HomeGood Questions Good Answers5. पुनर्जन्म

5. पुनर्जन्म

सवाल: हम मानव कहाँ से आये हैं और कहाँ जा रहे हैं?

जवाब: इसके तीन जवाब संभव हैं. ईश्वर में विश्वास करने वाले कहते हैं कि विश्व निर्मिती से पहले मनुष्य नही था, फिर ईश्वर की इच्छा से निर्मित हुआ. मनुष्य अपना जीवन जीते और मान्यताओं के आधार पर जो कर्म करते हैं, उसके फलस्वरूप अनंत काल तक स्वर्ग या नर्क में रहते हैं. मानवतावादी व वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य सृष्टी के नियमों से गर्भाधान पाता हैं, जीता हैं और मृत्योंपरांत नष्ट होता हैं. बौद्ध धर्म इनमे से किसी भी दृष्टी को नहीं स्वीकारता.

पहली दृष्टी नैतिक समस्याओं को जन्माती हैं. अगर एक अच्छे ईश्वर ने हमे निर्मित किया हैं तो क्यूं इतने सारे लोग व्यंग पैदा होते हैं, गर्भ में या जन्म के तुरंत बाद मरते हैं? ईश्वर निर्मित मानव की संकल्पना अन्यायपूर्ण हैं, कि जिसमे सिर्फ 60-70 साल के जीवन में किये कर्म से हमे अनंत काल तक नर्क की पीडाए झेलनी पडती हैं. 60-70 साल की अश्रद्धा या अनैतिक कर्मों से अनंत काल तक सजा असगंत लगती हैं. उसी तरह 60-70 साल के जीवन के सत्कर्मों के परिणाम स्वरूप अनंत काल तक स्वर्ग मिल जाना भी असंगत हैं. दूसरा दर्शन पहले से ज्यादा साफ और वैज्ञानिक हैं पर कुछ महत्वपूर्ण प्रशन भी अनुतरित छोडता हैं. केवल शुक्राणु अरुअ स्त्रीबीज के मिलन से कैसे इतनी आश्चर्यजनक व जटिल मानव निर्मिती संभव हैं और वह भी सिर्फ 9 महिनों में? और आज जब परामनोविज्ञान एक मानय्ता प्राप्त विज्ञान की शाखा हो चुकी हैं ऐसे में दुरमनोसम्प्रेशन जैसी घटनाएं मन के पदार्थगत संरचना में समाना कठिन हैं.

मनुष्य कहाँ से आता हैं और कहाँ जाता हैं इसका सबसे समाधानकारक विश्लेषण बौद्ध धर्म देता हैं. जब हम मरते हैं तब मन जीवन भर में निर्मित सारी प्रवृतीयां, चाहतें, क्षमताएं और गुण विषेशों को लेकर एक अंडे में गर्भाधान करता हैं. नवजात व्यक्ति पुनर्जन्म  के प्रभावों से व जन्म की अन्य नयी परिस्थितियों से संस्कारित होता हैं. जागृत प्रयत्नों से व शिक्षण, माता-पिता तथा समाज का प्रभाव आदि से व्यक्ति बदलताद हैं व मृत्यु के बाद फिर नये अंडे से गर्भाधान करता हैं. यह पुनर्जन्म की प्रक्रिया अज्ञान और लोभ के अंत तक चलती रहती हैं. अंतत: मन पुनर्जन्म की बजाय निर्वाण को पाता हैं जो बौद्ध धर्म का अंतिम लक्ष्य और मानव जीवन का उद्देश्य हैं.

सवाल: मन एक देह से दूसरी देह में कैसे जाता हैं?

जवाब: इसे रेडियों लहरों की तरह कल्पना करें. रेडियों लहरें शब्द या संगीत से नही बल्कि ऊर्जा से बने विभिन्न कंपन मूल स्रोत से प्रसारित होकर पुन: संगीत व शब्द के रूप में प्राप्त होते हैं. ठीक ऐसा ही मन के साथ होता हैं. मृत्यु के समय मानसिक ऊर्जा आकाश में प्रसारित होकर किसी अंडे में गर्भाधान पाने के लिए आकर्षित होती हैं. जैसे गर्भ बढता हैं वैसे वह मन में केंद्रित होकर नये व्यक्तित्व की तरह प्रसारित होता हैं.

सवाल: क्या यह आत्मा ही नहीं हैं जो एक देह से दूसरी देह में पुनर्जन्म पाता हैं?

सवाल: बुद्ध के अनुसार, नहीं. वस्तुत: उनकी शिक्षा हैं कि अमर आत्मा में विश्वास अंहकार से जन्मा अज्ञान हैं, जो और अंहकार को बढावा देता हैं. जब हम देखते हैं कि कोई अमर आत्मा नहीं हैं, तब अंहकार, स्वार्थ आदि नष्ट हो जाते हैं. व्यक्ति कोई सघन पत्थर नहीं हैं बल्कि एक प्रवाह हैं.

सवाल: यह एक विरोधाभास लगता हैं. अगर कोई आत्मा नहीं तो कोई व्यक्ति भी नहीं तब पुनर्जन्म कैसे हो सकता हैं?

जवाब: यह किसी फुटबाल टीम की तरह हैं जो 95 सालों से चल रही हैं. इतने समय में सैकडों खिलाडी इसमें उतरे, 5-10 साल खेले, टीम छोडकर गये, उनके बदले दूसरे खिलाडी आये. मूल खिलाडियों मे से कोई भी आज टीम में ना हो या जीवित भी ना हो तब भी ‘टीम’ हैं ऐसा कहा जा सकता हैं. टीम का अस्तित्व लगातार लगातार होने वाले बदलाव केक बावजूद भी हैं. खिलाडी एक सघन, सुस्पष्ट अस्तित्व हैं पर टीम का अस्तित्व क्या हैं? उसका नाम, सफलता की स्मृतियां, खिलाडियों व समर्थकों की टीम के प्रति भावनायें, समूह भावना आदि. व्यक्ति का भी ऐसा ही हैं. लगातार बदलने वाले शरीर और मन के बावजूद भी पुनर्जन्म पाने वाला गुजरे हुये व्यक्ति का ही प्रवाह हैं. ऐसा कहा जा सकता हैं और यह इसलिये की नये व्यक्ति में स्मृतियां, विशिष्ट झुकाव, प्रवृतियाँ, मानसिक आचार व आदते वहीं होती हैं.

सवाल: ठीक हैं, अगर हम सभी पहले यहाँ रह चुके हैं तब हमे पिछली जिंदगी याद क्यों नही आती?

जवाब: कुछ लोगों को याद रहती हैं, कम से कम बचपन में. यह सच हैं कि अधिक लोगों को याद नहीं रहती. इसके कई कारण हो सकते हैं. शायद गर्भ में बिताये 9 महिनें सभी या अधिक स्मृतियाँ पोंछ देती हैं. शायद 9 महिने इंद्रियों के बिना होना और नयी इंद्रियां अचानक पाने का आघात सारी स्मृतियां पोंछ देता हैं.

सवाल: क्या हम हमेशा मानव के रूप में ही जन्मते हैं?

जवाब: नहीं, अस्तित्व के अनेक तल हैं जिसमें जन्म हो सकता हैं. कुछ स्वर्ग में कुछ नर्क में, कुछ नर्क में, कुछ प्रेत लोक इत्यादि में अन्मतें हैं. स्वर्ग लोक में शरीर सुक्ष्म होता हैं और खुशी का अनुभव अधिक होता हैं. सभी संस्कारीत अस्तित्व की तरह यह भी अनित्य हैं, जहां पर जीवन काल समाप्त होने पर मानव जन्म हो सकता हैं. नर्क लोक का अर्थ कोई स्थान नहीं पर ऐसी दशा जिसमें सुक्ष्म शरीर होता हैं और चित अधिकतर चिंता व परेशानी अनुभव करता हैं. प्रेत लोक इसी तरह एक अवस्था हैं जिसमें शरीर सुक्ष्म होता हैं और मन अधिकतर तीव्र प्यास और अतृप्ती अनुभव करता हैं.

तो स्वर्ग लोग में जन्मे लोग सुख भोगते हैं, नर्क और प्रेत लोक में जन्मे लोग दु:ख पाते हैं और मनुष्य लोक में जन्मे जीव सुख और दु:ख दोनों का अनुभव करते हैं. मनुष्य लोक और अन्य लोकों में प्रमुख भेद शरीर और अनुभवों की भिन्नता से होता हैं.

सवाल: पुनर्जन्म कहां होगा यह किस बात पर निर्भर करता हैं?

जवाब: इसका मात्र एक कारण नहीं पर मुख्यत: कर्म तय करता हैं कि जन्म कहां होगा और जीवन कैसे होगा. कर्म का अर्थ कृती होता हैं जिसे हम काया, वाणी या मन से करते हैं. दूसरे शब्दों में जो हम हैं वह हमारे अतीत के कर्म का नतीजा हैं. उसी तरह जो विचार या कृत्य हम वर्तमान में करते हैं उससे हमारा भविष्य निर्माण होता हैं. शांती और प्रेम से भरा व्यक्ति स्वर्ग लोक में या मनुष्य लोक में पैदा होता हैं. जहां सुखद अनुभूतीयां अधिकतर होती हैं. चिंता से ग्रसित या क्रुर व्यक्ति मृत्योपरांत नर्क लोक में या मनुष्य लोक में जहां दु:ख अनुभव अधिकतर होते हैं, पुनर्जन्म पाता हैं. जिस मनुष्य में तीव्र लालसा, लोभ या अक्षम्य महत्वाकांक्षा हो वह प्रेत लोक या मनुष्य लोक में पैदा होने को हैं जहां वह लगातार चाहत की अतृप्ती अनुभव करता हैं. जो भी मानसिक संस्कार चित पर इस जन्म में बनेंगे वही अगले जन्म में साथ चलेंगे. हांलाकि अधिकतर लोग मनुष्य लोक में जन्म लेते हैं. 

सवाल: आपने नर्क लोक के बारे में बताया. मुझे नही लगता कि बौद्ध लोग नर्क लोक में विश्वास करते हैं.

जवाब: अगर नर्क से आपका तात्पर्य हैं ऐसी जगह जहां कोई ईश्वर उस पर भरोसा न करने वालों को, अनंत काल तक सजा देता हैं, तो ऐसा कोई नर्क नही हैं. बौद्ध कहते हैं ऐसी कल्पना केवल बदले की भावना से निर्मित हैं. बौद्ध शब्दावली में नर्क के लिए ‘निरय’ और ‘अपाय’ यह दो शब्द हैं जिसका अर्थ होता हैं पतीत होना और खोना. अति क्रुर व स्वकेंद्रीत मनुष्य स्वयं के लिये नकारात्मक मन और वैसा दु:खद अनुभव निर्माण करता हैं. बुद्ध कहते हैं;

“मुर्ख कहता हैं नर्क समुंदर के नीचे हैं पर मैं कहता हूँ दु:खद अनुभूतियों का नाम नर्क हैं.” S. IV, 206

मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ. एक पागल व्यक्ति हमेशा खतरा, साजिश या धोखाधडी देखता हैं जो की हैं ही नही. यह उसका मन हैं जो उसे संशय, डर या चिंता में रखता हैं. किसी और के फैसले से उसने नकारात्मक अस्तितत्व नही पाया हैं. यह उसने स्वयं निर्माण किया हैं. बौद्ध मतानुसार ऐसे लोग स्वयं को नकारात्मकता से ऊपर उठा सकते हैं, अतएव नर्क अंतहीन नही हैं. हमे और मौका हमेशा उपलब्ध हैं.

सवाल: तो हम कर्म से बंधे नही हैं, उसे बदल सकते हैं.

जवाब: हाँ, हम बदल सकते हैं. यही बौद्ध धर्म का उद्देश्य हैं. इसलिए आर्य अष्टांगिक मार्ग में एक अंग हैं, सम्यक कर्मात. यह हमारी प्रमाणिकता पर निर्भर हैं, कितनी शक्ति हम लगाते हैं और कितनी मजबूत हमारी आदत हैं. लेकिन, यह सच हैं कि कुछ लोग जीवन को आदतों के प्रभाव से जीते हैं, बदलने का प्रयास नही करते और दुखद परीणाम भोगते हैं. ऐसे लोग दु:खी होते रहेंगे, जब तक अपनी नकारात्मकता को नही बदलेंगे. नकारात्मकता, आदतें जितनी पुरानी होती हैं उतनी बदलने में कठिन होती हैं. बौद्ध इसे समझते हैं, और हर मौके पर नकारात्मक मानसिक प्रवृतियों को सकारात्मक प्रवृतियों में परिवर्तित करने की कोशिश करते हैं. ध्यान से और वाणी के संयम से हम चित को बदलते हैं. बौद्ध धर्म का मूल उद्देश्य हैं चित को शुद्ध कर के मुक्ति पाना. उदाहरण के तौर पर अगर आप पिछ्ले जन्म में सहनशील व करुणावान रहे होंगे तो वही गुण इस जन्म में आपके साथ रहेंगे. अगर इन्ही गुणों का आप इस जन्म में विकास करेंगे तो वे और सघन होकर अगले जन्म में आप के साथ रहेंगे. यह बात सीधे निरीक्षण पर आधारित हैं कि पुरानी आदतें छुटने में कठिन होती हैं. पर जब आप शांती और करुणा को साधते हैं तब आप साधारणत: विचलित नही होते, आप दुर्भावना पकडे नही रहते, लोग आपको पसंद करते हैं, और ऐसे आप सुख का अनुभव करते हैं.

दूसरा उदाहरण लिजिये. समझो आप इस जन्म में पिछ्ले जन्म के कर्म से शांती और करुणा से भरे हैं. लेकिन इस जन्म में आप इन गुणों को विकसित नही कर रहे हैं. तब वे गुण धीरे-धीरे कम होकर खत्म होंगे और अगले जन्म में उपलब्ध नही रहेंगे. संयम व करुणा कम होने से इस जन्म में या अगले जन्म में संभव हैं कि क्रोध और हिंसात्मकता बढे और अपने साथ दु:खद परिणाम लाये.

हम एक आखरी उदाहरण लेंगे. समझे कि पिछ्ले जन्म के मन की आदतों से आप इस जन्म में शीघ्रकोपी व क्रोधी बने और इससे निर्मित दु:ख को समझ गय. अगर आप इन आदतों को थोडा घटाते हैं तो अगले जन्म में वे मन की आदते थोडी और कोशिश से पुर्णत: नष्ट होंगी.

सवाल: तो क्या बौद्ध धर्म एक ऐच्छिक स्वतंत्रता की शिक्षा देता हैं?

जवाब: बुद्ध कहते हैं कि, मानवी अस्तित्व से जुडी तीन गलत दृष्टियाँ हैं. एक कि हर घटना अपने से होती हैं, दूसरी कि हर घटना ईश्वर की इच्छा से होती हैं और तीसरी कि हर घटना पुर्वजन्म के कर्म का परिणाम हैं (अंगुतर निकाय I, 173). जैसा कि पहले ही कहा गया हैं कि कर्म हमे संस्कारीत करता हैं न कि निर्मित करता हैं. मनुष्य की इच्छाएँ घुडसवारी की तरह हैं. अगर मैं चाहता हूँ कि घोडा इस रास्ते से इस गती से चले, पर घोडे की अपनी चाल होती हैं. अगर मुझे अनुभव और आत्मविश्वास हैं तो में उसे अपनी मर्जी से चला सकता हूँ. अगर घोडे को मेरी कमजोरी का पता चलता हैं तो वह मेरी इच्छा के बावजूद अपनी ही चाल चलेगा. मेरी इच्छा से ऊपर घोडे की भी अपनी मर्यादा हैं. मैं उसे 50 कि.मी. प्रती घंते की रफ्तार से दौडाना चाहता हूँ पर उसमें वह शक्ति न होने से मेरे जोर लगाने पर भी वह नही दौड पायेगा. घुडसवारी का सुख कई पहलुओं पर निर्भर करता हैं, ठी वैसा ही मनुष्य के मन के साथ हैं. तो हम कह सकते हैं कि, हमारी इच्छा स्वतंत्र नही हैं, सभी चीजों की तरह वह संस्कारीत हैं. जैसे हम अपने स्वतंत्र चित को विकसित करते हैं, वैसे हममें अधिक संयम, सातत्य विकसित होकर अधिक सकारात्मकता निर्माण होती हैं. यही आर्य अष्टांगिक मार्ग का उद्देश्य हैं.

सवाल: क्या इस जन्म में हमसे संबंधित लागों से अगले जन्म में संबंधित होना संभव हैं?

जवाब: हाँ, यह संभव हैं. गहरे प्रेम में पडे एक विवाहित जोडे ने बुद्ध से कहा कि, जैसे वह इस जन्म में साथ हैं, वह अगले जन्म में भी साथ रहना चाहते हैं. बुद्ध ने कहा कि, अगर उनका प्रेम सच्चा हैं और उनमें समान श्रद्धा, शील और प्रज्ञा हैं तब यह संभव हैं. दो व्यक्तियों में अगर यकायक आकर्षण, प्रेम और मैत्री बढती हैं तो बौद्धों के अनुसार उनका पुनर्जन्म में कोई संबंध रहा हैं. यह पुनर्जन्म एक एक और सकारात्मक पहलु हैं – लोगों के बीच संबंध मृत्योपरांत बने रहते हैं.

सवाल: आपने पुनर्जन्म के बारे में काफी कुछ कहा हैं, पर क्या इसका कोई प्रमाण हैं?

जवाब: न केवल इसका वैज्ञानिक प्रमाण हैं बल्कि यही एक सिंद्धात हैं जिसमें मृत्यु के बाद के जीवन का प्रमाण हैं. स्वर्ग के अस्तितत्व का कोई प्रमाण नही हैं और ना ही मौत के साथ सब कुछ खत्म हो जाने का भी कोई प्रमाण हैं. पर पिछ्ले 30 सालों में परामनोवैज्ञानिकों ने पिछ्ले जन्म कि याद रखने वालों की खोज कर सबूत इकट्ठा किये हैं. उदाहरण के तौर पर इंग्लैंड में एक 5 वर्ष की बच्ची अपने पिछले जन्म के मां-बाप को साफ-साफ याद कर पाती हैं और उस जन्म कि घटनाये काफी स्पष्ट रूप से कह सकती हैं. परामनोवैज्ञानिकों को बुलाया गया, उन्होने लडकी से सैकडों सवाल किये, जिसके उसने सही जवाब दिये. उसने बताया की वो स्पेन के एक देहात की किसी गली में रहती थी, जिस देहात में रहती थी उसका नाम और गली का नाम, पडोसियों का नाम इसने बताये और बाकि रोजमर्रा की घटनायें भी विस्तार से बतायी. उसने रोते हुये बताया कि कैसे वो कार दुर्घटना का शिकार हुई थी और कैसे दो दिन बाद उसकी मृत्यु हुई थी. उसकी जानकारी की छानबीन करने पर पता चला कि उसकी बाते सही थी. स्पेन में एक देहात था जिसका नाम ठीक वही था जो इस लडकी ने बताया था. एक घर भी पाया गया जिसका जिक्र इस लडकी ने किया था. और यह भी पाया गया कि इस घर से एक 23 साल की लडकी कि 5 साल पहले कार दुर्घटना में मौत हुई थी. इंग्लैंड की एक 5 साल की लडकी जो कभी स्पेन नही गयी थी उसे यह सब कैसे पता चला होगा? और ऐसी यह केवल एक ही घटना नही थी. वर्जिनिया विद्यापीठ के, मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर इयान स्टीवन्सन ने अपनी किताब में दर्जनों ऐसे विवरण इकट्ठे किये हैं. वे एक मान्यताप्राप्त वैज्ञानिक थे, जिनका लोगों के पूर्वजन्म का अभ्यास बुद्ध की पुनर्जन्म की शिक्षा का एक ठोस समर्थन हैं.*

*University Press of Virginia, Charlottesville, 1975 में प्रकाशित Twenty Cases Suggestive of Reincarnation and Cases of Reincarnation Type को पढें

सवाल: कुछ लोग कह सकते हैं की पुर्वजन्म की याद आना शैतान का काम हैं.

जवाब: कोई बात आपकी मान्यता के विपरीत पडती हैं सिर्फ इसी कारण आप उसे शैतान का काम नही कह सकते हैं. जब किसी बात के समर्थन में सच्चाई सामने रखी जाती हैं तब आपको बुद्धि और तर्क से जवाब देना चाहिये न कि शैतान जैसी अतार्किक व अधंश्रद्धा की बातों से.

सवाल: हम पुनर्जन्म को भी अंधश्रद्धा कह सकते हैं.

जवाब: शब्दकोश के अनुसार अंधश्रद्धा उसे कहते हैं जिसमें जादुई कल्पना के आधार पर विश्वास रखा जाता हैं न कि हकीकत या सच्चाई पर. अगर आप मुझे शैतान का वैज्ञानिक प्रमाण देते हैं तो मैं इसे अंधश्रद्धा नहि समझुंगा. लेकिन, मैंने शैतान पर कोई खोज अबतक नही देखी. वैज्ञानिक ऐसी चीजों में उत्सुक नही होते हैं, इसीलिये मैं कहता हूँ कि शैतान का कोई प्रमाण नही. लेकिन, जैसा हमने अभी देखा कि पुनर्जन्म का प्रमाण हैं. और अगर यह विश्वास सत्य पर आधारित हैं तब अह अंधविश्वास नही रहा.

सवाल: क्या कुछ वैज्ञानिक भी हैं जो पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं?

जवाब: हाँ, थोमस हक्सले, जिन्होने विज्ञान को ब्रिटिश स्कुली शिक्षा में लाया और जिन्होने डार्विन के सिद्धांतो का समर्थन किया, कहते हैं कि पुनर्जन्म संभव हैं. उनकी प्रसिद्ध किताब, “उत्क्रांती व नैतिकता और अन्य लेख” में वे कहते हैं:

स्थित्यंतर के नियम का उद्गम चाहे जो भी हो, ब्रह्मांड या बौद्धों के चिंतन ने समष्टि से मनुष्य तक का संभाव्य विचार दिया, जो केवल उथली सोच वाले ही नकार सकेंगे. उत्क्रांतीवाद की तरह, स्थित्यंतरवाद के मूल, सत्य से जुडे होते हैं और यह स्वयं आधारभूत हैं.’.

प्रोफेसर गुस्ताफ स्ट्रॉमबर्ग, जो स्वीडन के एक मशहूर खगोलशास्त्री, भौतिकशास्त्री और आइंस्टाइन के मित्र हैं, उन्हे भी पुनर्जन्म की कल्पना भा गई.

‘पृथ्वी पर मानव पुनर्जन्म ले सकते या नहीं इस पर विभिन्न मत हो सकते हैं. 1936 में भारत देश में एक रोचक मामला यहाँ कि सरकार ने सामने लाया. शांति देवी नामक एक लडकी (दिल्ली) अपने पिछले जन्म की विस्तृत बातें बता सकी (मुतरा, दिल्ली से 500 मील दूर) जहाँ इस जन्म से एक साल पहले उसकी मौत हुई थी. उसने अपने पति और बच्चे का नाम बताया, घर का ब्यौरा और जीवन कथा सुनाई. खोज करने वाले अधिकारियों ने उसे पुरानी जगह ले जाकर उसके कथन की सच्चाई जांच ली. भारत देश में पुनर्जन्म आम बात हैं पर इस लडकी की खासियत यह थी की वह ढेर सारी बाते याद रख पायी. इस तरह की बातें स्मृति का अमिट होना साबित करती हैं.’

प्रोफेसर जुलिअन हक्सले, जो ब्रिटिश वैज्ञानिक और उनेस्को (UNESC) के संचालक थे, कहते हैं कि पुनर्जन्म एक वैज्ञानिक दृष्टि हैं.

‘बिनतारी संदेश लहरे जैसे छोडी जाती हैं वैसे ही मृत्यु के समय कुछ छूट जाता हैं. पर जैसे संदेश दुबारा तब उपलब्ध होता हैं जब उपकरणों के सन्निध आता हैं, वैसे ही उसे तभी कुछ महसूस होता हैं जब शरीर प्राप्त होता हैं. हमारी बनावट कुछ ऐसी हैं कि शरीर के बिना पृथक अस्तितत्व का अनुभव करना हमारे लिये नामुमकिन हैं. मृत्यु के समय ‘कुछ’ छुट जाना और उसका बाकि स्त्रीयों और पुरुषों से वही रिश्ता होना, बिलकुल वैसे होगा जैसे दिशाहीन संदेश लहरें आकाश में तब तक दौडती रहेंगी जबतक उन्हे कोई उपकरण… शरीर नही मिला जाता.’

अमरीकि उद्योगपती हेनरी फोर्ड भी पुनर्जन्म की बात को मानते हैं. हेनरी फोर्ड मानते हैं कि क्योंकि उससे दुबारा विकसित होने का मौका मिलता हैं. उन्होने कहा:

‘मैंन 26 वर्ष की उम्र में पुनर्जन्म को मान लिया… धर्म ने कुछ नही दिया… काम ने भी पूरा समाधान नही दिया. अगर इस जन्म का अनुभव अगले जन्म काम नही आता, तो काम व्यर्थ हैं. जब मुझे पुनर्जन्म का पता चला तो लगा जैसे वैश्विक योजना समझ में आयी. मुझे लगा कि मेरी कल्पनाये साकार करने के लिये मौके हैं. समय मर्यादित न रहा. मैं घडी से बंधा हुआ गुलाम नही हूँ… अनुभव ही प्रतिभा हैं. लोग सोचते हैं कि प्रतिभा एक भेंट हैं लेकिन यह अनेकों जन्मों के अनुभव का परिणाम हैं. कुछ जीव जो पुराने हैं वे ज्यादा जानते हैं… पुनर्जन्म की बात ने मुझे तनाव मुक्त किया… अगर आप संवाद सुनते हैं तो उसकों लिखिये ताकी मनुष्य का मन शांत हो. मैं औरों से भी यह बात कहना चाहता हूँ की जीवन का विस्तीर्ण फैलाव कैसी शांती देता हैं.’

तो बुद्ध की पुनर्जन्म की संकल्पना बाकि वैज्ञानिक हैं और यह मनुष्य के भविष्य के कुछ महत्वपूर्ण प्रशनों के उतर देती हैं. और यह काफी बडा आशावाद भी हैं. बुद्ध के मतानुसार अगर आप इस जन्म बुद्धत्व को नही पाते हैं तो आपको अगले जन्म फिर मौका हैं. अगर इस जन्म में गलतियाँ की हैं तो अगले जन्म सुधार सकते हैं. आप सही में गलतियों से सीख सकते हैं. जिन बातों को इस जन्म नही कर पाये उसे अगले जन्म में कर सकते हैं. कितनी सुंदर शिक्षा हैं!

सवाल: आपकी बातों से काफी बौद्धिक समाधान मिला पर मुझे अब भी पुनर्जन्म पर थोडा सा शक हैं.

जवाब: कोई बात नहीं. बौद्ध धर्म ऐसा नही कि आपको उनकी सारी शिक्षा मानकर उसके अनुसार चलना आवश्यक हैं. जबरदस्ती आपको कोई बात मनवाने में क्या मजा हैं? पुनर्जन्म में विश्वास किये बिना आप फिर भी कुछ शिक्षाओं को अमल में ला सकते हैं; जिस पर भरोसा हैं, जिसमे लाभ दिखता हैं. कौन जाने शायद आपको समय के साथ पुनर्जन्म भी समझ में आये.

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