतु चमक अब भी बरकरार है। जब भी मैं अपने इतिहास को देखता हूँ तो भाव विभोर हो जाता हूँ और अधिक श्रद्धा से अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ हो जाता हूँ कि हजारों साल पहले उन्होंने अपने वंशजों के बारें में सोचा तथा तथागत से जुड़ी छोटी से छोटी वस्तु को भी भव्य रूप में हम तक पहुंचाने का अपना दायित्व निभाया। सतत विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) यही तो है कि आने वाली पीढ़ी तक हर उस चीज को पहुंचाना ताकि उन चीजों से वो पीढ़ी भी रूबरू हो।

मैं कृतज्ञ हूँ भगवान बुद्धकालीन वैशाली गणराज्य के लिच्छवियों का जिन्होंने इतना सुंदर स्तूप निर्मित किया। भगवान बुद्ध ने अपना भिक्षा पात्र लिच्छवियों को दिया था जिस पर उन्होंने केसरिया स्तूप निर्मित किया। परवर्ती काल मे महान सम्राट अशोक ने इसका पुनरुद्धार करवाया। बाद में गुप्त सम्राटों ने भी इसके सौंदर्य अभिवर्द्धन के लिए कार्य किए।

प्राचीन केसपुत्त की राजधानी केसरिया ही थी और कालाम यहां गणतांत्रिक ढंग से शासन करते थे। सिद्धार्थ जब बुद्धत्व प्राप्ति के लिए निकले तब आलारकालाम से ज्ञान इसी स्थल पर प्राप्त किया था। भगवान बुद्ध ने कालाम सुत्त की देशना यहीं दी थी। शास्ता की वाणी से उपकृत इस मिट्टी के महत्त्व को लिच्छवियों ने स्तूप बनवाकर चिरस्थाई कर दिया।

इस स्थल की खुदाई सर्वप्रथम कर्नल मैकेन्जे के समय 1814 में आरम्भ हुई, जिसे चीनी यात्री और बौद्ध भिक्खु ह्वेनसांग के वर्णन के आधार पर सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1861 से 1862 के बीच में विधिवत ढंग से उत्खनित किया। 1998 में के. के. मोहम्मद ने कनिंघम के कार्य को आगे बढ़ाया और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से उत्खनन करवाया।

आज सर अलेक्जेंडर कनिंघम का जन्मदिन है और हमने भी निश्चय किया कि आज केसरिया के दीदार किए जाए। भला हमारे पूर्वजों की धरोहर को हम बिहार में रहते हुए भी न देख पाएं तो लगेगा कि परवरिश में कहीं कुछ तो छूट गया। भारत का हर कोना कोना बुद्धमय है बस आपको उसे स्वीकार करना है। आपकी संस्कृति बहुत विस्तृत है और विविधता लिए हुए है।

डॉ विकास सिंह

(लेखकीय परिचय – बिहार के दरभंगा में स्थित ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय की अंगीभूत ईकाई मारवाड़ी महाविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष हैं. लेखक ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान’ से एम.ए., एम.फिल्., पीएच.डी., पालि एवं मंगोलियन भाषाओं में सर्टिफिकेट कोर्स तथा इग्नू से अनुवाद अध्ययन में एम.ए. की है. बौद्ध धर्म-दर्शन पर 4 पुस्तकों के लेखक हैं और राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सेमीनारों में 100 के तकरीबन शोधपत्र पढें हुए हैं और 30 से अधिक शोधपत्र विभिन्न शोधपत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं.)

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