प्रज्ञा शील से शुद्ध होती हैं और शील प्रज्ञा से. एक के उपस्थित होने पर दूसरा अवश्य होता हैं. प्रज्ञावान मनुष्य के पास शील होता हैं और शीलवान के पास प्रज्ञा. दोनों का एकत्रित होना विश्व की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि हैं. D.I. 24
मन सभी बातों का निर्माता हैं, मन उसे संचालित करता हैं, वे सभी मन से निर्मित हैं. अगर कोई मनुष्य शुद्ध मन से बोलता या कर्म करता हैं तब सुख उसके पीछे वैसे ही आएगा जैसे गाडी के चाक के पीछे उसकी छाया. Dhp. 2
किसी पर कभी कोई मिथ्यारोप न करें और न किसी से नाराजगी रखे. द्वेष या बदले के लिए किसी के दु:ख की इच्छा न धरें. Sn. 149
जिस तरह विशाल सागर का स्वाद कहीं से भी चखो तो एक सा खारा होता हैं; वैसे ही धम्म का स्वाद एक सा, विमुक्ति का होता हैं. UD. 56
दूसरों के दोष आसानी से दिखते हैं पर स्वयं के दोष देखना कठिन हैं. अनाज से भूसे को अलग करने जैसा दूसरे की बुराईयां निकालनेवाला अपने दोष छिपनेवाले शिकारी की तरह छिपाता हैं. Dhp. 252-3
फुलों के ढेर से कई मालाएं गुथी जा सकती है. उसी तरह मनुष्य जन्म होने से बहुत अच्छे कर्म कर सकते हैं. Dhp. 53
जब आप किसी से बात करते हैं तब आप सही या गलत समय बोल सकते हैं तथ्य या तथ्यहीन बोल सकते हैं, मधुर या कठोर बोल सकते हैं, सत्य या असत्य बोल सकते हैं, नफरत या प्रेम से बोल सकते हैं. आप ने स्वयं को ऐसे प्रशिक्षित करना चाहिए; ‘हमारा मन विकृत न रहे, न ही हम बुरा बोले, पर मैत्री और करुणा से हम नफरत को त्याग कर, मैत्रीपूर्ण जिए.’ ऐसे स्वयं को प्रशिक्षित करें. M.I. 126
कभी हम सोचते ऐसा होगा, वैसा नहीं होता; और कभी हम सोचते ऐसा नहीं होगा, वैसा हो जाता. मनुष्य का सुख उसकी अपेक्षाओं पे निर्भर नहीं करता. J. VI, 43
तीन बातों से ज्ञानी मनुष्य की पहचान होती हैं. कौन सी तीन? वह स्वयं में ठीक वैसे दोष देखता हैं जैसे वह हैं, उसे सुधारने की कोशिश करता हैं, और दूसरों की भूले माफ करता हैं. A.I, 103
सारे पापों को ना करना, पुण्य का संचय करना, अपने चित को परिशुद्ध करना. यहीं बौद्धों की शिक्षा हैं. Dhp. 183
पानी से यह सीखें. पहाडों के बीच बहने वाले छोटे झरने बडी आवाज करते हैं पर नदी मौन बहती हैं. खाली वस्तुएँ आवाज करती हैं पर भरी वस्तुएँ हमेशा शांत रहती हैं. मुर्ख हमेशा आधे भरे घडे की तरह होता हैं, प्रज्ञावान पुरुष गहरें पानी की तरह स्थिर होता हैं. Sn. 720-1
अगर कोई खुँखार डाकु आपके अंग दुधारी तलवार से काट रहा हैं और अगर आप के मन में नफरत जागती हैं तो आप मेरी शिक्षा का आचरण नहीं कर रहे हैं. M.I. 126
अगर सभी प्राणी मात्र के प्रति निरंतर मैत्री भाव विकसित किया जाए तो ग्यारह फायदे होते हैं. अच्छी नींद आती हैं, सुख से नींद खुलती हैं, बुरे सपने नहीं आते, मनुष्यों को प्रिय होता हैं, अमनुष्यों को प्रिय होता हैं, देवों को प्रिय होता हैं, अग्नि से संरक्षित होता हैं, विष या हथियारों से संरक्षित होता हैं, सहज एकाग्र होता हैं, त्वचा उजली होती हैं, सुख से मौत आती हैं, मौत के बाद ऊँचे तल पर जन्म मिलता हैं. A.V. 342
माता-पिता का सम्मान करना, पत्नी-बच्चों की सेवा करना, व्यवहार में प्रमाणिक रहना, यह उतम मंगल हैं. Sn. 262
अगर अच्छे लोग विवाद करते हैं तो जल्दी से मिटाकर उन्हे मैत्री के धागे से जोड देना चाहिए. पुराने टूटे बर्तन की तरह केवल मुर्ख ही अपने विवाद नहीं मिटाते. जो इसे समझता हैं, जिसे यह शिक्षा पसंद आई, जो कठिन को कर दिखाता हैं वही सच्चा बंधु हैं. जो अपमान सह सकता हैं वही विसंवाद मिटा सकता हैं. Ja. III, 38
स्वादिष्त या बेस्वाद, कम या अधिक, कोई भी प्रेम से बनाया हुआ खा सकता हैं. बेशक प्रेम ही सर्वोच्च स्वाद हैं. Ja. III, 145
अगर कोई द्वेषपूर्ण, स्वार्थी या अप्रमाणिक हैं तो वह सुंदर वाचा और अंग के बावजूद भी कुरूप होगा. पर जो मनुष्य द्वेष से मुक्त हैं वह सच में सुंदर हैं. Dhp. 262-3
जो स्वयं को नियंत्रित, अनुशासन में या संतुष्ट नहीं रखता, वह दूसरों को नियंत्रित, अनुशासन में या संतुष्ट नहीं रख सकता. पर जो स्वयं को नियंत्रित, अनुशासन में या संतुष्ट रखता हैं, वह दूसरों को वैसे रख सकता हैं. M.I, 45
संतुष्टि परम धन हैं. Dhp. 204
अगर कोई मेरी, धम्म या संघ की आलोचना करता हैं तो उन पर नाराज मत होना अन्यथा आप यह नहीं समझ पाऐंगे कि वे सही हैं या गलत. उन्हे समझाईय कि यह गलत हैं. यह सही नहीं हैं. यह हमारा मार्ग नहीं हैं. हम यह नहीं करते. वैसे ही अगर कोई मेरी, धम्म या संघ की तारीफ करता हैं तो अहंकार मत करना क्योंकि तब आप नही समझ पाऐंगे कि वे सही हैं या गलत. उन्हे सही हैं. यह ठीक हैं. हम में ऐसा होता हैं. यह कहकर समझाईये. D.I, 3
जो वाणी अच्छी हैं, स्तुतियोग्य हैं और पंडितों द्वारा सराहनीय हैं उस वाणी के 5 लक्षण हैं. कौनसे 5? वह सही समय पर, सत्य, मृदु, सुस्पष्ट, प्रेमपूर्ण वाणी हैं. A.III, 243
जैसे गहरा तालाब शांत और साफ होता हैं वैस ही ज्ञानी जन धम्म शिक्षा ग्रहण करने से शांत होते हैं. Dhp. 82
कोई बात सराही गयी हैं, परंपरा से आई हैं, प्रचलित हैं, शास्त्रों में हैं, तर्कयुक्त हैं, संदर्भयुक्त हैं, शिक्षक के अधिकार से आई हैं या आपके गुरु से आई इस कारण से मत मान लेना. पर अगर आपको लगता हैं कि यह अच्छा हैं, स्तुतियोग्य हैं, पंडितों ने सराहा हैं, और इसके आचरण से खुशी और लाभ होगा तभी उसे अपनाये. A.I, 190
कुछ झगडालु भिक्षुओं से बुद्ध ने कहा कि अगर जानवर सभ्य, सदभावनायुक्त और विनम्र हो सकते हैं, तब आप भी वैसे हो सकते हैं. VIN.II, 162
संपति खोने से खास हानि नहीं पर प्रज्ञा का नाश बहुत हानिकर हैं. संपति पाना बहुत लाभदायी नहीं हैं पर प्रज्ञा का लाभ बहुत बडा होता हैं. A.I, 15
जैसे सागर की ढलान होती हैं, धीमे उतारवाली, कहीं अचानक ऊँचाई नहीं वैसे ही धम्म और उसका आचरण यह धीरे करना होता हैं. कोई अचानक फल प्राप्ति नहीं होती. UD. 54
बुद्ध जागृत हैं, वे जागृती सिखाते हैं. बुद्ध संयमित हैं, वे संयम सिखाते हैं. बुद्ध शांत हैं, वे शांती सिखाते हैं. बुद्ध संसार का अतिक्रमण किये हैं, वे संसार का अतिक्रमण सिखाते हैं. बुद्ध ने मुक्ति पायी हैं, वे मुक्ति सिखाते हैं. M.I, 235
जो आलसी बुद्ध की गाथाये रटता हैं पर उसका आचरण नहीं करता वह उस ग्वाले की तरह हैं जो सिर्फ दूसरों की गाय गिनता हैं, उसे धम्म लाभ नहीं होगा. Dhp. 19
जैसे माँ अपने इकलौते पुत्र की प्राणों से बढकर रक्षा करती हैं, वैसे ही सभी प्राणियों के लिए मैत्री विकसित करनी चाहिए. Sn. 149
अगर आप किसी को सुधारना चाहता हैं तो इस तरह विचार करें; ‘क्या मैं काया, वाचा या मन से पूर्ण शुद्ध हैं?’ क्या मुझमे ये गुण हैं? अगर मुझ में ये गुण नहीं तो क्या लोग नहीं पूछेंगे, ‘पहले स्वयं को शुद्ध क्यों नहीं करते?’ जो औरों को सुधारना चाहते हैं वो इस तरह विचार करें; ‘क्या मैं द्वेष से मुक्त होकर दूसरों के प्रति मैत्रीपूर्ण हूँ?’ अगर नहीं तब क्या लोग नहीं पूछेंगे; ‘क्यों नहीं आप पहले स्वयं मैत्रीपूर्ण बन जाते?’ A.V. 79
धम्म उनकी रक्षा करता हैं जो उसका आचरण करते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे विशाल छाता वर्षा से रक्षा करता हैं. Ja. IV, 55
जो सुबह, दोपहर और शाम को शील का आचरण करेंगे उन्हे सुखद सुबह, सुखद दोपहर और सुखद शाम का अनुभव होगा. A.I, 294
अगर कोई आपको गाली देता, मारता, आप पर पत्थर फेंकता, लाठी या तलवार से मारता हैं, तब आप सांसारिक तृष्णाओं को त्याग इस तरह विचारें, ‘मेरा ह्रदय नहीं काँपेगा. मैं कोई अपशब्द नहीं बोलुंगा. मैं कोई दुर्भाव नहीं रखुँगा बल्कि सब के प्रति मैत्री और करुणा का भाव रखुँगा. M.I, 126
नहर पानी को खेत में दिशा देती हैं, बाण बनानेवाला बाणों को मोड देता हैं, लकडी बनानेवाला लकडी को आकार देता हैं, ज्ञानी स्वयं को आकार देता हैं. Dhp. 80
बुद्ध ने अनिरुद्ध से पूछा की वे भिक्षुओं के साथ सुख से कैसे रह लेते हैं तब उन्होने जवाब दिया, ‘मैं हमेशा देखता हूँ कि मैं कितना भाग्यशाली हूँ, अति भाग्यशाली हूँ कि मुझे इतना सुन्दर भिक्षुओं का सहवास प्राप्त हैं. मैं उनके प्रति एकांत में तथा सार्वजनिक जगहों पर मैत्रीपूर्ण कायिक, वाचिक तथा मानसिक कृति करता हूँ. मैं हमेशा सोचता हूँ कि मैंने अपनी जरुरतों को दूर रख उनकी जरुरतों को पूरा करना चाहिए और वैसा ही मैं करता हूँ. इस तरह हम अनेक शरीर हैं पर मन एक हैं.’ M.III, 156
झगडों में असुरक्षा और सामंजस्य में सुरक्षा देख हमें मैत्रीपूर्ण संघ एकता में रमणा चाहिए. यही बुद्धों की शिक्षा हैं. Cp. 3,15,13
युद्ध में वे सेनापति चाहते हैं, सलाह में साफ निर्देश चाहते हैं और अन्न-जल के लिए मित्र चाहते हैं. पर असली वक्त पर उन्हे ज्ञानि की सलाह जरुरी होती हैं. Ja. I. 387
दुनिया में चार प्रकार के लोग हैं. कौन से चार? जो न स्वयं की भलाई करते हैं ना दूसरों की, जो दूसरों की भलाई करते हैं पर स्वयं की नहीं, जो स्वयं की भलाई करते हैं पर दूसरों की नहीं, जो स्वयं की भलाई करते हैं और दूसरों की भी … इनमें जो चौथे प्रकार का व्यक्ति हैं जो स्वयं की और दूसरों की भी भलाई करता हैं वह इन सब में प्रधान, सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ट हैं. A. II, 94
अगर आप बुद्ध, धम्म और संघ की शरण जाते हैं तब आप भयमुक्त और अकल्पित रहते हैं. S.I,220
लोभ ज्यादा घातक नहीं पर धीरे परिवर्तित होता हैं. घृणा बहुत घातक हैं पर जल्दी परिवर्तित होती हैं. अज्ञान बहुत घातक हैं और धीरे परिवर्तित होता हैं. A.I,200
गुरु ने करुणावश को कुछ भी शिष्यों के हित में करना चाहिए वह मैं आप के लिए कर चुका हूँ. यह वृक्षों की जड हैं, यह खाली जगह हैं. ध्यान करों. आलस मत करो और पीछे पछताओं मत. यही मेरी आपके लिए देसना हैं. M.I,46
उनकी मैत्री करों जिनमे यह सात गुण हैं. कौनसे साथ? वह उसे देता हैं जो देना कठिन है, जो कठिन है उसे करता हैं, जो कठिन है उसे सहता है, अपनी गोपनीय बातों की पापदेसना करता और आपकी गोपनीय बातों को गुप्त रखता हैं, कठिन समय में आपको छोड नहीं देता और आपके बुरे वक्त में नीछ नहीं दिखाता. A.IV,31
मैं गृहस्थों के या भिक्षुओं के बुरे बर्ताव का समर्थन नहीं करता. अगर कोई गृहस्थ या भिक्षु गलत करता हैं तो वह अपनी कृति के कारण निर्दोष जीवन से दूर हैं, धम्म मार्ग पर नहीं हैं, कुशल मार्ग पर नहीं हैं. मैं गृहस्थों के या भिक्षुओं के अच्छे बर्ताव का समर्थन करता हूँ. अगर कोई गृहस्थ या भिक्षु सही कार्य करता हैं तो वह अपनी कृति के कारण निर्दोष जीवन पर चल रहा हैं, धम्म मार्ग पर हैं, कुशल मार्ग पर हैं. A.I,69
जो शुद्ध हैं, शीलवान हैं उसे अलग से यह विचार नहीं करना पडता हैं; ‘मैं पश्चाताप से मुक्त रहूँ.’ क्यों? क्योंकि जो शुद्ध हैं, शीलवान हैं वह स्वभावत: पश्चाताप से मुक्त होता हैं. और जो पश्चाताप से मुक्त होता हैं उसे अलग से यह विचार नहीं करना पडता हैं; मैं सुखी रहूँ. क्यों? क्योंकि जो पश्चाताप से मुक्त होता हैं वह स्वभावत: सुखी होता हैं. A.V,1
इन छह ढंगों से संयमित रहना चाहिए. कौनसे छह? संघ सदस्यों के प्रति एकांत में तथा सार्वजनिक जगहों में मैत्रीपूर्ण कार्य करें. संघ सदस्यों के प्रति एकांत में तथा सार्वजनिक जगहों में मैत्रीपूर्ण वाचा का आचरण करें. संघ सदस्यों के प्रति एकांत में तथा सार्वजनिक जगहों में मैत्रीपूर्ण विचार करें. भली प्रकार प्राप्त भिक्षा चाहे वह पात्र में बची-कुची ही क्यों न हो, वह समान भागों में आनंद से उनके साथ बाँट लेता हैं. उसका शील भंग नहीं होता, निर्दोष रहता हैं, दागरहित होता है, मुक्तिदायी होता है, समाधी प्राप्ति में उपयोगी होता है, इसके साथ वह भिक्षु संघ में होता हैं. अंतत: उसे मुक्ति की अच्छी समझ होती हैं, जिससे दु:खों का अंत होता हैं और वह समझदारी के साथ धार्मिक मित्रों के साथ जीवन बिताता हैं. इन छह रास्तों से संयम साधा जाता हैं. A.III,288
जो दुसरों के घर जाकर आतिथ्य स्वीकारता हैं पर उनके घर पधारने पर सम्मान नहीं देता वह समाज से निष्कासित हैं ऐसा जाने. Sn.128
गृहस्थी में सक्षम, भोजन को बाँटनेवाला, संपति में संयत और संपति का ह्रास होने पर निराश न होनेवाला अच्छा होता हैं. Ja.III,466
घृणा को मैत्री से जीते, बुराई को भलाई से जीते, लालच को दान से जीतें और असत्य को सत्य से जीते. Dhp.223
छह बातें मैत्री और सम्मान, उपयोगिता और सहमति, सुसंवाद और एकता दिलाती हैं. कौनसी छ्ह? जब कोई संघ सदस्यों के प्रति एकांत में तथा सार्वजनिक जगहों में मैत्रीपूर्ण वाचा का आचरण करता हैं. जब कोई संघ सदस्यों के प्रति एकांत में तथा सार्वजनिक जगहों में मैत्रीपूर्ण विचार करता हैं. भली प्रकार प्राप्त भिक्षा चाहे वह पात्र में बची-कुची हीं क्यों न हो, वह समान भागों में आनंद से उनके साथ बाँट लेता हैं. उसका शील भंग नहीं होता, निर्दोष रहता है, दागरहित होता है, मुक्तिदायी होता है, समाधी प्राप्ति में उपयोगी होता है, इसके साथ वह भिक्षु संघ में होता हैं. अंतत: उसे मुक्ति की अच्छी समझ होती हैं, जिससे दु:खों का अंत होता हैं और वह समझदारी के साथ धार्मिक मित्रों के साथ जीवन बिताता हैं. तब मैत्री और सम्मान, उपयोगिता और सहमति, सुसंवाद और एकता प्रस्थापित होती हैं. M.I,322
जो सधम्म का आचरण करते हैं, जिनकी काया, वाणी एवं मन शुद्ध है, जो शात, संयमी, एकाग्र व निष्चल है वे इस संसार से अच्छे से निर्गमन करते हैं. Ja.III,442
जिनकी काया, वाचा व मन कुशल कर्ज करते हैं व स्वयं के उतम मित्र होते हैं. यद्यपि वे कहते हैं कि, ‘उन्हे स्वयं की कोई चिंता नहीं’ पर वे फिर भी स्वयं के उतम मित्र होते हैं. क्यों? क्योंकि वे स्वयं के लिए वह करते हैं जो उतम मित्र उनके लिए करता. S.I,71
अच्छे कर्म के बारे में छोटा मत सोचे, ‘कि मैं यह नही बन सकता.’ बुँद-बुँद से जैसे घडा भर जाता हैं वैसे ही छोटे-छोटे सत्कर्मों से ज्ञानी अपने को भरता हैं. Dhp.122
स्वयं के भीतर ही शांती हैं. Sn.919
उस समय एक भिक्षु अतिसार से पीडित अपनी ही गंदगी में पडा था. बुद्ध और आनंद अपने निवास कि ओर जा रहे थे और उन्होने उस भिक्षु को देखा. फिर बुद्ध ने पूछा, ‘भिक्षु तुम्हारी यह हालत कैसे हुई?’
‘मुझे अतिसार हुआ हैं, भगवान’
‘क्या तुम्हारी सेवा करने वाला नहीं हैं?’
‘नही भगवान.’
‘तो बाकि भिक्षु आपकी सेवा क्यों नहीं करते?’
‘क्योंकि मैं उनके लिए उपयोगी नहीं रहा.’
तब बुद्ध ने आनंद से कहा, ‘जाओ और पानी ले आओ, हम भिक्षु को साफ करेंगे.’ तब आनंद पानी लाया और भगवान ने भिक्षु पर पानी डाला और आनंद ने उसे साफ किया. बाद में उसका सिर और पैर पकड कर उसे उठाया और बिस्तर पर लिटाया. फिर बुद्ध ने भिक्षुओं को इकट्ठा किया और पूछा, ‘आपने उस भिक्षु की सेवा क्यों नहीं कि?’
‘क्योंकि वह हमारे काम का नहीं रहा’
‘भिक्षुओं, तुम्हारी सेवा के लिए माता-पिता नहीं हैं. अगर आप एक दूसरे की सेवा नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा? जो मेरी सेवा करना चाहता हैं वह रुग्णों की सेवा करें. VIN.IV,301
जो अपने अंग बचाने के लिए धन त्यागता है, जीवन बचाने के लिए अंग त्यागता हैं, वह सत्य की प्राप्ति के लिए धन, अंग, जीवन सब कुछ त्यागने के लिए तैयार रहे. Ja.V,500
मनुष्य अपने से बलशाली के कठोर शब्द भय से सह लेता हैं, अपनी बराबरी वालों के कठोर शब्द विवाद टालने के लिए सह लेता हैं. पर अपने से छोटे व्यक्ति के कठोर शब्द सह लेना ही सच्चा संयम है. सज्जन ऐसा कहते हैं. पर ऊपर से कैसे जाने की कौन छोटा, बडा या बराबरी का हैं? अच्छाई के पीछे कभी बुराई छिपी होती हैं. इसलिए सभी के साथ सहनशील बने. Ja.V,141-2
धम्म दान सर्वश्रेष्ट दान हैं. Dhp.354
दूसरों की प्राप्ति में वैसे ही सुखी रहे जैसे स्वयं की प्राप्ति में. S.II,198
श्रेष्ट ज्ञान तथा आचरण की उपलब्धि के लिए आपका सामाजिक तल, परिवार या ‘आप मेरे लिए मगान है या आप मेरे लिए महान नहीं है’ ऐसी झूठी बातें कोए महत्व नहीं रखती. ऐसी बातें शादी-ब्याह में लेन-देन के व्यवहार तक ठीक है. जो सामाजिक तल, परिवार या ‘आप मेरे लिए महान हैं या आप मेरे लिए महान नहीं है’ ऐसी झूठी बातों के सहारे रहते हैं वे श्रेष्ट ज्ञान तथा आचरण की उपलब्धि से बहुत दूर हैं. ऐसी धारणाओं के त्यागने से ही श्रेष्ट ज्ञान तथा आचरण की उपलब्धि होती हैं. D.I,99
मैंने धम्म को किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष गुरु के बिना जाना हैं. गुरु ने कुछ शिक्षा अपनी मुट्ठी में बंद रखी ऐसा कुछ मेरे साथ नहीं हुआ हैं. D.II,100
मेरे जाने के पश्चात धम्म और संघ ही आपके गुरु रहेंगे. D.II,154
जैसे एक कुम्हार मिट्टी के साथ करता हैं वह मैं आपके साथ नहीं करुँगा. बारबार संयम साध कर मैं बोलुँगा, बारबार सजग करुँगा. जो दिल से मजबूत हैं वे इसे सह पाऐंगे. M.III,118
बारबार स्वयं के दोष देखना अच्छा है. बारबार दूसरों के दोष देखना अच्छा हैं. बारबार स्वयं के सदगुण देखना अच्छा हैं. बारबार दूसरों के सदगुण देखना अच्छा हैं. A.IV,160
जो धन्यवाद व अनुग्रह से भरा, प्रेमपूर्ण मित्र, दृढ श्रद्धा रखनेवाला, दुखियों की विनयपूर्वक मदद देनेवाला हैं वो अच्छा मनुष्य होता हैं. Ja.V,146
सत्कर्मी वर्तमान में भविष्य में भी सुख पाता हैं. अपने सत्कर्मों को याद कर व सुख भोगते हैं. Dhp.16
बुराई त्याग दो. यह संभव हैं. अगर यह असंभव होत तो मैं कभी इसे त्यागने को नहीं कहता. पर यह संभव हैं इसलिए मैं कहता हूँ, ‘बुराई त्याग दो.’ अगर बुराई त्यागने से हानि या दु:ख होता तो मैं कभी इसे त्यागने को नहीं कहता. पर इससे आपका कल्याण होता तभी कहता हूँ, ‘बुराई त्याग दो.’ सत्कर्म करो. यह संभव हैं. अगर यह असंभव होता तो मैं कभी इसे करने को नहीं कहता. पर यह संभव हैं इसलिए मैं कहता हूँ, ‘सत्कर्म करो.’ अगर सत्कर्म करने से हानि या दु:ख होता तो मैं कभी इसे करने को नहीं कहता. पर इससे आपका कल्याण होता तभी कहता हूँ, ‘सत्कर्म करो.’ A.I,58
दंड से सभी डरते हैं, प्राण सभी को प्रिय हैं. स्वयं को दूसरे जैसा जान, न मारे न मारने दे. Dhp.130
जिस वृक्ष की छाया में आप बैठते या लेटते हैं उसकी कोई शाखा न तोडे, क्योंकि ऐसा करना मित्रघात और दुष्टता हैं. PV.21,5
मन शुद्ध होता है पर बाहरी प्रभाव से दूषित होता हैं. पृथज्जण इसे नहीं जानते इसलिए उनका मानसिक विकास नहीं होता. मन शुद्ध होता हैं और उसमें बाहर से आई अशुद्धि को निकाला जा सकता हैं. अच्छे शिष्य इसे जानते हैं और उनका मानसिक विकास होता हैं. A.I,10
जिसका मन स्वतंत्र हैं वह किसी से विवाद या उलझन में नही पडता. वह सांसारिक का उपयोग बिना आसक्ति के कर लेता हैं. M.I,500
मैं नहीं कहता की बुद्धत्व अचानक उपलब्ध होगा. बल्कि प्रशिक्षण, कार्य व आचरण के साथ यह धीरे-धीरे उपलब्ध होता हैं. M.I,479
आकाश और धरती एक दूसरे से बहुत दूर हैं और समंदर का वह किनारा इस किनारे से बहुत दूर हैं. पर सधम्म से अधम्म इससे भी दूर हैं. Ja.V,483
कठोर होना, करुणा न करना, पीछे से वार करना, मित्रों के प्रति उदासीन, ह्रदयशून्य, कठोर, क्षुद्र, कभी कुछ न बांटना यह सब अशुद्ध भोजन हैं, न की मांसाहार करना. अनैतिक होना, कर्ज न चुकाना, विश्वासघात करना, व्यवसाय में धोका देना, लोगों में भेदाभेद करना यह अशुद्ध भोजन हैं, न की मांसाहार करना. प्राणी हत्या करना, चोरी, दूसरों को चोट पहुँचाना, क्रूरता, कठोरता और दूसरों का अनादर यह अशुद्ध भोजन हैं, न की मांसाहार करना. Sn.244-6
हिमालय पर्वत की तरह ज्ञानी दूर तक चमकते हैं. अँधेरे में छोडे तीर की तरह दुष्ट पता नहीं चलते. Dhp.304
बुद्ध ने पूछा, ‘ आपको क्या लगता हैं? आईना किसलिए होता हैं?’
‘यह प्रतिबिम्ब देखने के लिए होता हैं,’ राहुल ने जवाब दिया.
तब बुद्ध ने कहा, ‘उसी तरह, काया, वाणी व मन का कोई भी कृत्य जागृति से करना चाहिए. M.I,415
धनुष कि तरह झुको और बाँस की तरह लचीले रहो तो आपको किसी से कोई समस्या नहीं होगी. JA.VI,295
जैसे गंगा नदी पुर्व कि ओर बहती, झुकती, और चलती हैं, वैसे ही आर्य अष्टांगिक मार्ग पर चलने वाला निर्वाण की ओर बहता, झुकता, और चलता हैं. S.V,40
सच्चे लोग अनुगृहीत और कृतज्ञ होते हैं. VIN.IV,55
उसने मुझे गाली दी, उसने मुझे मारा, उसने मुझ छला, उसने मुझे लूटा, जो ऐसा सोचते हैं उनका वैर कभी शांत नही होता. पर जो ऐसा नही सोचते उनका वैर शांत होता हैं. इस जगत में वैर से वैर नहीं मिटता. मैत्री से वैर मिटता हैं. यही सनातन धम्म हैं. Dhp.3-5
शीलवान मनुष्य के लिए हर दिन विशेष हैं, धार्मिक हैं. M.I,39
उतम गहनों के पहनने पर अगर कोई शांत, संयमी, धम्माचरणी, जीवों की हिंसा न करने वाला हैं तो वह सच्चा तपस्वी, सच्चा उपदेशक, सच्चा भिक्षु हैं. Dhp.142
दूसरों का मूल्यांकन करने वाले न बने, दूसरों का मूल्यांकन न करें. जो दूसरों का मूल्यांकन करता हैं वह स्वयं के लिए गड्ढा खोदता हैं. A.III,350
लोमडी की चीख या पंछी का गीत आसानी से समझ आता हैं. पर मनुष्य की बात समझना कठिन हैं. आपको लगेगा, ‘यह मेरा करीबी हैं, मित्र हैं, साथी है क्योंकि उसने मुझे कभी खुश किया पर आज वह शत्रु हो सकता है. जिनसे हमें प्रेम हैं वे हमेशा करीब हैं, जिनसे शत्रुता हैं वे हमेशा दूर हैं. प्रमाणिक मित्र प्रमाणिक ही है भले ही संमुदर के उस पार हो. दुषित चित दुषित ही हैं भले ही करीब हो. Ja.IV,218
अपने द्वीप बने, अपनी शरण जाये, किसी की शरण न जाये, धम्म ही आपका द्वीप और शरण स्थान रहे. D.II,100
‘भिक्षुओं मैं आपसे कहता हूँ, सभी सांसारिक अस्तित्व अनित्य हैं. जाग्रति से प्रयास करें.’ यह बुद्ध के आखरी शब्द थे. D.II,156