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धम्म यात्रा: मेरी बोधगया यात्रा – 5 । गंधकुटी पर फाहियान खूब रोये

बोधगया, नालंदा, राजगृह धम्म यात्रा- 5

बुद्ध और धम्म की तलाश में साहसी महान चीनी बौद्ध भिक्खु लंबे रेगिस्तान, बर्फ़ीले पहाड़ों, ख़तरनाक जंगलों व नदियों को पार करते हुए राजग्रह पहुँचे. एक एक कदम जमीं को देखा,नापा जहाँ शाक्यमुनि बुद्ध के चरण पड़े थे .

फाहियान गृद्धकूट पर्वत पर बिम्बिसार पथ से शिखर तक पहुँचे. चारों ओर फैले पर्वतों पर नज़र घुमायी. सन 400 का साल था. बौद्ध स्थलों को देशी-विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा तबाह किया जा रहा था.

गृद्धकूट पर्वत पर सारे स्तूप, विहार सिर्फ़ खंडहर के रूप में थे. भगवान की गंधकुटी सिर्फ़ ईंटों का अवशेष थी. इस घने जंगल के पर्वत शिखर पर फाहियान पूरी रात रुके. पुष्प, सुगंध, दीप जलाकर पूरी रात चिंतन, मनन और ध्यान किया, सुरंगम सुत्त का पठन किया. सुबह गंधकुटी पर बुद्ध के प्रति श्रद्धा और उनसे न मिलने के दुख में ख़ूब रोये. फिर आँसुओं की बहती धारा को रोका.

वह बोले “तथागत के समय मैं इस धरती पर नहीं था. उनके साक्षात दर्शन कर मिल नहीं पाया. जहाँ भगवान के चरण पड़े अब उनके पदचिन्हों और उनके रहने के स्थानों के अलावा और कुछ नहीं देख सका.”

फाहियान ने वहाँ एक गुफा में ध्यान और सुत्त पठन किया. अन्य दर्शनीय स्थलों पर जाकर नमन वंदन किया. फिर बिमबिसार पथ से राजगृह को लौट आए और आगे की ओर चल पड़े.

इस पर्वत की सफ़ेद रंग की विशेष प्रकार की चट्टानें गिद्ध के चोंच के आकार की है इसलिए इसका नाम गृद्धकुट पर्वत पड़ा.

सबका मंगल हो….सभी प्राणी सुखी हो

जारी…

(लेखक : डॉ. एम एल परिहार)

— धम्मज्ञान —

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