दीघा जागरतो रत्ति, दीघं सन्तस्स योजनं
दीघो बालानं संसारो, सद्दम्मं अविजानतं.
हिंदी: जागने वाले की रात लंबी हो जाती है, थके हुए का योजन लंबा हो जाता है. सद्दर्म को न जानने वाले मूर्ख (व्यक्तियों) के लिए संसार (-चक्र) लंबा हो जाता है.
चरञ्चे नाधिगच्छेय्य, सेय्यं सदिसमत्तनो
एक चरियं दळ्हं कयिरा, नत्थि बाले सहायता.
हिंदी: यदि विचरण करते हुए (शील, समाधि, प्रज्ञा में) अपने से श्रेष्ठ या अपने सदृश (सहचर) न मिले, तो दृढ़ता के साथ अकेला ही विचरण करे. मूर्ख (व्यक्ति) से सहायता नहीं मिल सकती.
पुत्तं अत्थि धनमत्थि, इति बालो विहञ्ञति
अत्ता हि अत्तनो नत्थि, कुतो पुत्तो कुतो धनं.
हिंदी: ‘मेरे पुत्र!’ मेरा धन! इस (मिथ्या चिंतन) में ही मूढ़ व्यक्ति व्याकुल बना रहता है. अरे, जब यह (तन और मन का) अपनापा ही अपना नहीं है तो कहां ‘मेरे पुत्र!’? कहां मेरा धन!?
या बालो मञ्ञति बाल्यं, पण्डितो वापि तेन सो
बालो च पण्डितमानी, सवे “बालो” ति वुच्चति.
हिंदी: जो मूढ़ होकर (अपनी) मूढ़ता को स्वीकरता है, वह इस (अंश) में पंडित (ज्ञानी) है; और जो मूढ़ होकर (अपने आप को) पंडित मानता है, वह ‘मूढ़’ ही कहा जाता है.
यावजीवम्पि चे बालो, पण्डितं पयिरुपासति
न सो धम्मं विजानाति, दब्बी सूपरसं यथा.
हिंदी: चाहे मूढ़ (व्यक्ति) जीवन-भर पंडित की सेवा में रहे, वह धर्म को (वैसे ही) नहीं जान पाता जैसे कलुछी सूप के रस को.
मुहुत्तमपि चे विञ्ञू, पण्डितं पयिरुपासति
खिप्पं धम्मं विजानाति, जिव्हा सूपरसं यथा.
हिंदी: चाहे विज्ञ पुरुष मुहूर्त भर ही पंडित की सेवा में रहे, वह शीघ्र ही धर्म को (वैसे) जान लेता है जैसे जीभ सूप के रस को.
चरन्ति बाला दुम्मेधा, अमित्तेनेव अत्तना
करोन्ता पापकं कम्मं, यं होति कटुकप्फलं.
हिंदी: बाल-बुद्धि वाले मूर्ख जन अपने ही शत्रु बन आचर्ण करते हैं और ऐसे पापकर्म करते हैं जिनका फल (स्वयं उनके अपने लिए ही) कडुवा होता है.
न तं कम्मं कतं साधु, यं कत्वा अनुतप्पति
यस्स अस्सुमुखो रोदं, विपाकं पटिसेवति.
वह किया हुआ कर्म ठीक नहीं जिसे करके पीछे पछताना पडे, और जिसके फल को अश्रुमुख हो रोते हुए भोगना पडे.
तञ्च कम्मं कतं साधु, यं कत्वा नानुतप्पति
यस्स पतीतो सुमनो, विपाकं पटिसेवति.
हिंदी: और वह किया हुआ कर्म ठीक होता है जिसे करके पीछे पछताना न पडे और जिसके फल को प्रसन्नचित होकर अच्छे मन से भोगा जा सके.
मधुवा मञ्ञति बालो, याव पापं न पच्चति
यदा च पच्चति पापं, अथ बालो दुक्खं निगच्छति.
हिंदी: जब तक पाप का फल नहीं आता तब तक मूढ़ (व्यक्ति) उसे मधु के समान (मधुर) मानता है, और जब पाप का फल आता है तब (वह) मूढ) दु:खी होता है.
मासे मासे कुसग्गेन, बालो भुञ्जेय्य भोजनं
न सो सङखातधम्मानं, कलं अग्घति सोळसिं.
हिंदी: चाहे मूढ़ (व्यक्ति) महीना-महीना (के अंतराल) पर केवल कुश की नोक से भोजन करे, तो भी वह धम्मवेताओं (की कुशल चेतना) के सोलहवें भाग की बराबरी भी नहीं कर सकता.
न हि पापं कतं कम्मं, सज्जु खीरवं मुच्चति
डहन्तं बालमन्वेति, भस्मच्छन्नोव पावको.
हिंदी: जैसे ताजा दूध शीघ नहीं जमता, उसी तरह किया गया पाप कर्म शीघ्र (अपना) फल नही लाता. राख से ढंकी आग की तरह जलता हुआ वह मूर्ख का पीछा करता है.
यावदेव अनत्थाय, ञत्तं बालस्स जायति
हन्ति बालस्स सुक्कं सं, मुद्धमस्स विपातयं.
हिंदी: मूढ़ का जितना भी ज्ञान है (वह उसके) अनिष्ट के लिए होता है. वह उसकी मूर्धा (सिर=प्रज्ञा) को गिरा कर उसके कुशल कर्मों का नाश कर डालता है.
असन्तं भावनमिच्छेय्य, पुरेक्खारञ्च भिक्खुसु
आवासेसु च इस्सरियं, पूजं परकुलेसु च.
ममेव कत मञ्ञन्तु, गिहीपब्बजिता उभो
ममेवातिवस्स अस्सु, किक्चाकिच्चेसुकि स्मिचि
इति बालस्स सङकप्पो, इच्छा मानो च बड्ढति.
हिंदी: (मूढ़ व्यक्ति) जो नहीं है उसकी संभावना जगाता है, भिक्षुओं में अग्रणी (बनना चाहता है), संघ के आवासों (विहारों) का स्वामित्व (चाहता है) और पराये कुलों में आदर-सत्कार की कामना करता है.
ग्रह्स्थ और प्रव्रजित दोनों मेरा ही किया माने, किसी भी कृत्य-अकृत्य में मेरे ही वशवर्ती रहें – ऐसा मूढ़ (व्यक्ति) का संकल्प होता है. (इससे) उसकी इच्छा और अभिमान का संवर्द्धन होता है.
अञ्ञा हि लाभूपनिसा, अञ्ञा निब्बानगामिनी
एवमेतं अभिञ्ञाय, भिक्खु बुद्धस्सं सावको
सक्कारं नाभिनन्देय्य, विवेकं मनुब्रूहये.
लाभ का मार्ग दूसरा है और निर्वाण की ओर ले जाने वाला दूसरा – इस प्रकार इसे भली प्रकार जान कर बुद्ध का श्रावक भिक्खु (आदर-) सत्कार की इच्छा न करे और (त्रिविध) विवेक (अर्थात काय विवेक, चित्त विवेक, विक्खम्भन विवेक) को बढ़ावा दे.
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—भवतु सब्ब मङ्गलं—