जब भी मैं धम्मलिपि पढ़ता हूँ या पढ़ाता हूँ तो अनायास ही मेरा हृदय उस 38 वर्षीय नीली आंखों वाले, घुंघराले बालों वाले प्राच्यविद जेम्स प्रिंसेप के प्रति अगाध सम्मान से भर जाता है जो सुदूर इंग्लैण्ड से भारत में महज नौकरी करने आया था और यहां भारत से ऐसी बेपनाह मोहब्बत करने लगा कि उसे यहाँ का हर कोना-कोना, हर कण-कण अपना लगने लगा. बनारस को जिस प्रेम से उसने संजाया, संवारा, उसका आधुनिकीकरण किया, वो काबिल-ए-तारीफ है. लिपियों के प्रति उसका जो अगाध वात्सल्य था वो सदियों में किसी-किसी को उमड़ता है. सम्राट असोक की धम्मलिपि (ब्राह्मी) को पूर्णतः प्रथम बार पढ़कर उस अकेले सिंह ने विश्व इतिहास को झकझोर दिया.
हे जेम्स प्रिंसेप! हम देवानं पिय पियदस्सी सम्राट असोक के वंशज आपके प्रति सदैव ऋणी रहेंगे. आपके उस महान श्रम और प्रेम को हम कभी भी अपनी यादों से नहीं मिटने देंगे. अगले वर्ष आपके जीवन को आधार बनाकर लिखे जा रहे अपने उपन्यास से एक सच्ची आदरांजलि प्रकट करेंगे और हमारे इतिहास की कड़ियों को जोड़ने के लिए आपको पुनः जीवित करने का प्रयास करेंगे.
एक दास्तान लंदन के उस दीवाने की, जो ब्राह्मी को दिल दे बैठा और उसे समझने के जुनून ने उसे इस कदर आशिक बना दिया कि वह सब कुछ भूल गया. बनारस और कलकत्ता की गलियां जिसकी पदचापों का इंतजार किया करती थीं, जो गंगा में टेम्स का दीदार किया करता था, जो हुगली पर बैठे घंटों पश्चिम से आने वाली हवाओं को महसूस किया करता था, जिसे जागते, उठते, बैठते, सोते सब तरफ सिर्फ ब्राह्मी ही पागल बनाया करती थी, उसने तो अपनी महबूबा समझा ब्राह्मी को और काफी कोशिशों के बाद ही उसे अपना बना पाया.
लैला-मजनू, शीरी फरहाद, हीर-रांझा का प्यार कभी इस समाज ने मुकम्मल न होने दिया, किन्तु प्रिंसेप को उसका प्यार मिला और मिलता भी कैसे न, वो धम्म के महान पथ का जो पथिक था, वो शास्ता की वाणी को जन-जन तक विश्रुत करने वाले सम्राटों के सम्राट देवानं पियदस्सी असोक की महान विरासत को न केवल हम भारतीयों को अपितु दुनिया को बताने के लिए ही तो जन्मा था, वो ब्राह्मी का परवाना था, उसकी नींदों में ब्राह्मी के ही अधूरे सपने घूमा करते थे, उसकी मोहब्बत भी मुकम्मल हुई और जिसे चाहा था, वही उसे मिला.
जेम्स प्रिंसेप (20 अगस्त 1799 – 22 अप्रैल 1840) भारत सदैव आपके महान कार्य के प्रति नतमस्तक रहेगा. आपने हमारे विस्मृत इतिहास की कड़ियों को जोड़ा, आपने इतिहास रूपी घने काले बादलों के बीच छिपे हुए हमारे सूर्य सम्राट असोक के शिलालेखों को उद्वाचित (डिसायफर) करके न केवल उनकी ऐतिहासिकता को सिद्ध किया, अपितु भारत को उसका गौरव लौटाया था.
सांची स्तूप के “दा नं” शब्द को सर्वप्रथम पढ़ने की आपकी जो खुशी थी, वो वैसी ही थी कि आपने किसी खजाने तक जाने का पथ खोज लिया है. सात साल की मेहनत को सांची और भरहुत दोनों स्तूपों के इस “दानं” शब्द ने पुनः धम्मलिपि (जिसे कुछ लोग ब्राह्मी भी कहते हैं) को जन-जन तक विश्रुत किया. 1837 में जब आपने धम्मलिपि को पूर्णतः पढ़ा और “पियदसि” शब्द को जब श्रीलंका के वंस साहित्य के आधार पर सम्राट असोक से जोड़ा तो तत्कालीन इतिहासकारों की नींवें भरभराकर गिर पड़ी क्योंकि वे पुराणों की खोखली बातों पर आधारित थी. भारत का इतिहास पुनः सृजित हुआ और अब भारत के पास गर्व करने को सिकन्दर से भी महान शासक था. लोगों ने पहली बार जाना कि तलवारों के स्थान पर धम्म, शांति और अहिंसा को भी विदेश नीति का आधार किसी शासक द्वारा बनाया जा सकता है, राज्य की ओर से जनता पर शासन के अलावा एक शासक लोककल्याणकारी कार्य भी कर सकता है, चिकित्सा, शिक्षा और विभिन्न सुविधाओं को जन सामान्य से लेकर पशु-पक्षियों के लिए निःशुल्क कर सकता है.
हे तत्त्वलीन जेम्स प्रिंसेप, विगत दो वर्ष पूर्व देश-दुनिया के विभिन्न विद्वानों ने भदंताचार्य बुद्धदत्त पालि संवर्धन प्रतिष्ठान और अन्य लगभग 100 से अधिक विभिन्न विश्वविद्यालयों के बौद्ध विभागों एवं विभिन्न संस्थानों के हजारों विद्वानों ने एकमत होकर आपके जन्मदिवस 20 अगस्त को धम्मलिपि महत्ता दिवस के रूप में मनाने का संकल्प लिया था. जिसके तहत विश्व तथा देश के विभिन्न हिस्सों में आज विभिन्न कार्यक्रम ऑनलाइन एवं ऑफलाइन दोनों तरह से आयोजित किए जा रहे हैं, उन सबके प्रति हम सम्राट असोक के वंशजों की ओर से कोटिशः साधुवाद और जेम्स प्रिंसेप को सौ बार शुक्रिया, हज़ार बार शुक्रिया हमें हमारे इतिहास के उस गौरव भाल को वापस देने के लिए. कोटिशः पुण्यानुमोदन प्रिंसेप.