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पालि का सत्य स्वरूप

जैसे मां के दूध के सामने और सारे रस फीके पड़ जाते हैं. पोषण मिलता है, पालन मिलता है वैसे ही पालि से हमें पोषण मिलता है, पालन मिलता है. इसने धरम को पालकर रखा और यह हमें पालकर रखती है…

पाला है- उसने पालकर रखा है. धरम की वाणी पालकर रखी है. भगवान बुद्ध की वाणी पालकर रखी है. पालती है, वो हमें भी पालती है. मां अपने बच्चों का पालन करती है, पोषण करती है, इसी तरह धरम की वाणी को पालकर रखने वाली यह पालि, सभी बुद्ध-पुत्रों का, बुद्ध-पुत्रियों का पालन करती है, पोषण करती है. इसे पढ़ते-पढ़ते धरम का रस चखते हैं. जैसे बच्चा मां का दूध पीता है वैसे धरम का रस चखते हैं. और धरम का रस तो धरम का रस! “सब्बरसं धम्मरसो जिनाति”! इसके सामने सारे रस फीके पड़ जाते हैं, जैसे मां के दूध के सामने और सारे रस फीके पड़ जाते हैं. पोषण मिलता है, पालन मिलता है वैसे ही पालि से हमें पोषण मिलता है, पालन मिलता है. इसने धरम को पालकर रखा और यह हमें पालकर रखती है.

पहला कदम धरम के पथ पर चलने का भी! पहला कदम श्रुतज्ञान से होता है. सुनते हैं, पढ़ते हैं, श्रुतज्ञान हुआ. और कहीं वो ही गलत हो जाय तो अगले सारे कदम गलत ही होते चले जायेंगे. सही दिशा ही नहीं प्राप्त होगी, सही मार्ग ही नहीं प्राप्त होगा. जो श्रुतज्ञान पालि से प्राप्त होगा वो अन्य किसी भाषा से नहीं हो सकता. अनुवाद अनुवाद है. मूल मूल है. तो श्रुतज्ञान भी मूल पालि से हुआ. तो बिल्कुल सही रास्ते आगे बढ़ते चले जायेंगे. श्रुतज्ञान चिंतनज्ञान में बदलेगा. जो पाठ किया, जो कुछ सुना, वो केवल पाठ बनकर नहीं रह गया, कोई कर्मकांड बनकर नहीं रह गया- अब उस पर चिंतन होगा, मनन होगा.

शुद्ध धर्म के रास्ते चलने वाले लोग बहुत अच्छी तरह समझेंगे कि धरम के रास्ते उठाया हुआ कोई भी कदम निष्फल न हो. निष्फल हो ही नहीं सकता. तब होता है जबकि धरम के नाम पर किसी गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं. पूरी तरह बात को समझे बिना कोई काम करने लगते हैं. तो जो पढ़ा है उसका पाठ अवश्य करेंगे. पाठ करेंगे तो केवल यही लाभ नहीं होगा कि यह वाणी हमें कंठस्थ होती चली जायगी. उससे बड़ा लाभ यह कि उसे पढ़ते हुये, पाठ करते हुये, इसका अर्थ समझेंगे और उस पर चिंतन-मनन करेंगे. भगवान क्या कहना चाहते हैं? उनका क्या आदेश है, क्या निर्देश है?

बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है. लंबी से लंबी यात्रा पहले कदम से आरंभ होती है. हजारों मीलों की यात्रा भी पहले कदम से आरंभ होती है. धर्म तो जैसे एक गहरा समुद्र है, जैसे-जैसे आगे बढ़ते जायेंगे, और गहराई, और गहराई! तो इसी प्रकार जैसे-जैसे इस वाणी में आगे बढ़ते जायेंगे तो और गहराई. आज ऐसा अर्थ समझ में आया तो आगे जाकर के उससे और समझ में आयगा. बड़ा कल्याण होगा.

गहरा अर्थ तो श्रुतज्ञान चिंतनज्ञान के लिये, चिंतनज्ञान भावित करने के लिये। अनुभवित हो. बार-बार, बार-बार अनुभव पर उतरे तो भावित हुआ.

भावितो बहुलीकतो, भावितो बहुलीकतो.” धर्म जीवन में उतर रहा है, अनुभव करके देख रहे हैं. धर्म क्या है, कैसा है, यह केवल बुद्धि से समझ करके नहीं, अनुभव करके देख रहे हैं. तो फिर बात ठीक से समझ में आयगी और लाभ होगा. तो यह भी समझ में आयगा-

सब्बरसं धम्मरसो जिनाति”- दुनिया के सारे रस इसके सामने फीके हैं! यह सारे रसों को जीतने वाला है. तो हमारा पोषण होना शुरू हो गया. पालि ने भगवान की वाणी को ही नहीं पालकर रखा वह हमें भी पाल रही है. हमारा पालन कर रही है, पोषण कर रही है, हमें धर्म में पुष्ट कर रही है. मां की तरह दूध पिलाकर हमें बल दे रही है. तो सचमुच कल्याण होने लगा.

अनुवाद के अपने लाभ हैं. लेकिन भगवान की वाणी तो भगवान की वाणी, उनकी अपनी वाणी में धरम को समझें. बहुत गहराई से समझ में आयगा इसलिए पालि जानना आवश्यक है. बड़ा कल्याण होगा। परियत्ति में भी उतना पकना आवश्यक है जितना पटिपत्ति में.

जो कुछ समझोगे वह अनुभूति पर उतरने लगेगा. और जो अनुभूति पर उतरने लगेगा वह गहराई से समझने में सहायक होगा. तो परियत्ति पटिपत्ति को बलवान बनायेगी. पटिपत्ति परियत्ति को बलवान बनायेगी. और ये दोनों चक्के, गाड़ी के दोनों चक्के बराबर हों, एक साइज के हों, एक छोटा, एक बड़ा नहीं। दोनों एक जैसे हों, दोनों बलवान हों, सुदृढ़ हों. एक कमजोर तो कहीं टूट जाय, एक ही बलवान हो तो काम नहीं चले. एक छोटा, एक बड़ा तो गाड़ी आगे नहीं चले. तो समय निकालकर इस विद्या में, परियत्ति की विद्या में भी पकना है. अपने भले के लिये. धर्म को गहराइयों से समझने में यह परियत्ति बहुत सहायक होगी, बहुत सहायक होगी.

परियत्ति साथ रहेगी, तो पटिपत्ति साथ रहेगी- दोनों साथ रहेंगे तो धर्म जीवित रहेगा. अपने शुद्ध रूप में जीवित रहेगा. लोगों में धर्म जागना चाहिये।. थोड़े से ही लोगों में जागे. थोड़े में जागते-जागते अपने आप बहुतों में जागेगा. परियत्ति समझ में नहीं आयगी तो अपनी ओर से कुछ जोड़ने की प्रवृत्ति होगी ही. अरे भगवान ने और कुछ नहीं जोड़ा. शील, समाधि, प्रज्ञा बस। ‘केवलपरिपुण्णं‘- परिपूर्ण है. इसमें कुछ जोड़ने की जरूरत नहीं। ‘केवलपरिसुद्धं‘- कुछ निकालने की जरूरत नहीं. जो परिपूर्ण है, जो परिशुद्ध है उसको हम और परिपूर्ण बनाने की कोशिश करें, उसे हम और परिशुद्ध बनाने की कोशिश करें? तो बुद्ध से भी कहीं महान बुद्ध हो गये. ऐसा पागलपन जिस दिन भी होगा, अपने को बुद्ध का, बुद्ध की शिक्षा का अनुयायी कहने वाला व्यक्ति भी जिस दिन यह पागलपन करने लगेगा, बड़ा अमंगल करेगा. बड़ा अमंगल करेगा.

लोगों का भला करना है और इन तीन बातों में भला होता है, चौथी बात हमें जोड़नी नहीं है. हमें जोड़ने की जरूरत नहीं. भगवान की वाणी क्या कहती है यह पढ़ा ही नहीं. परियत्ति पढ़ी ही नहीं. तो जी चाहेगा- होगा भगवान की वाणी में तो कुछ और होगा न. हमने तो पढ़ा नहीं, तो क्या हुआ? यह भी अच्छा ही है न? यह भी तो अच्छा ही है न. आखिर इस परंपरा में यह बात चली आ रही है तो अच्छी है न, क्या बुरी है. जरा-सी यह भी डाल दें न. बस, जो जरा-सी डाल दी मार तालियां पीट-पीटकर उसको सिर पर चढ़ायगा, खूब ऊंचा उठायगा- और धर्म नष्ट होता चला जायगा. तो भाई नष्ट नहीं होने देना है. यह पालि का पठन पाठन, अध्ययन इसलिये कर रहे हैं कि जो पटिपत्ति है वह अपने शुद्ध रूप में कायम रहे.

जब-जब विपश्यना का इतिहास, जरा भी, एक विहंगम दृष्टि डालकर देखते हैं- तो पाते हैं कि अपने देश ने इतनी अनमोल विद्या खो दी। और देशों ने भी खो दी। तो उस देश के प्रति कितनी कृतज्ञता का भाव जागता है. उस एक देश ने अगर यह विद्या नहीं संभालकर रखी होती, उस एक देश ने यह सारी की सारी वाणी पालि भाषा में यथाभूत नहीं रखी होती तो हम दरिद्र के दरिद्र रह जाते. कंगाल के कंगाल रह जाते. तो वहां के लोगों ने, वहां के भिक्षुओं ने, आगे जाकर वहां के गृहस्थों ने किस कदर इसे शुद्ध रूप में कायम रखा! कितना उपकार उनका! शुद्ध रूप में परियत्ति को भी संभालकर रखा. शुद्ध रूप में पटिपत्ति को भी संभालकर रखा.

सतिपट्ठान सूत्र क्यों? उसका सतिपट्ठान शिविर लगाते हैं- यह वाणी है, यह कर रहे हो. यह कर रहे हो, यह वाणी है. एक-एक शब्द समझते हुये करें. वह नहीं होता तो इसमें न जाने क्या जोड़ देते. न जाने क्या निकाल देते. अब तो दोनों साथ हैं ना.

ये विपश्यना के प्रशिक्षित किये हुये आचार्य, प्रतिष्ठापित किये हुये आचार्य– ये अगर उसे शुद्ध रूप में कायम रखेंगे तो हमें कोई चिंता नहीं। पीढ़ियों तक चलेगी यह.

यह सही है, यह शुद्ध है, यह परिपूर्ण है. और यह शुद्ध और परिपूर्ण तभी रहेगा, जबकि इसके आचार्य इसे शुद्ध रखेंगे, परिपूर्ण रखेंगे और वो तब रख सकेंगे जब इस पटिपत्ति के साथ-साथ परियत्ति भी, परियत्ति भी, उसमें भी पुष्ट होते जायेंगे तो देखते जायेंगे- अरे, यह प्रधान आचार्य रहे ना रहे, यह प्रमुख आचार्य रहे ना रहे- धर्म है न उसको refer करेंगे. अच्छा भगवान ने क्या कहा, ऐसी स्थिति में भगवान ने क्या कहा- वाणी बोलेगी – यह कहा, और साथ कर रहे हैं साधना तो खूब समझ में आयगा, यह ही तो कहा भगवान ने, यही तो हम कर रहे हैं. यही तो हम कर रहे हैं, यही भगवान ने कहा. दोनों साथ-साथ, साथ-साथ चलेंगे.

तो यह परियत्ति भी इसलिये सीख रहे हैं, कि पटिपत्ति को खूब अच्छी तरह से समझकर के, उसको शुद्ध रूप में कायम रखें. कहीं हम भटक न जायं.

यह जो परियत्ति सीख रहे हो, यह बल देगी. बुद्ध ने तो यह कहा ना . पालि तो यह कहती है न. जिसने पालकर रखा धर्म को, वो तो यह कहती है न. जिन्होंने पालकर रखा इस विद्या को, पटिपत्ति को वो तो ऐसे ही करना सिखाते हैं न. बस, तो एक और उनका उपकार मानते हुये इसकी शुद्धता रखेंगे तो सही माने में उनका उपकार मानेंगे. उन्होंने 2500 वर्ष तक संभालकर रखा. उनका उपकार इसी में कि हम भी कम से कम 2500 वर्ष कायम रखेंगे इसको. उन्होंने 2500 वर्ष कायम रखा, हम भी 2500 वर्ष कायम रखेंगे. और खूब स्वयं पकेंगे, औरों को पकायेंगे. दोनों पक्षों को परियत्ति और पटिपत्ति को खूब मजबूत करेंगे, खूब मजबूत करेंगे. लोककल्याण के लिये, लोकमंगल के लिये.

अधिक से अधिक लोग धर्म में कैसे पकें। शील में पकें, समाधि में पकें, प्रज्ञा में पकें. और यह रास्ता है पकने का. इसे समझें. प्रेरणा प्राप्त करें. वाणी से प्रेरणा प्राप्त करें और इस साधना के अभ्यास (practice) द्वारा आगे बढ़ते जायँ, आगे बढ़ते जायँ.

– सत्यनारायण गोयन्का

(पालि कार्यशाला के समापन पर उद्बोधन- दिनांक 16.09.1999)
पुस्तक : घर-घर में पालि ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥

— धम्मज्ञान —

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